वो कहते हैं ना, कि कभी कभार कुछ चीज़ें एकदम से होती हैं, और वो सही होती हैं, इस फिल्म के लिए भी कुछ वैसा ही हुआ। इससे पहले कि मैं इस फिल्म के बारे में कुछ कहूँ, उससे पहले आपको बताता चलूँ कि मुझे दरअसल एक दूसरी फिल्म को देखने का न्योता दिया गया था, और मै उस फिल्म को देखने के लिए ही गया था, लेकिन सिनेमा मालिकों के द्वारा ना चलाए जाने की वजह से एक ऐसी फिल्म देखने का मौका मिला, जिसने इस सफर को और खूबसूरत बना दिया। आइए आपको इस प्यारी सी नोटबुक के बारे में बताते हैं जिसमें सिर्फ इश्क़ की खुशबू थी, आहट थी और वो मखमली एहसास था जिसमें रिश्तों को पिरोया गया था।
किताबों से हम सब की दोस्ती बचपन में ज़रूर हुई होगी, लेकिन शायद ही कभी इश्क़ इतना मुकम्मल और खूबसूरत रहा होगा जितना इस फिल्म में था। दो प्यार करने वालों के बीच जिस तरह से इश्क़ को दिखाया गया वो इतना रूहानी था, कि मैं उसे बयां करने के लिए अल्फ़ाज़ ढूंढने की कोशिश कर रहा हूँ। एक डेब्यू कर रही एक्ट्रेस की तरफ से इतना खूबसूरत काम मैंने एक वक़्त में नहीं देखा है। हर एक लफ्ज़ में वो मासूमियत, और वादियां इस पूरे एहसास को और रूमानी बना दे रहीं थीं।
इस फिल्म के असली एक्टर थे वो बच्चे जिन्होंने अपनी मासूमियत से पूरी फिल्म में एक अलग ही समा बनाए रखा। अगर प्रनुतन बहल (आशा है उनका नाम सही लिखा गया है) के काम को देखें तो मुझे उनके काम में वो हुनर दिखा जिसको पाने में बड़े एक्टर्स को भी समय लगता है। इस पूरी फिल्म में इश्क़ रूहानी था, जिसको हर पल महसूस किया जा सकता था। अपने प्यार की याद में इंतज़ार करते उस आशिक की ख़ुशी को महसूस किया जा सकता है, जो दिल से होती हुई, रूह में बस जाती है। इस किस्म की फिल्में ये भी दर्शाती हैं कि आपको इश्क़ को दिखाने के लिए ऊलजलूल करने की ज़रूरत नहीं है।
एक बात जो इस फिल्म के दौरान और बाद में भी मेरे ज़ेहन में रही, वो ये कि फिल्म जगजीत सिंह की उस ग़ज़ल की तरह है जिसमें वो खुशबू है, जिसे हर कोई पसंद करता है। उनकी एक ग़ज़ल मुझे ये लिखते हुए याद आ रही है, जो आपके नज़र करता हूँ:
इस ग़ज़ल में जो खुशबू है वो इतनी खूबसूरत है कि उसका मुकाबला, आजकल के रैप के बोल ,'रात के बज गए पौने दो, प्यार मोहब्बत होने दो' जैसे गीत नहीं कर सकते। इस फिल्म को मैं अपने इन अल्फ़ाज़ों से बयां करूंगा,
'इश्क़ अगर मुकम्मल होता तो इश्क़ क्यों होता,
है कशिश ऐसी, हर ज़र्रा आहट पर मुस्काया है,
वो बेनज़ीर बनकर मुझमें है कुछ इस कदर,
वो बेनज़ीर बनकर मुझमें है कुछ इस कदर,
कि वो ही मेरा गुरूर, मेरा सरमाया है।' - शुक्ल
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