स्टेट ऑफ सीज 26/11 हाल में जी5 की तरफ से एक प्रस्तुति थी जिसे देखने को मैं काफी उत्सुक था। एक तो ये कि हाल फिलहाल में जी5 के कई शो काफी अच्छे रहे हैं जिनमें कोड एम और चार्जशीट शामिल हैं। ऐसा नहीं है कि इनके विरोधी स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म्स ने कोई कमी रखी है लेकिन आर्मी से मेरा एक अलग ही लगाव है और इन जाँबाज़ों के कारण ही उस वीभत्स हादसे से ज्यादातर लोग बच सके थे। ये एक बड़ी वजह जिसके कारण मैंने इस आर्टिकल की फीचर इमेज भी किसी एक्टर की तस्वीर को नहीं बनाया है बल्कि उस वर्दी को जिसने इस मिशन को अंजाम दिया था। ये बात समझने के लिए काफी है कि इनके अथक परिश्रम और अचूक निशाने ने ही हमारे फाइनेंसियल और सिनेमा कैपिटल को बचा लिया था।
इस सीरीज में हर सीरीज की तरह कुछ चीजें बेहद अजीब थीं जबकि कुछ अन्य बेहद हैरान करने वाली जिसकी वजह से मैंने इस सीरीज को देखते समय मिडिया रिपोर्ट्स और उस समय की रिपोर्टिंग को ध्यान में नहीं लिया। आप सब जानते हैं कि मीडिया आपके बदन से खून निकालकर भी आपसे पूछ सकती है कि आपका खून निकल गया, आपको कैसा लग रहा है। मीडिया का जो निम्न स्तर उस दिन हुआ वो आजतक जारी है और इस बेहतरीन प्रोफेशन की जो मट्टी पलीत उस दिन हुई थी वो रुकने का नाम नहीं ले रही। अब वो कितने घटिया स्तर पर है इसे जानने के लिए अलग जाने की जरूरत नहीं। आप बीते हुए कल की ही एक तस्वीर देखकर इसका अंदाजा लगा सकते हैं:
चलिए ये तो हुई उन लोगों की बात जिनका जमीर नहीं है, पर अब बात करते हैं उस सीरीज की जिसके बारे में हम बात करने वाले थे। इस आर्टिकल में मैं खामियों और अच्छाइयों दोनों के बारे में ही बात करूंगा और आपके विचार कमेंट्स में जरूर जानना चाहूंगा। आइए बिना वक्त गवाएं उसपर नजर ड़ालते हैं:
बुरा
ग्रिप की कमी
अगर ग्रिप की बात करें तो वो इस शो में बिल्कुल भी नहीं दिखी। शो की शुरुआत में ही ऐसा लगा जैसे कहानी को कोई सटीक एंगल ना दे पाने की कमी को भरने के लिए कमिटी के सामने कमांडर मौजूद होते हैं। इसकी वजह से वो कुछ एक चीजों और नुकसान का ठीकरा दे सकेंगे। इसमें दोराय नहीं कि ये बिल्कुल होता हो लेकिन कहानी के दौरान इसको दिखाने का कोई खास औचित्य नहीं दिखाई दिया। ऐसी कई कहानियाँ लगीं जिनके बिना भी एपिसोड हो सकते थे जैसे फियांसे का कॉल आना और शुरुआत में एक दूसरे अफसर को फोन आना और उसे सबकुछ भूलने के लिए कहना।
पुलिस को हैरान और दिशाहीन दिखाना
इस पूरी सीरीज में पुलिस को दिशाहीन दिखाया गया जो किसी भी तरह से सही नहीं है। ऐसा नहीं है कि मुंबई पुलिस ने इस लड़ाई को लड़ने की कोशिश नहीं की लेकिन ये दिखाना कि किसी और के आर्डर से कोई कंट्रोल रूम में था और ये गलतियाँ हुईं एक तरह से मुंबई पुलिस के काम पर सवाल खड़े कर देता है। पुलिस की बहादुरी की मिसाल थे वो दो पुलिसवाले जो ताज में गए थे ताकि सब बच जाएं। अगर आपने राम गोपाल वर्मा की इसी त्रासदी पर बनी फिल्म देखी हो तो शायद आप इस गलती को समझ सकेंगे।
शहीदों के नाम गलत बताना
ये हैं वो पांच जांबाज़ जिनकी मौत इस ऑपरेशन के दौरान हुई लेकिन जिस फिल्म की हमने बात की उसने असली नाम दिखाए जबकि यहाँ हर नाम बदल दिया गया, क्यों? इसकी क्या जरूरत आन पड़ी भला और वहीं जब हम सब उन शहीदों को नमन करते हैं तो इस तरह का काम बिल्कुल गलत है। राकेश मारिया साहब का काम हो या फिर हेमंत करकरे जी का, इन सबने अपने काम से तबतक स्थिति को संभाला जबतक कमांडो वहां नहीं आ गए और उन्होंने स्थिति को अपने काबू में नहीं किया। इस बीच आपने उस मेहनत को सिर्फ अपने एक नजरिए के लिए बेकार कर दिया।
ओवरएक्टिंग
उरी फिल्म का एक डायलॉग यहाँ बिल्कुल फिट बैठता है। वो जैसे फर्ज़ और फर्ज़ी में एक मात्रा का अंतर होता है वैसे ही एक्टिंग और ओवरएक्टिंग में एक शब्द का अंतर होता है। इस सीरीज के दौरान किरदारों ने ऐसी ओवरएक्टिंग कई बार की, और खासकर संदीप जी का किरदार करने वाले एक्स्ट्रा, मतलब एक्टर अर्जुन ने कि मैं इस सोच में पड़ गया कि क्या इसकी जरूरत थी। आप ही सोचें कि कमांडिंग ऑफिसर ने आपको बेस पर रुकने के लिए कहा तो आप उनसे पहले ही बाहर खड़े हो गए और फिर वो डायलॉग। ये जवान थे जो ऑर्डर्स के लिए जान देते हैं, जहाँ डायलॉग नहीं काम की जरूरत थी जिसे करने में कुछ एक्टर नाकामयाब रहे। इसमें अर्जन बाजवा भी शामिल हैं लेकिन काफी कम क्योंकि उनका किरदार ऐसा था, और उनकी आवाज का बेस ऐसा था जो किरदार से मेल खा रहा था।
अब ये तो हुईं कमियाँ, आइए जरा अच्छाइयों की बात भी कर लेते हैं:
अच्छा
राजनितिक मूर्खता को उजागर करना
एक नेता के चक्कर में कितनी बार उड़ानों को रोका जाता है और चीजें बदली जाती हैं ये हम में से किसी से छुपा नहीं है। इसको एक सही दिशा देकर सीरीज ने इस कल्चर को एक्सपोस किया जो काफी अच्छा था। उन्होंने कई स्थितियाँ भी दर्शाईं जिनके आधार पर ये साबित हुआ कि राजनीतिक दबाव में फ्लाइट कितनी बार रोकी जाती है। ये एक ऐसा चलन है जिसे बदलने की जरूरत है और इसको सही तरह से दर्शाया गया है।
मीडिया की असलियत स्पष्ट कर दी
सिड मक्कड़ और तारा अलीशा बेरी ने अपने काम से ये दर्शा दिया कि मीडिया किस स्तर तक जा सकती है। टीआरपी के लिए किसी भी स्थिति को दिखाना अच्छी बात नहीं है लेकिन ये वो दिन और तारीख थी जिसने मीडिया को एक ऐसे दलदल में गिरा दिया जिससे वो आजतक उबर नहीं पाया है। वैसे हम सब जानते हैं कि ये दोनों कौन से किरदार कर रहे थे, और वो नाडिया कौन थीं। अगर आप जानकारी के अभाव में या नशे के प्रभाव में हैं तो अलग बात है वरना ये सर्वविदित है।
एक्टिंग
विवेक दहिया (यदि नाम गलत लिखा गया हो तो कृप्या कमेंट में अपने नाम की सही लेखनी बता दें) का काम अच्छा था। वहीं कोडी का किरदार कर रहे एक्टर ने भी अच्छा काम किया। यही बात मुकुल देव के लिए कही जा सकती है जिनका काम लाजवाब था, और नरेन कुमार ने निगेटिव किरदार में भी ये दिखा दिया कि उनके अंदर कितना हुनर है।
एक निगेटिव किरदार करना और वो भी इस तरह से कि एक पल के लिए आपको लगे कि पूरी सीरीज में इंटेंसिटी तो इसी एक्टर की थी अपने आप में बहुत कुछ कहता है। शोएब कबीर ने अपने किरदार को अच्छी तरह से किया लेकिन अगर इनके काम का मुकाबला रामगोपाल वर्मा की फिल्म में संजीव जायसवाल से करेंगे तो आपको इनका काम कमजोर नजर आएगा।
यहाँ इस बात को समझना होगा कि ये एक दुखद घटना थी जिसका सबने अपनी तरह से दोहन किया और अपना नजरिया दिखाया तो तुलना होना लाजमी है। उसमें भी मुकुल देव और नरेन कुमार अगर अपने काम से छाप छोड़ रहे हैं या कोडी का किरदार करने वाले एक्टर में वो दम दिख रहा है तो ये उनके हुनर की जीत है।
अर्जन बाजवा ने कमांडिंग ऑफिसर के तौर पर काफी अच्छा काम किया और ये शायद उनकी आवाज के बेस का कमाल है कि उनके काम से एक लीडर वाला तरीका नजर आ रहा था।
इस सीरीज ने एक बेहद अच्छी चीज की जिसका मैं अब जिक्र कर रहा हूँ।
एक इंसान की कहानी और मानसिकता को समझना
एक बड़ी पुरानी कहावत है कि कोई भी चोरी करना अपनी माँ के पेट से सीखकर नहीं आता उसे तो समाज और पेट की आग ऐसा करने पर मजबूर करती है। शोएब कबीर ने जिस तरह से एक किरदार की जिंदगी को पर्दे पर दर्शाया और किताब में उसे लिखा गया वो काबिलेतारीफ है। एक इंसान जो इज़्ज़त चाहता हो और फिर रास्ता भटककर वो एक ऐसे रास्ते पर आ जाए जहाँ उसका ब्रेनवाश कर दिया जाए अपने आप में बहुत कुछ कहता है।
ये दर्शाता है कि इंसान को शिक्षित होना और सही तथा गलत में फर्क करना आना कितना जरूरी है। ये जरूरी नहीं कि अखबार में लिखी सभी बातें सच हों तो ये भी जरूरी नहीं कि आपको बेहद नेक काम दिखा रहा इंसान सही ही हो। ये अपने आप में काफी भयावह स्थिति की ओर इशारा करता है और ये भी समझाता है कि इंसान को अपने बच्चों को छूट देनी चाहिए लेकिन इतनी नहीं कि वो छूट ही जाएं।
अब चूँकि ये ही इकलौता जिंदा इंसान पकड़ा गया था तो हमें इसकी कहानी मालूम चली लेकिन इसमें कितनी हकीकत है और कितना फसाना ये कोई नहीं जानता।
ये आर्टिकल एनएसजी और मुंबई पुलिस के उन जाँबाज जवानों को सलाम करता है जो इस मुश्किल घड़ी में भी काम करते रहे और उन सभी जाँबाजों को श्रद्धांजलि भी अर्पित करता है जिन्होंने देश की सुरक्षा में अपने प्राणों की कुर्बानी दी। इस आर्टिकल के माध्यम से मैं इस वीभत्स घटना के शिकार हुए लोगों के परिवार वालों के प्रति गहरी संवेदना व्यक्त करता हूँ और मारे गए लोगों की आत्मा की शान्ति की कामना करता हूँ।
लेखक: अमित शुक्ला
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