'चोक्ड: पैसा बोलता है' नेटफ्लिक्स की एक और पेशकश है जो मिसेज सीरियल किलर के बाद आई है और जिसके ट्रेलर ने सबको हैरान कर दिया था। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि जब मनोज जी के साथ सीरियल किलर आई थी तो जैक्विलिन फर्नेंडेज़ के काम को देखकर और शिरीष कुंदर के डायरेक्शन के बारे में मैंने कुछ कहा था जिसे कुछ ने पसंद किया। जिन्हें वो नहीं पसंद आया वो शिरीष जैसे तीस मार खां थे और जिन्हें जोकर (हिंदी वाली) भी अच्छी लगी थी। अब ऐसे लोगों को भला कोई क्या कहे, क्या बताए?
चोक्ड शुरू होती है या यूँ कहूँ कि अंत तक आम इंसान की जिंदगी को दर्शाती है और सैयमी खेर (यदि नाम में गलती हो तो आप रिप्लाई करके बता दीजिएगा) ने इसमें कमाल किया है। जिंदगी जीने के लिए वो शहर जो लोकल पर दौड़ता है और जिसमें जाना और निकलना दोनों ही एक जद्दोजहद है उसमें अगर एक काम करे और दूसरा भज्जर निठल्ला हो तो कोई क्या कह सकता है। टूटे हुए सपने और जिंदगी के मौजूदा हालात के बीच सामंजस्य बनती सैयमी काफी अच्छा काम करती हैं।
ये किरदार चैलेंजिंग है और उन्होंने पूरा इंसाफ किया है। ऐसे कई अदाकार हैं जिनके बिना भी ये कहानी चल सकती थी, जैसे राजश्री देशपांडे क्योंकि फिल्म में उनका काम नाम मात्र का है लेकिन कैमरा फुटेज काफी दी गई है। ये कहानी हम रोशन मैथ्यू और सैयमी खेर के नजरिए से देख रहे हैं और उसमें शुरआत के बाद कहानी ही कहीं ना कहीं चोक्ड हो गई।
अम्रुता सुभाष का काम अच्छा है क्योंकि हर गली मोहल्ले और बिल्डिंग में आपको ऐसी पड़ोसन या ऐसी ड्रामेबाज मिल जाएगी। कहानी में एक कंटीन्यूटी और किरदारों को दिखाने के लिए कई बार दरवाजा और लाइट बंद करना एक पल के लिए उबाऊ लगने लगा था। कहानी में अनुराग का कितना हस्तक्षेप रहा होगा ये जानने के लिए आप गैंग्स ऑफ वासेपुर का बिहाइंड द सीन देख लें और आप मेरी बात समझ जाएंगे।
एक पल के बाद या सही मायनों में एक घंटे तक आते आते कहानी खिची हुई सी लगने लगी जिसकी वजह से वो जुड़ाव बनाए रख पाना मुश्किल हो गया था। एक नल्ला पति जो पत्नी की तरक्की पर हैरान है, उसपर शक करता है और एक बच्चा जो इन सबके बीच एक टैलिप्राम्प्टर बन गया है।
रेड्डी का किरदार काफी कमजोर लिखा गया और फिर उसे करने में भी वो कमाल नहीं दिखा जिसकी उम्मीद थी। हर किरदार में वो धमाल होना चाहिए जो आपको बांधे रखे लेकिन ऐसा नहीं हो रहा था। कहानी बीच में इतनी धीमी और अंत में एकदम चोक्ड सी लगी की इस बात पर यकीन कर पाना मुश्किल था कि ये अनुराग कश्यप की फिल्म है।
अगर इस कहानी को कोई बाँध के रखता है तो वो हैं अम्रुता सुभाष और सैयमी खेर जिनकी वजह से आप दो घंटे की इस फिल्म के दौरान पल भी नहीं झपकना चाहते। वहीँ बाकियों के कारण आप उबासी ना छह कर भी लेने पर मजबूर कर देते हैं।
लेखक: अमित शुक्ला
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