Tuesday 5 May 2020

Zee5 Presents Jaywant Dalvi's Purush: सिनेमा और थियेटर का अद्भुत संगम जिसमें कुछ पल थे अच्छे, कुछ बेहद कम



जी5 ने हाल में एक फिल्म अपने प्लेटफार्म पर साझा की जिसका नाम था पुरुष और कमाल की बात ये थी कि एक पुरुष की काया के अंदर बाकी सभी अभिनेताओं का रूप समाया था।

वैसे कभी समंदर के दो किनारों को साथ आते देखा है? शायद नहीं, लेकिन इस फिल्म में ऐसा हुआ, क्योंकि इस फिल्म में थिएटर और सिनेमा का एक अद्भुत बंधन था जो आजकल हम काफी प्रचलन में देख रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि जिन स्टेज प्लेज  को करके हम कभी हटे थे वो अब लोगों तक ऑनलाइन स्ट्रीमिंग जैसे फेसबुक वॉच के जरिए पहुँच  रहे हैं और इस कहानी में भी कुछ ऐसा ही था।

अगर आपने थियेटर किया है तो शुरुआत के महज दस सेकेंड में आप इस बात को समझ जाएंगे कि ये कोई फिल्म नहीं बल्कि थियेटर में किया जा रहा शो है जिसे सिनेमा का रूप दिया गया है।

इसके बारे में और बात करूँगा लेकिन अभी के लिए आइए आपको बताता हूँ कि इस फिल्म (स्टेज प्ले) में क्या ज्यादा था और क्या कम, लेकिन हाँ ये ध्यान रखिएगा कि ये कोई यूट्यूब से सीखी हुई रेसिपी नहीं होगी क्योंकि एक्टिंग और खाने में एक समानता ये है कि दोनों में कुछ भी ज्यादा हो जाए तो चीज खराब हो जाती है:

बुरा

मुझको राणा जी माफ करना ओवरएक्टिंग जो हो गई

Covid-19 योद्धाओं का मनोबल बढ़ाने के लिए ...

आशुतोष राणा जी के काम को कुछ कहना बड़ी मुश्किल बात है लेकिन ये संघर्ष फिल्म नहीं है साहब कि जहाँ आपके सधे हुए काम और किरदार के चित्रण के लिए आपको कोई अवार्ड मिल जाए। हाल फिलहाल में राणा जी से कुछ गलती जरूर हो रही है तभी उनके किरदार वो असर नहीं छोड़ पा रहे हैं। फिर चाहे वो आ गया हीरो हो या फिर हाल में एमाजॉन प्राइम पर आई भूत: द हॉन्टेड शिप हो।

इस फिल्म की बात करें तो जैसे मैंने पहले कहा कि खाने में कुछ भी ज्यादा हो जाए तो जायका जबान को लगता नहीं बल्कि कचोटता है कुछ वैसा ही इनकी बेवजह हँसी, कैरिकेचरिश होना और अंत में तो उसकी इंतेहा ही हो गई थी। अब आप थियेटर को समझते हैं, एक्टिंग में एक बड़ा नाम हैं लेकिन इतनी बड़ी गलती।

जया के किरदार को सही से स्थापित ना करना

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ये हो सकता है कि आपको लगे कि जया के बारे में तो हमें सब पता था पर क्या वाकई ऐसा था? वो किनकी बेटी थी, इसके बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई। हमें सिर्फ ये पता था कि वो मेन किरदार की दोस्त है और अपने पति के शोषण का शिकार है जिसको रिझाने के प्रयास में वो नाकाम रहती है और फिर अपनी आन के लिए उसे छोड़ देती है। ये सही कदम था लेकिन इस स्थिति में वो कैसे पहुँची इसके बारे में कोई जानकारी नहीं मिली। ये जरूर हुआ कि उसे फैमिली प्लानिंग की सलाह मिली लेकिन उसकी अपनी फैमिली कौन थी इसके बारे में कोई खबर नहीं।

अच्छा

स्टेज का बेहतरीन इस्तेमाल

अब इससे जुड़ी फोटो ना होना भी इस बात को बताता है कि हर किसी को ये नाटक जिसे फिल्म का रूप दिया गया कितना पसंद आया है या इसका कितना क्रेज है। ऐसा अमूमन होता है कि जब कुछ नया और बेहतर होता है तो उसको स्वीकारने में वक्त लगता है। इस लाइन को लिखते ही मुझे जगजीत साहब की गज़ल याद आ गई जिसके बोल कुछ ऐसे थे, 'लंबी दूरी तय करने में वक्त तो लगता है।'

गुलकी जोशी का काम


मैं गुलकी जोशी जी के काम का प्रशंसक रहा हूँ लेकिन इसमें तो बात ही और थी। आप सोच रहे होंगे कि मैंने नाम के आगे जी क्यों लगाया क्योंकि वो एक अभिनेता हैं तो मैं तो ये हेडिंग में ही करना चाहता था। मुझे खुद अपने नाम के आगे जी लगाना पसंद नहीं है पर काम के कारण और लोगों को बुज़ुर्गियत का एहसास ना लगे इसलिए नहीं लगाता, वरना  अगर 'अमित जी लव्स बीका जी' हो सकता है तो जोशी जी भी सही है।

स्टेज के खिलाड़ी जानते हैं कि ब्लॉकिंग क्या होती है और फेड इन और फेड आउट किस चिड़िया का नाम है। स्टेज लाइट क्या होती है और फोकस लाइट भी किसे कहते हैं। इसके अलावा वो क्रॉस लाइट और कई अन्य लाइटों के बारे में भी जानते हैं जो आपको इस नाटक में देखने को मिलेंगी। जब पिताजी की मृत्यु होने वाली होती है तो फोकस लाइट के साथ साथ रंग भी बदलता है और फिर फेड आउट।

गुलकी जी का काम धमाल था और एक ऐसी लड़की जिसकी कोई गलती नहीं जब उसके साथ कुछ अमानवीय होता है तो सवाल उसपर ही क्यों उठते हैं? ये एक प्रश्न है जो हम आजतक पूछ रहे हैं और अगर आपने अस्मिता थियेटर का नुक्कड़ नाटक 'दस्तक' देखा है तो आप इस बात को समझ जाएंगे।

लोगों की सोच और बर्ताव में आनेवाले बदलाव के साथ साथ वो डायलॉग आज भी दिमाग को कचोटता है कि आखिरकार सरेआम कोर्ट में कैसे एक लड़की से उसके साथ हुए वीभत्स हादसे के बारे में पूछा जाता है। उसे फिर से उसी दर्द से गुजरना पड़ता है और वो असहनीय मानसिक पीड़ा दोबारा नहीं बल्कि कई बार याद करनी पड़ती है जो काफी दुखद है।

सामाजिक सोच को दर्शाना

एक नाटक में ये ताकत होती है कि वो इंसान को झकझोर दे और यही इस नाटक में भी था। अगर आपने बर्टोल्ट ब्रेख्ट का नाटक 'ए वोमन अलोन' देखा है तो आप इसके बारे में और आसानी से समझ सकेंगे। गुलकी जी के मित्र के माध्यम से लेखक और डॉयरेक्टर ने समाज की कई सोचों को एक साथ दर्शाया है। आज भी लोगों को नाम से नहीं बल्कि उनके उपनामों या धर्मों से ही संबोधित किया जाता है।

आप इसका मुजायरा कहीं भी देख सकते हैं क्योंकि कई लोग ऐसे ही कहते हैं कि 'पंडित जी के वहां से लाना,' 'यादव के वहां जाना' या 'मुसड्डे  के वहां ना खाना' जैसे कई नामों का प्रचलन है जो उस एक किरदार ने अपने काम से दर्शाया। मार्स पर जाने की तमन्ना रखने वाला इंसान उसकी खुद की बनाई एक परेशानी से तो जीत नहीं पा रहा है और इतने पढ़े लिखे होने के बाद भी हमारी सोच आज भी दोयम दर्जे की है।

मैं अमूमन कहता हूँ और इस आर्टिकल के दौरान भी कहता हूँ कि आपको कैरेक्टर सार्टिफिकेट हर कोई दे सकता है लेकिन नियत का सार्टिफिकेट कोई नहीं दे सकता है।

गुलाब सिंह एक नाम नहीं एक सोच है

ये बात 100 टका सही है क्योंकि इंसान अपनी सोच को ठीक करके ही कोई बदलाव ला सकता है। गुलाब सिंह एक इंसान नहीं था, एक सोच था, एक दोयम दर्जे की सोच जिसके लिए महिला एक भोग की वस्तु थी और उसके आधार पर आज भी महिलाओं को अपने पति या बड़ों के आगे झुक के चलना चाहिए।

हो सकता है कि ऊपर ऊपर से आप इस सोच का विरोध करें लेकिन अंदर ही अंदर आप इसका समर्थन करते हों, क्योंकि साहब मैंने पहले ही कहा है करैक्टर सर्टिफिकेट कोई भी दे देगा लेकिन नियत का सर्टिफिकेट कोई नहीं दे सकता है।

इस सोच की शुरुआत कैसे होती है, अगर इस बात पर गौर करें तो इसकी शुरुआत हमारे घरों से ही  होती है। वो घर जिसकी दीवारों के बीच एक लड़की का दर्द, उसकी घुटन और लड़के की दबंगई तथा खुलापन दर्ज होते हैं। ये वही घर है जिसके अंदर हम ये कानून बनाते हैं कि लड़कियाँ एक फलां वक्त तक घर आ जाएं जबकि ये रोक या सीमा लड़कों के लिए निर्धारित नहीं होती।

वो सोच जो लड़कियों को घूरना अपनी शान समझते हैं,  बत्तमीज़ी करना जिनके लिए 'पुरुष' होने का प्रमाण है और अमानवीय घटना करके कानूनी दावपेचों से खुद को मौत से बचाना जिनकी पहचान है। यही वजह है कि निर्भया तो इक खत्म हुई लेकिन उसके जैसी यातना पानेवालीं कई निर्भया गुमनाम है, और रेप घरों के बाहर नहीं होता, घरों में भी होते हैं, पर जिनकी गिनती से ये कानून अनजान है। 

ऐसा इसलिए भी है क्योंकि कई बार शोषण वही करता है जिससे हमारी होती गहरी पहचान है।

लेखक: अमित शुक्ला (इंस्टाग्राम पर भी इसी यूजरनेम के साथ)

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