ऐमज़ॉन प्राइम वीडियो ने जैसे ही पंचायत सीरीज की घोषणा की थी तो मैं काफी उत्साहित था। एक तो ये कि इसमें दो दिग्गज देखने को मिलने वाले थे जिनके काम को देखकर मैं बड़ा हुआ और वो आज भी हमारे लिए उतने ही श्रद्धेय हैं जितने उस समय थे जब ये टीवी में काम करते थे। इस आर्टिकल में मैं आगे बढ़ूँ इससे पहले उनके चरणों में अपना नमन करता हूँ, और आशा करता हूँ कि मेरा प्रणाम नीना गुप्ता मैम और रघुवीर यादव सर तक पहुंचे और वो इसे स्वीकार करने योग्य समझें।
अगर आप मेरे पिछले रिव्यू देखेंगे तो ये पाएंगे कि मैंने हर काम में कुछ कमी पाई है और उसको कहते हुए मैं कभी सकुचाया नहीं हूँ। इस सीरीज के लिए टीवीएफ बधाई के पात्र हैं और साथ में पात्र हैं लेखक चंदन कुमार तथा डायरेक्टर दीपक कुमार मिश्रा जिन्होंने एक अलग ही स्तर का काम दिखाया है। जीतेंद्र कुमार जिन्हें इस सीरीज में आपने ग्राम सचिव के रोल में देखा वो और बिस्वापति सरकार का काम भी लाजवाब था।
आप इस सीरीज में एक ऐसा किरदार नहीं पा सकेंगे जिसने कहीं भी काम में कोई कमी की हो, फिर चाहे वो विकास का किरदार कर रहे चंदन रॉय हों, या उप प्रधान का किरदार कर रहे फैसल मलिक हों। हर एक किरदार इतना मंझा हुआ और सलीके से दिखाया गया है कि आप चार घंटे की इस सीरीज को, जो आठ एपिसोड की है, को देखते हुए बोर नहीं हो सकते हैं।
हर डायलॉग में कुछ ना कुछ दम था फिर चाहे वो कितना ही आसान ना लग रहा हो। आप इस बात से ही अंदाजा लगा सकते हैं कि सीरीज देखते हुए आपको कई बार अपने गाँव की गलियाँ याद आ गई होंगी, जो भले ही तंग हों, लेकिन जिनमें अलग उमंग हो। दूध लगवाने की जब बात हुई तो रघुवीर साहब ने भैंस की जो तीन नस्ल बताईं वो हवा में नहीं थीं बल्कि सुरती, मुर्रा और जाफराबादी नस्ल की भैंसें होती हैं। इतनी डिटेल में जब काम हुआ हो और लेखक ने इतने अच्छे से उसे लिखा हो तो रघुवीर जी जैसे कला के धनी लोग तो धमाल कर ही देंगे।
उसपर विकास का वो डायलॉग एकदम सही था कि देसी लोग हैं इनसे पचेगा कि नहीं क्योंकि ये वास्तविकता है कि शहरी लोग शराब चाहे एक कार्टन खाली कर दें लेकिन उनकी इम्यूनिटी इतनी ताकतवर नहीं है कि वो गाँव में भैंस या गाय का कच्चा दूध पचा सकें। ये एक बात बेहद खूबसूरती से दर्शाई गई और उसपर फैसल साहब का जवाब कि पानी मिला लेंगे उन पलों की याद दिलाता है जब हम तथाकथित शहरी दूध में पानी मिलाते हैं ताकि वो लंबे समय में उबल सके।
सेट डिजाइन के बारे में कुछ बोलना तो छोटा मुँह बड़ी बात हो जाएगी क्योंकि जिस तरह से चरहरा को दिखाया गया वो ये बताता है कि किस तरह से हर जानकारी पर ध्यान दिया गया है। आपको अगर याद ना हो तो जब भुतहा पेड़ के बारे में पड़ताल करते समय सचिव जी और विकास पहले इंसान के पास जाते हैं तो वो चरहरा मशीन का इस्तेमाल कर रहे थे। इससे जानवरों के लिए खाने का सामन काटा जाता है और उन एक्टर का नाम अनिमेष श्रीवास्तव है तथा इससे सिर्फ हरी चीजें ही काटी जाती हैं लेकिन जो चित्रण था वो एकदम सटीक था।
उसी तरह से हर गाँव में लोग किसी के पक्ष और विपक्ष में होते हैं जिसका एकदम सही चित्रण उस फोटोग्राफर के माध्यम से किया गया जिसे दीपेश सुमित्रा जगदीश जी ने एकदम सही दर्शाया। ऐसे कई लोग होंगे जो ये सोचेंगे कि मंदिर के पीछे वाले खाली मैदान में लड़ाई वाले सीन में गोली क्यों नहीं चलाई गई तो आपको बताते चलें कि इसे कहते हैं बात को समझाना बिना किसी हो हल्ले के जिसको दिखाने में डायरेक्टर साहब कामयाब रहे। हर किरदार चाहे वो विश्वनाथ चैटर्जी जी का हो जिन्होंने थाने के दरोगा का किरदार किया,अंकित मोटघरे हों (ठेके वाला किरदार) या राजेश जैस जिन्होंने बीडीओ का किरदार किया, सभी ने अपने काम से जान ड़ाल दी।
ऐसा बिल्कुल मुमकिन है कि आपको कुसुम शास्त्री के काम से थोड़ी निराशा हाथ लगे लेकिन किरदार के आधार पर उन्होंने एकदम सही किया और उसपर सोने पर सुहागा था नीना जी का काम जो राष्ट्रगान के समय कितने अच्छे तरीके से हाथों के इशारों से अपने प्रधान पति को रोक रही थीं। ये वो तरीके होते हैं जिससे स्टेज पर एक्टर दूसरे एक्टर को गलती करने से और कई बार उसकी एंट्री बताने के लिए करता है। आप अगर ध्यान देंगे तो ये आपको साफ नजर आएगा कि वो पहली बार प्रयास कर रही थीं और डीएम के सामने खुद से ही पूरा राष्ट्रगान गाना चाह रही थीं। इस दौरान रघुवीर जी का सहयोग और आवाज में वो सकुचाहट साफ झलकती है और वो इस सीन को और यादगार बना देती है।
अगर बात की जाए सिनेमेटोग्राफी की तो अमिताभ सिंह का जवाब नहीं और जो गीत हैं उनके लिए अनुराग सैकिया (यदि नाम में त्रुटि हुई हो तो क्षमा प्रार्थी) जी का आभार प्रकट करना चाहिए। सहयोगी टीम में अमित कुलकर्णी की एडिटिंग, अनमोल अहूजा और अभिषेक बैनर्जी की कास्टिंग, तर्पण श्रीवास्तव का प्रोडक्शन डिजाइन, अकबर खान का आर्ट डायरेक्शन और प्रियदर्शिनी मुजुमदार का कॉस्ट्यूम डिजाइन धमाल था।
इन बातचीतों के बीच हम रिंकिया के पापा को तो याद रख सके लेकिन रिंकी को भूल ही गए जिसे पूजा सिंह ने बेहद खूबसूरती से निभाया हैं। एक झलक देकर ही उन्होंने ये दर्शा दिया हैं कि इस सीरीज का अगला सीजन आएगा और यकीन मानिए हमारे जैसे लोग जिन्हें ऐसा काम पसंद आता हैं ये उनके चेहरे पर मुस्कान ले आता है। अब ये नहीं कह सकते ना कि बत्तीसी दिखा के खुश हो रहे हैं।
एक दूल्हे तक का सीन इतना अच्छा चित्रित किया है कि आपको क्या बताएं, उसके आँसूं गिरे, इधर सचिव जी की उलझन और परेशानी के साथ साथ उनकी विपदा कि उन्हें पढाई करनी है लेकिन दूल्हे को खुश करने के लिए अपनी कुर्सी भी छोड़नी पड़ेगी। ये सभी पल जिस आसानी के साथ दर्शाए गए हैं वो बाकमाल हैं। ऐसे कई पल हैं जिनके बारे में बात की जा सकती है जैसे पति-पत्नी की नोंकझोंक, जिसमें एक उदहारण आपको बताते हैं जैसे रघुवीर जी लौकी लेकर जा रहे होते हैं तो नीना जी उनसे पैसे की बात करने को कहती हैं, और झल्लाहट में उनका जवाब, या फिर जब वो चादर बदल रहे होते हैं तो नीना जी रघुवीर जी से पूछती हैं कि कैसे प्रधान है वो, तो उसपर प्रधान जी का जवाब लाजवाब था।
आप इस सीरीज को देखते हुए पल भर के लिए बोर नहीं होंगे बल्कि ये आपको एक ठंडी हवा का झोका जैसा लगेगा। इस आर्टिकल का अंत मैं नीना जी के थ्रोबैक पोस्ट के साथ करना पसंद करूंगा क्योंकि ये बेहद खूबसूरत तस्वीर है।
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