Monday 23 May 2016
Tuesday 17 May 2016
वो सुबह कभी तो आएगी!
2014 के अपने ब्लॉग से साभार।
वो सुबह कभी तो आएगी!
वो सुबह कभी तो आएगी,
जब अखबारों की सुर्खियां,
वारदातों की खबर का शोर नहीं,
खुशियों के गीत सुनाएँगी,
जब लड़कियाँ घरो से बेख़ौफ़ निकल पाएँगी,
वो सुबह कभी तो आएगी,
जब सास-बहु के झगडे नहीं,
घर में प्यार की धुन गुनगुनाएगी,
और बहु के जलने/मरने की नहीं,
उसके उन्नति की खबरें आएँगी,
वो सुबह कभी तो आएगी,
जब घर से निकलती लड़की बेख़ौफ़ चल पाएगी,
जब वासना नहीं, इज़्ज़त की नजरें देख पाएँगी,
जब घर में बैठी उसकी माँ निश्चिंत घर पे रह पाएगी,
वो सुबह कभी तो आएगी,
जब लड़कियों के बलात्कार की घटनाएँ बंद हो जाएँगी,
जब लड़कियों को कोख में मारने की प्रथा बंद हो जाएगी,
जब वो भी ख़ुशी से हसेंगी, खेलेंगी और मुस्कराएँगी,
वो सुबह कभी तो आएगी,
जब नेताओ का मानसिक संतुलन सही हो पाएगा,
जब बयानों में राजनीति नहीं, जनता का दर्द आएगा,
जब उनकी सोच संकीर्ण नहीं, कुछ ब्रॉड हो जाएगी,
वो सुबह कभी तो आएगी,
जब आम इंसान को उसके हक़ मिल पाएंगे,
जब घोटालों की जगह पैसे का हक़ लोगो को मिल पाएंगे,
जब आम इंसान के सपने भी पूरे हो पाएंगे,
वो सुबह कभी तो आएगी,
जब अखबारों की सुर्खियां,
वारदातों की खबर का शोर नहीं,
खुशियों के गीत सुनाएँगी,
जब लड़कियाँ घरो से बेख़ौफ़ निकल पाएँगी,
वो सुबह कभी तो आएगी,
जब सास-बहु के झगडे नहीं,
घर में प्यार की धुन गुनगुनाएगी,
और बहु के जलने/मरने की नहीं,
उसके उन्नति की खबरें आएँगी,
वो सुबह कभी तो आएगी,
जब घर से निकलती लड़की बेख़ौफ़ चल पाएगी,
जब वासना नहीं, इज़्ज़त की नजरें देख पाएँगी,
जब घर में बैठी उसकी माँ निश्चिंत घर पे रह पाएगी,
वो सुबह कभी तो आएगी,
जब लड़कियों के बलात्कार की घटनाएँ बंद हो जाएँगी,
जब लड़कियों को कोख में मारने की प्रथा बंद हो जाएगी,
जब वो भी ख़ुशी से हसेंगी, खेलेंगी और मुस्कराएँगी,
वो सुबह कभी तो आएगी,
जब नेताओ का मानसिक संतुलन सही हो पाएगा,
जब बयानों में राजनीति नहीं, जनता का दर्द आएगा,
जब उनकी सोच संकीर्ण नहीं, कुछ ब्रॉड हो जाएगी,
वो सुबह कभी तो आएगी,
जब आम इंसान को उसके हक़ मिल पाएंगे,
जब घोटालों की जगह पैसे का हक़ लोगो को मिल पाएंगे,
जब आम इंसान के सपने भी पूरे हो पाएंगे,
वो सुबह कभी तो आएगी,
-शुक्ल
Saturday 7 May 2016
हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी
आजकल की इस दुनिया में चारो तरफ इतनी भीड़ है, इतने लोग है की एक पल को समझ में ही नहीं आता की आखिर क्या हो रहा है और हम कहा जा रहे है।
चलते चलते आजकल इंसान थकता नहीं है, १२-१४ घंटे का काम(यात्रा सहित) और उसपर इंसान का एक ऐसा रूप जहाँ वो लगातार बिजली के उपकरणों से लैस, जी हाँ, एक पल के लिए भी इससे दूर नहीं, कभी लैपटॉप, कभी मोबाइल, चार्जर, टी. वी. ना जाने और क्या क्या और उसपर इंसानी हुजूम, फिर चाहे वो दिल्ली की मेट्रो हो या बम्बई की लोकल, हर तरफ बस बेशुमार आदमी।
इतना इंसान जाता कहा है? आप कहेंगे की अपने काम पर, मगर काम तो एक बहाना है, असल मे इंसान बस अपने लिए कुछ पल तलाशने की कोशिश करता है, इतनी भीड़ में भी, इतने लोगों के बीच। ये अजीब है ना की इंसान तो इस दुनिया में कई है मगर लोग खुद में इतने उलझे हुए है की चीज़ों को सुलझा ही नहीं पा रहे।
इक गाँठ है जो उन्होंने खुद बनाई और अब खुद ही उसे खोल पाना उनके लिए मुश्किल होता जा रहा है। देखिए ना, अब वो उस गाँठ को टी. वी. देखकर, फिल्में देखकर, सप्ताहांत पर हँसकर खोलने की कोशिश करते है, मगर गाँठ तो कभी खुलती ही नहीं, और एक दिन खुद इसी गाँठ की चपेट में आकर खत्म हो जाते है।
इंसान कितना अकेला, कितना तन्हा चल रहा है ये तो आप एक खूबसूरत नज़्म सुनकर अंदाजा लगा सकते है, जो मरहूम ग़ज़ल गायक श्री जगजीत सिंह ने गाई थी। सुनिए और मेरे इस ब्लॉग का उस नज़्म से नाता देखिए।
चलते चलते आजकल इंसान थकता नहीं है, १२-१४ घंटे का काम(यात्रा सहित) और उसपर इंसान का एक ऐसा रूप जहाँ वो लगातार बिजली के उपकरणों से लैस, जी हाँ, एक पल के लिए भी इससे दूर नहीं, कभी लैपटॉप, कभी मोबाइल, चार्जर, टी. वी. ना जाने और क्या क्या और उसपर इंसानी हुजूम, फिर चाहे वो दिल्ली की मेट्रो हो या बम्बई की लोकल, हर तरफ बस बेशुमार आदमी।
इतना इंसान जाता कहा है? आप कहेंगे की अपने काम पर, मगर काम तो एक बहाना है, असल मे इंसान बस अपने लिए कुछ पल तलाशने की कोशिश करता है, इतनी भीड़ में भी, इतने लोगों के बीच। ये अजीब है ना की इंसान तो इस दुनिया में कई है मगर लोग खुद में इतने उलझे हुए है की चीज़ों को सुलझा ही नहीं पा रहे।
इक गाँठ है जो उन्होंने खुद बनाई और अब खुद ही उसे खोल पाना उनके लिए मुश्किल होता जा रहा है। देखिए ना, अब वो उस गाँठ को टी. वी. देखकर, फिल्में देखकर, सप्ताहांत पर हँसकर खोलने की कोशिश करते है, मगर गाँठ तो कभी खुलती ही नहीं, और एक दिन खुद इसी गाँठ की चपेट में आकर खत्म हो जाते है।
इंसान कितना अकेला, कितना तन्हा चल रहा है ये तो आप एक खूबसूरत नज़्म सुनकर अंदाजा लगा सकते है, जो मरहूम ग़ज़ल गायक श्री जगजीत सिंह ने गाई थी। सुनिए और मेरे इस ब्लॉग का उस नज़्म से नाता देखिए।
हर इक दिन अपने ही बोझ को हम सब ढोते है, और इक दिन इक मज़ार में तब्दील हो जाते है। कितनी बड़ी बात कही है उन्होंने, कमाल।
Sunday 1 May 2016
Sunday 20 March 2016
बदलाव को स्वीकार कीजिए
बदलाव एक ऐसी सतत होने वाली चीज़ है जिसे हम चाह कर भी इक दूजे से अलग नहीं कर सकते। आप सोच रहे होंगे, एक दूजे से? जी, इक दूजे से। हर पल दूसरे पल से जुड़ा हुआ है, अगर आपने पिछले पल को नहीं जिया तो इस पल में ख़ुशी को सोचना भी एक गुनाह है क्योंकि इस पल में ख़ुशी तभी आ सकती है जब हमने पिछले पल को आनंद से गुज़ारा हो।
मैं किसी बाबा या उन जैसा नहीं लगना चाहता इसलिए कहता हूँ की साहब बदलाव समय की पुकार है, और ये किसी समय से नहीं, सतत समय से जुड़ा हुआ है। सतत समय जो इस ब्लॉग के लेखन के दौरान भी है, इसके पूर्ण होने पर भी रहेगा, और उसके बाद भी रहेगा मगर हर पल बदलता ज़रूर रहेगा।
ज़रुरत है की हम उस बदलाव को स्वीकार करें और खुद को बेहतर बनाए क्यूँकि बदलाव और समय किसी का इंतज़ार नहीं करते, वैसे भी चलता हुआ पानी कल-कल की ध्वनि करता है जबकि रुका-ठहरा हुआ पानी बदबू मारता है।
_____________________________________________
लेखक - अमित शुक्ला
मैं किसी बाबा या उन जैसा नहीं लगना चाहता इसलिए कहता हूँ की साहब बदलाव समय की पुकार है, और ये किसी समय से नहीं, सतत समय से जुड़ा हुआ है। सतत समय जो इस ब्लॉग के लेखन के दौरान भी है, इसके पूर्ण होने पर भी रहेगा, और उसके बाद भी रहेगा मगर हर पल बदलता ज़रूर रहेगा।
ज़रुरत है की हम उस बदलाव को स्वीकार करें और खुद को बेहतर बनाए क्यूँकि बदलाव और समय किसी का इंतज़ार नहीं करते, वैसे भी चलता हुआ पानी कल-कल की ध्वनि करता है जबकि रुका-ठहरा हुआ पानी बदबू मारता है।
_____________________________________________
लेखक - अमित शुक्ला
Wednesday 9 March 2016
बड़ी भागादौड़ी है
आज एक नई शुरुआत हुई, एक बिल्कुल नई। शायद अपने सपने को पाने की ओर एक कदम बढ़ाया, मगर चारों ओर ये शोर कैसा? ये भागम-भाग कैसी?
एक पल को लगा की ये क्या हो रहा है? हम एक पल के लिए भी क्यूँ नही रुक रहे, सोचने के लिए, चिंतन के लिए, मगर जब थोड़ा और सोचा तो लगा की आजकल तो यही चल रहा है, हर एक अपने एक भुलावे में है, जल्दी में, किसी को किसी चीज़ के लिए वक़्त नहीं है, इतना भी नहीं की अगर कोई रास्ते में चोटिल पड़ा हो तब हम उसको अस्पताल पहुँचा सकें, या अगर कोई किसी के साथ बत्तमीजी करे तो हम उसका विरोध करें, इतने व्यस्त है हम।
जब उपरोक्त घटनाएँ हमारे साथ होती है तो हम सोचते है की काश कोई हमारी मदद को आता, मगर जब हमें किसी की मदद करनी चाहिए तो हम आँख मूँद लेते है या यूं कहूँ की फेर लेते है ताकि कोई हमें ना कहें की आपने देखते हुए भी कुछ क्यूँ नहीं किया। ये कितना कमाल है ना की हमें खुद के लिए सब कुछ अच्छा चाहिए होता है,मगर हम ये जानते है की कुछ भी अच्छा तब तक नहीं हो सकता जब तक हम अच्छा करने की कोशिश नहीं करते या किसी और के लिए नहीं करते।
अस्मिता थिएटर का एक नाटक है 'दस्तक' जो महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों के बारे में हमें जागरूक करता है और ये भी समझाता है की हमें क्या करना चाहिए, उसी नाटक में एक कविता का ज़िक्र होता है जो द्धितीय विश्व युद्ध के दौरान की है, और अगर आपको ये समझ में आ गई तो शायद आप भागादौड़ी के बीच में भी जीवन से सामंजस्य बनाएँगे। वो कविता कुछ इस प्रकार है:
'पहले वो मेरे शहर में आए लोगों को मारने लगे मैंने कुछ नही कहा ,फिर वो मेरे मोहल्ले मे आए मै चुप रहा , फिर वो मेरी गली में आएँ, मैंने अपनी आँखें बंद कर ली और जब वो मेरे घर में आएँ तो मुझे बचाने वाला कोई नहीं बचा था.'
एक पल को लगा की ये क्या हो रहा है? हम एक पल के लिए भी क्यूँ नही रुक रहे, सोचने के लिए, चिंतन के लिए, मगर जब थोड़ा और सोचा तो लगा की आजकल तो यही चल रहा है, हर एक अपने एक भुलावे में है, जल्दी में, किसी को किसी चीज़ के लिए वक़्त नहीं है, इतना भी नहीं की अगर कोई रास्ते में चोटिल पड़ा हो तब हम उसको अस्पताल पहुँचा सकें, या अगर कोई किसी के साथ बत्तमीजी करे तो हम उसका विरोध करें, इतने व्यस्त है हम।
जब उपरोक्त घटनाएँ हमारे साथ होती है तो हम सोचते है की काश कोई हमारी मदद को आता, मगर जब हमें किसी की मदद करनी चाहिए तो हम आँख मूँद लेते है या यूं कहूँ की फेर लेते है ताकि कोई हमें ना कहें की आपने देखते हुए भी कुछ क्यूँ नहीं किया। ये कितना कमाल है ना की हमें खुद के लिए सब कुछ अच्छा चाहिए होता है,मगर हम ये जानते है की कुछ भी अच्छा तब तक नहीं हो सकता जब तक हम अच्छा करने की कोशिश नहीं करते या किसी और के लिए नहीं करते।
अस्मिता थिएटर का एक नाटक है 'दस्तक' जो महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों के बारे में हमें जागरूक करता है और ये भी समझाता है की हमें क्या करना चाहिए, उसी नाटक में एक कविता का ज़िक्र होता है जो द्धितीय विश्व युद्ध के दौरान की है, और अगर आपको ये समझ में आ गई तो शायद आप भागादौड़ी के बीच में भी जीवन से सामंजस्य बनाएँगे। वो कविता कुछ इस प्रकार है:
'पहले वो मेरे शहर में आए लोगों को मारने लगे मैंने कुछ नही कहा ,फिर वो मेरे मोहल्ले मे आए मै चुप रहा , फिर वो मेरी गली में आएँ, मैंने अपनी आँखें बंद कर ली और जब वो मेरे घर में आएँ तो मुझे बचाने वाला कोई नहीं बचा था.'
Friday 26 February 2016
हरिवंशराय बच्चन मधुशाला से चुनी हुई कुछ रुबाइयाँ
मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला,
'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ -
'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।'। ६।
चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला!
'दूर अभी है', पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला,
हिम्मत है न बढूँ आगे को साहस है न फिरुँ पीछे,
किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला।।७।
मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला,
हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला,
ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का,
और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला।।८।
लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे देना ज्वाला,
फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला,
दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियाँ साकी हैं,
पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।।१४।
धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला,
मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला,
पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका,
कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।।१७।
एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,
एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,
दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,
दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।।२६।
अधरों पर हो कोई भी रस जिह्वा पर लगती हाला,
भाजन हो कोई हाथों में लगता रक्खा है प्याला,
हर सूरत साकी की सूरत में परिवर्तित हो जाती,
आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों में है मधुशाला।।३२।
मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला!।५०।
'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ -
'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।'। ६।
चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला!
'दूर अभी है', पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला,
हिम्मत है न बढूँ आगे को साहस है न फिरुँ पीछे,
किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला।।७।
मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला,
हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला,
ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का,
और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला।।८।
लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे देना ज्वाला,
फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला,
दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियाँ साकी हैं,
पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।।१४।
धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला,
मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला,
पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका,
कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।।१७।
एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,
एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,
दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,
दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।।२६।
अधरों पर हो कोई भी रस जिह्वा पर लगती हाला,
भाजन हो कोई हाथों में लगता रक्खा है प्याला,
हर सूरत साकी की सूरत में परिवर्तित हो जाती,
आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों में है मधुशाला।।३२।
मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला!।५०।