Wednesday 9 March 2016

बड़ी भागादौड़ी है

आज एक नई शुरुआत हुई, एक बिल्कुल नई। शायद अपने सपने को पाने की ओर एक कदम बढ़ाया, मगर चारों ओर ये शोर कैसा? ये भागम-भाग कैसी?

एक पल को लगा की ये क्या हो रहा है? हम एक पल के लिए भी क्यूँ नही रुक रहे, सोचने के लिए, चिंतन के लिए, मगर जब थोड़ा और सोचा तो लगा की आजकल तो यही चल रहा है, हर एक अपने एक भुलावे में है, जल्दी में, किसी को किसी चीज़ के लिए वक़्त नहीं है, इतना भी नहीं की अगर कोई रास्ते में चोटिल पड़ा हो तब हम उसको अस्पताल पहुँचा सकें, या अगर कोई किसी के साथ बत्तमीजी करे तो हम उसका विरोध करें, इतने व्यस्त है हम।

जब उपरोक्त घटनाएँ हमारे साथ होती है तो हम सोचते है की काश कोई हमारी मदद को आता, मगर जब हमें किसी की मदद करनी चाहिए तो हम आँख मूँद लेते है या यूं कहूँ की फेर लेते है ताकि कोई हमें ना कहें की आपने देखते हुए भी कुछ क्यूँ नहीं किया। ये कितना कमाल है ना की हमें खुद के लिए सब कुछ अच्छा चाहिए होता है,मगर हम ये जानते है की कुछ भी अच्छा तब तक नहीं हो सकता जब तक  हम अच्छा करने की कोशिश नहीं करते या किसी और के लिए नहीं करते।

अस्मिता थिएटर का एक नाटक है 'दस्तक' जो महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों के बारे में हमें जागरूक करता है और ये भी समझाता है की हमें क्या करना चाहिए, उसी नाटक में एक कविता का ज़िक्र होता है जो द्धितीय विश्व युद्ध के दौरान की है, और अगर आपको ये समझ में आ गई तो शायद आप भागादौड़ी के बीच में भी जीवन से सामंजस्य बनाएँगे।  वो कविता कुछ इस प्रकार है:

'पहले वो मेरे शहर में आए लोगों को मारने लगे मैंने कुछ नही कहा ,फिर वो मेरे मोहल्ले मे आए मै चुप रहा , फिर वो मेरी गली में आएँ, मैंने अपनी आँखें बंद कर ली और जब वो मेरे घर में आएँ तो मुझे बचाने वाला कोई नहीं बचा था.' 

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