आलोचनाओं से दूर हटकर पहले तो हमें इस बात की सराहना करनी चाहिए कि अच्छा कंटेंट एक बार फिर ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर आने लगा है। इससे पहले की आई कुछ फिल्मों और सीरीज ने, फिर चाहे वो इस प्लेटफार्म पर हों या किसी अन्य पर ने क्या जुल्म ढाया है वो आप मेरे पिछले रिव्यू पढ़कर समझ सकते हैं। 'चिंटू का बर्थडे' हो सकता है कि आपको थोड़ा हैरान करने वाली फिल्म लगे लेकिन इस फिल्म में जो खूबसूरती है उसको शब्दों में बाँध सके, ऐसे अल्फाज़ लिखे ही नहीं गए।
इस फिल्म के साथ वो छह बड़े और चार छोटे लेकिन बेहतरीन कलाकार जुड़े हुए हैं कि आपको देखकर ऐसा लगेगा जैसे ये कहानी और चलती तो मजा आता। इसे आप कहीं से भी आलोचना ना समझिएगा क्योंकि मैं सत्यांशु सिंह, और देवांशु कुमार सिंह ने जिस तरह से एक घर के अंदर हमें एक अलग दुनिया में पहुँचाया है उसके लिए ये और सिद्धार्थ दीवान बधाई के पात्र हैं। एडिटिंग के लिए चारु श्री रॉय बधाई की पात्र हैं क्योंकि उन्होंने कोई भी ऐसा पल नहीं आने दिया जब आपको कहानी में बोरियत लगी हो।
सीमा पाहवा जी हों या फिर तिलोत्मा शोम जी (यदि नाम गलत लिखा हो तो आप मुझे क्षमा करें, और जब कभी मुझे आपके साथ काम करने का मौका मिले तो आप इस गलती के लिए जो सजा देंगी वो मंज़ूर होगी), या विनय पाठक जी इन्होंने जिस तरह से एक कहानी को संजोया है वो आपको बचपन में ले जाने के लिए काफी है।
तिलोत्मा जी का वो गीत, सीमा जी का उसे आगे ले जाना और फिर परिस्थिति का बदल जाना एक पल के लिए आपको भी हैरान कर देता है। आप इस दुनिया में खो से जाते हैं जहाँ 'थोड़ा है, थोड़े की जरूरत है' वाला गीत सच लगता है। उसपर फोन पर संजय मिश्रा जी जैसी आवाज वाले पिताजी को सुनकर एक पल के लिए खुशी और हैरानी वाली भावना आती है क्योंकि एक पल के लिए जब वो घर ना जा पानेवाली खबर सुनकर विनय जी टूटते हैं तो आपके अंदर भी कुछ बिखर जाता है।
यहाँ चिंटू का किरदार कर रहे वेदांत छिब्बर और लक्ष्मी का किरदार कर रहीं बिषा (नाम में गलती हो तो माफी) चतुर्वेदी जिस सहजता से अपने किरदार को करते हैं वो आपके दिलों को छू जाता है। वो शायद सच ही कहते हैं कि बेटियाँ बहुत जल्दी ही सयानी हो जाती हैं। केक जल जाने के बाद जिस तरह से एक माँ अपने बच्चे को समझाने, सहेजने और समर्थ बनने के बारे में कहती है और बेटी की वो मुस्कान जिसको देखकर कई बापों की दिनभर की परेशानी, थकान और दर्द मिट जाते हैं उसे देखकर एक पल ऐसा लगा कि वाह किसी किरदार की यात्रा इससे बेहतर क्या होगी?
हर स्थिति में मुस्कुराते विनय पाठक जी, और उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर उनकी ढ़ाल बनकर चलने वाली तिलोत्मा जी का काम बयां कर सकूं, अभी इतना भी बड़ा नहीं हुआ मैं, और शायद उस स्तर पर पहुँचने में वक्त लगेगा। महसूस मीर का काम अच्छा था लेकिन अमिना अफरोज के चेहरे के भावों ने मुझे ये बताया कि वो अद्भुत प्रतिभा की धनी हैं। जब वहीद अपने अमरीकी दोस्तों, और उसके आगे की बातचीत करते हुए थोड़ा फ्लो फ्लो में इधर उधर निकल जाता है तो अमिना के चेहरे के हावभाव कितने सधे हुए होते हैं ये अलग से बताने की जरूरत नहीं है।
अमिना गिफ्ट देने, बर्थडे विश करने और बिना केक खाए जाने वाले सैगमेंट में अलग दिखाई देती हैं। सीमा जी, तिलोत्मा जी और विनय जी तो मेरी विशलिस्ट में हैं हीं जिनके साथ मैं काम करना चाहता हूँ, पर अमिना अफरोज उसमें एक और नाम जुड़ गई हैं। इस फिल्म को इसलिए भी देखिए क्योंकि कई बार अच्छी फिल्मों को ऑडिएंस तक पहुँचने में वक्त लगता है जैसे इसको 2017 से 2020 तक का लगा, और अगर आपको लगता है कि तन्मय भट्ट और उनके एआईबी के साथी यूँ ही कुछ भी बनाते थे तो ये आपको गलत साबित करने के लिए काफी है।
मैं कभी भी किसी फिल्म को रेटिंग नहीं देता बल्कि उसमें अच्छा और बुरा पल ढूँढता हूँ, लेकिन इसमें बुराई कहीं नजर ही नहीं आई।
लेखक: अमित शुक्ला
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