अब लगभग 10 महीनों के बाद मुझे मौका मिला कि जीवन की आपाधापी से अलग कुछ पल के लिए ही सही थोड़ा आराम किया जाए। कोरोनावायरस ने दौड़ती भागती जिंदगी में रुकने का मौका दिया बिल्कुल वैसे ही जैसे दौड़ते भागते और 19 सालों तक अपनी बात पर अडिग रहने के बाद हिम्मत सिंह को इख्लाख़ खान मिल गया।
वैसे ये सफर तय करने में थोड़ा वक्त मुझे और केके मेनन साहब को लगा क्योंकि पांच साल पहले बिलाल खान के किरदार को करने वाले मेनन साहब को हिम्मत सिंह बनने में थोड़ा वक्त लगा। बेबी फिल्म मेरी पसंदीदा फिल्मों में से है और उसे कितनी बार देख चुका हूँ अब इसकी गिनती भी नहीं है। 100 के बाद तो मैंने गिनना ही छोड़ दिया क्योंकि एक फिल्म जिसमें बेहतरीन कैमरा एंगल, काम और कहानी हो तो आप उसमें ही रम जाते हैं और ये एक फिल्म बनाने की इच्छा रखने वाले मुझ जैसे इंसान के लिए कितना मायने रखता है इसे कोई विरला ही समझ सकेगा।
एक बड़ी पुरानी कहावत है कि कुछ भी पूर्ण नहीं है तो फिर कोई कहानी या उसका दर्शाया जाना भला कैसे पूर्ण हो सकता है। हर चीज अपूर्ण है और उसमें खामियां होना लाजमी है और कुछ हद तक वो मुमकिन भी है जबतक कि नाम ही कलंक ना हो। मैं नीरज पांडे साहब की स्टोरीटेलिंग शैली से काफी प्रभावित हूँ और उनके जैसा काम थोड़ा मुश्किल है लेकिन फिर भी कुछ गलतियाँ होनी चाहिए ताकि हम देख सकें और उसे कह सकें।
हॉटस्टार की इस वेब सीरीज की तुलना ऐमज़ॉन इंडिया की सीरीज़ 'द फैमिली मैन' से की गई लेकिन आपको समझना होगा कि जब कंटेंट बनाने वाले अलग हैं और उनके काम का अंदाज अलग है तो आप उसकी तुलना दूसरे से भला कैसे कर सकते हैं।
इसके बावजूद कई आर्टिकल लिखे गए और ज्ञान परोसा गया लेकिन वास्तविक चीजों पर ध्यान ही नहीं दिया गया। मैं उम्मीद करता हूँ कि इसे पढ़ने वाले इससे मेल खाएं और अगर नहीं तो अपनी राय (ध्यान दें सिर्फ राय) कमेंट्स में जरूर बताएं। आइए बिना वक्त गवाएं वेब सीरीज की कमियों और अच्छाइयों पर एक नजर ड़ालते हैं:
कमियाँ:
सना खान का काम
अलबत्ता तो ये कहना गलत नहीं होगा कि सना का किरदार काफी हद तक सत्तर की उस अदाकारा से मिलता था जो विलन के साथ सिर्फ इसलिए थी ताकि ग्लैमर दिखे। ऐसा कोई भी पल नहीं लगा जब उनकी एक्टिंग ने कोई खास प्रभाव छोड़ा हो।
एक मिसाल के तौर पर जब फ़ारुख़ हाफिज़ साहब से मिलने जा रहा होता है तो इस्माइल का किरदार कर रहे एक्टर की तरफ से एक पूरा डायलॉग आता है। वहीँ सना खान के पास सिर्फ ये डायलॉग होता है,' या, या, ओके, ओके, आई विल कॉल यू, बाय।' अब इस डायलॉग से आप भला किसी के हुनर का क्या अंदाजा लगाएंगे? ये पूरी सीरीज में कोई खास काम करती नजर नहीं आईं लेकिन इसमें जितना दोष राइटिंग को दिया जा सकता है उतना ही एक्टर को भी क्योंकि उसने अपने हुनर पर काम ही नहीं किया।
अगर जूही को काम मिल सकता है और वो उस छोटे से पल में भी एक इम्पैक्ट छोड़ सकती हैं, या फिर मेहर विज अपने काम से सीन को अच्छा कर सकती हैं तो आप भी कर सकती हैं बस जरूरत है खुदपर काम करने की।
पवनीत सिंह और लाल ड्रेस वाले लड़के की एंट्री
पवनीत सिंह को एक शूटर का रोल दिया गया जिसे घूमने का शौक है लेकिन उसकी वजह से क्या वो एक इतने बड़े डेलिगेशन के बगल में जा सकता है जहाँ काफी सुरक्षा हो? ये मुश्किल है क्योंकि चारों तरफ गार्डेड लोग हैं और वो उसे वहां जाने ही नहीं देंगे लेकिन ऐसा दिखाया गया। वहीं दूसरी तरफ एक हेवी सिक्योरिटी वाले दस्ते के पहुंचने वाले सीन के बीच एक लाल रंग की ड्रेस में लड़का बाइक पर कैसे दिखाया गया ये थोड़ा हैरान करने वाला है। (एपिसोड 8 - शोले के शुरूआती पल)
फ्लैशबैक्स
ये पूरी सीरीज हिम्मत सिंह की उस थ्योरी पर आधारित है जहाँ उन्होंने किसी को देखा था और वो उसको तलाशने के लिए 19 साल तक एक बड़ा लंबा सर्च ऑपरेशन करते हैं। इसको लेकर दिखाए गए फ्लैशबैक्स कुछ ज्यादा ही बार दिखा दिए गए जिसने शो को लंबा खींच दिया और कहीं ना कहीं एक ग्रिप को कमजोर कर दिया।
इंवेस्टिगेटिंग ऑफिसर
अब परमीत सेठी उस उम्र में नहीं हैं जहाँ वो राज की सिमरन को ले जा सकें लेकिन उनका किरदार इतना भी निठल्ला नहीं दिखाना चाहिए था। वहीं काली प्रसाद मुख़र्जी के किरदार को इतना टिपिकल बंगाली दिखाने की कोशिश की गई कि वो एक इंवेस्टिगेटिंग ऑफिसर की जगह कॉमेडियन लगने लगे थे। जब आपके सामने एक ऑफिसर बैठा है और उन सीन्स में आप मेनन साहब के बैठने का तरीका भी देख सकते हैं उनके सामने दो इंवेस्टिगेटिंग ऑफिसर बेहद अजीब और ऐसे रिलैक्स्ड दिखाए गए जैसे कोई दोस्त से लंच टाइम पर बात करना चाहता हो।
अब जब पड़ोसी की तरह हमने इस सीरीज की चुगली कर ली है तो आइए उन पलों पर बात करते हैं जो इस सीरीज को धमाल बनाते हैं:
खूबियाँ
के के मेनन
इस पूरी सीरीज की जान हैं वो अदाकार जिनके काम का मैं तब भी मुरीद था जब ये फिल्मों में काम कर रहे थे और अब जब वो डिजिटल प्लेटफार्म पर आए हैं तो भी इन्होने धमाल ही किया है। हिम्मत सिंह, सर, या नंदू आप इन्हें चाहें किसी भी किरदार से याद रखें इसमें दोराय नहीं कि पूरी सीरीज में इनका एकछत्र राज रहा है। धीर, गंभीर, और कर्तव्य के लिए सबकुछ न्योछावर करने वाले के के मेनन उर्फ़ हिम्मत सिंह उर्फ़ नंदू ने वो धमाल किया है और ऐसा अंदाज रखा है कि आप सिर्फ इनके काम को देखते रह जाएंगे। अब वो चाहे अटैक की जानकारी इंवेस्टिगेटिंग ऑफिसर के सामने बताने वाला सीन हो या कुछ अन्य सब एकदम बेहतरीन था।
साथी कलाकार
मैं इस बात को कभी नहीं मानता कि कोई स्पोर्टिंग एक्टर होता है क्योंकि हर इंसान चाहे वो छोटे से छोटे फ्रेम में आया हो एक अदाकार है और उसे वही तरजीह दी जानी चाहिए। इस सीरीज में चाहे आप सज्जाद डेलफरूज़ की बात करें या फिर गौतमी कपूर जी की या फिर दिव्या दत्ता जी की हर किसी ने अपने काम को अच्छे से निभाया है। अब जिन्होंने नहीं निभाया मैंने उनके बारे में ऊपर लिख दिया है।
करन के किरदार में हिम्मत थी लेकिन कुछ पलों की लिए ऐसा लगा जैसे वो भी अपने काम से भटके और किरदार से ज्यादा करन दिखने लगा था लेकिन उन्होंने उसे संभाला। जो साथी इस सीरीज की तुलना एक अन्य सीरीज से कर रहे हैं तो वो ये जान लें की इसका तरीका एकदम अलग है।
दिव्या दत्ता जी अगर किसी सीन में हों तो वो वैसे ही अच्छा हो जाता है उसपर अगर आप उस सीरीज में गौतमी कपूर जी और विनय पाठक जी को भी ले आएं तो एक सिनेमा के शौकीन को और क्या चाहिए। गौतमी जी ने जिस खूबसूरती से एक फिक्रमंद और मजाकिया पत्नी का किरदार निभाया है वो काबिलेतारीफ है।
रजत कौल हों, मेहर विज,अरविंद वाही या फिर राजेंद्र चावला हर किसी ने अपने काम को बखूभी निभाया है। शरद साहब के काम से आखिरी दो एपिसोड में मजा आया जबकि तुषार दत्त ने टैक्सी के किरदार को अच्छे से निभाया। ये लिस्ट इतनी बड़ी है कि मैं इसके बारे में एक पूरा ब्लॉग लिख सकता हूँ।
राइटिंग और डायलॉग्स
राइटिंग और डायलॉग्स की बात करें तो इस सीरीज में कुछ अच्छी राइटिंग थी और बेहतरीन डायलॉग्स भी और कौन से डायलॉग्स नहीं होने चाहिए थे उसके बारे में कमियों में लिख दिया गया है। नीरज पांडे और उनके साथियों के द्वारा लिखी गई सीरीज में कमियां कम ही होती हैं लेकिन कुछ डायलॉग्स बेहद अच्छे थे। इनमें से एक का उदहारण देता हूँ:
आखिरी एपिसोड में जब हिम्मत सिंह करन को फोन करके सादिया के बारे में जानकारी निकालने के लिए कहते हैं और करन बीच में ही टोक देते हैं तो एक पल में जो इमोशन हिम्मत सिंह के दिल में थे और उसके बाद आया डायलॉग ये बताने के लिए काफी हैं कि टीम कितने संभल के डायलॉग्स लिखती है।
हाँ वो बात और है कि हाफिज का अंदाज उनकी एक फिल्म (नाम लिए बिना आप समझ जाएंगे) से मेल खाता है जिसमें सलमान खान भी थे। ये अंदाज कुछ हद तक बोर कर सकता है लेकिन शायद किरदार की डिमांड थी इसलिए उसे नकारा जा सकता है।
डायरेक्शन
इस सीट पर बैठने वाले के लिए कुर्सी किसी हॉटसीट से कम नहीं होती। वो बात अलग है कि इस शब्द का इस्तेमाल एक रियलिटी शो में भी होता है लेकिन वहां लोग इनाम की तौर पर रूपए पाते हैं और यहाँ अगर आपके काम में दम नहीं हुआ तो आप लोगों से, 'क्रिटिक्स' से बेकार रिव्यू पाते हैं। कमियाँ निकालना आसान है और जैसा इस सीरीज में हाफिज अपने साथी इस्माइल से कहते भी हैं कि 'हम किसी की बारे में तबतक नहीं जानते जबतक हम उसकी बुराइयों को नहीं जानते' कुछ हद तक सही है।
कमियाँ जानना अच्छी बात है लेकिन लोगों में अच्छाइयाँ देखना भी एक हुनर है। नीरज जी ये काम कमाल करते हैं और यकीन ना हो तो एक बार फिर बेबी या स्पेशल 26, अय्यारी या सात उचक्के देख लो और आप समझ जाओगे कि मैं क्या कहना चाहता हूँ। मैं कैमरा और अन्य चीजों के बारे में इसलिए नहीं कह रहा क्योंकि ऊपर लिखी फिल्में आपको ये बताने के लिए काफी हैं कि इनका काम कैसा होता है।
अगर एक लाइन में इस सीरीज को बताना हो तो हिम्मत सिंह के अंदाज में ये कह सकते हैं, 'हाफिज ही इख्लाख़ खान है', ठीक वैसे ही जैसे 'गंगाधर ही शक्तिमान है।'
लेखक: अमित शुक्ला
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