आजकल की इस दुनिया में चारो तरफ इतनी भीड़ है, इतने लोग है की एक पल को समझ में ही नहीं आता की आखिर क्या हो रहा है और हम कहा जा रहे है।
चलते चलते आजकल इंसान थकता नहीं है, १२-१४ घंटे का काम(यात्रा सहित) और उसपर इंसान का एक ऐसा रूप जहाँ वो लगातार बिजली के उपकरणों से लैस, जी हाँ, एक पल के लिए भी इससे दूर नहीं, कभी लैपटॉप, कभी मोबाइल, चार्जर, टी. वी. ना जाने और क्या क्या और उसपर इंसानी हुजूम, फिर चाहे वो दिल्ली की मेट्रो हो या बम्बई की लोकल, हर तरफ बस बेशुमार आदमी।
इतना इंसान जाता कहा है? आप कहेंगे की अपने काम पर, मगर काम तो एक बहाना है, असल मे इंसान बस अपने लिए कुछ पल तलाशने की कोशिश करता है, इतनी भीड़ में भी, इतने लोगों के बीच। ये अजीब है ना की इंसान तो इस दुनिया में कई है मगर लोग खुद में इतने उलझे हुए है की चीज़ों को सुलझा ही नहीं पा रहे।
इक गाँठ है जो उन्होंने खुद बनाई और अब खुद ही उसे खोल पाना उनके लिए मुश्किल होता जा रहा है। देखिए ना, अब वो उस गाँठ को टी. वी. देखकर, फिल्में देखकर, सप्ताहांत पर हँसकर खोलने की कोशिश करते है, मगर गाँठ तो कभी खुलती ही नहीं, और एक दिन खुद इसी गाँठ की चपेट में आकर खत्म हो जाते है।
इंसान कितना अकेला, कितना तन्हा चल रहा है ये तो आप एक खूबसूरत नज़्म सुनकर अंदाजा लगा सकते है, जो मरहूम ग़ज़ल गायक श्री जगजीत सिंह ने गाई थी। सुनिए और मेरे इस ब्लॉग का उस नज़्म से नाता देखिए।
चलते चलते आजकल इंसान थकता नहीं है, १२-१४ घंटे का काम(यात्रा सहित) और उसपर इंसान का एक ऐसा रूप जहाँ वो लगातार बिजली के उपकरणों से लैस, जी हाँ, एक पल के लिए भी इससे दूर नहीं, कभी लैपटॉप, कभी मोबाइल, चार्जर, टी. वी. ना जाने और क्या क्या और उसपर इंसानी हुजूम, फिर चाहे वो दिल्ली की मेट्रो हो या बम्बई की लोकल, हर तरफ बस बेशुमार आदमी।
इतना इंसान जाता कहा है? आप कहेंगे की अपने काम पर, मगर काम तो एक बहाना है, असल मे इंसान बस अपने लिए कुछ पल तलाशने की कोशिश करता है, इतनी भीड़ में भी, इतने लोगों के बीच। ये अजीब है ना की इंसान तो इस दुनिया में कई है मगर लोग खुद में इतने उलझे हुए है की चीज़ों को सुलझा ही नहीं पा रहे।
इक गाँठ है जो उन्होंने खुद बनाई और अब खुद ही उसे खोल पाना उनके लिए मुश्किल होता जा रहा है। देखिए ना, अब वो उस गाँठ को टी. वी. देखकर, फिल्में देखकर, सप्ताहांत पर हँसकर खोलने की कोशिश करते है, मगर गाँठ तो कभी खुलती ही नहीं, और एक दिन खुद इसी गाँठ की चपेट में आकर खत्म हो जाते है।
इंसान कितना अकेला, कितना तन्हा चल रहा है ये तो आप एक खूबसूरत नज़्म सुनकर अंदाजा लगा सकते है, जो मरहूम ग़ज़ल गायक श्री जगजीत सिंह ने गाई थी। सुनिए और मेरे इस ब्लॉग का उस नज़्म से नाता देखिए।
हर इक दिन अपने ही बोझ को हम सब ढोते है, और इक दिन इक मज़ार में तब्दील हो जाते है। कितनी बड़ी बात कही है उन्होंने, कमाल।
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