मिर्ज़ा ग़ालिब की एक ग़ज़ल है जो इस आर्टिकल के लिखने के साथ ही आपकी नजर करता हूँ:
कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यूँ रात भर नहीं आती
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती
हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती
मरते हैं आरज़ू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती
अगर आप इस ग़ज़ल के मायने समझ गए हैं तो आप जानते हैं कि मैं क्या लिखने वाला हूँ। हकीकत ये है कि इंसान दरबदर जाता है पर उसके हिस्से में वो जिंदगी नहीं आती जिसकी उसे तलाश होती है क्योंकि जिंदगी खुद में एक तलाश है जो कहीं और कभी खत्म ही नहीं होती। इंसान सौ मर्तबा ये सोचता रहे कि वो कुछ कर सकता है लेकिन सच यही है कि मौत का एक दिन मुकर्रर है और वो आती है तो बता के नहीं आती।
मैं जैसे ही ये लिखता हूँ मुझे हृषिकेश मुखर्जी जी याद आते हैं और साथ में याद आता है वो आनंद जो अपने जीवन में हर दर्द के बीच भी मुस्कुराता था। एक इंसान जिसने मौत के ड़र को जीत लिया हो उसे किसी चीज से ड़रने का क्या खौफ? यहाँ मैं अनुपम खेर साहब की एक लाइन को लिखना चाहता हूँ, और वो भले ही उनके दादा ने उन्हें तब लिखी थी जब वो एक्टर्स की तथाकथित स्ट्रगल के बीच खुद को उलझा हुआ पा रहे थे। उनके दादा ने उन्हें चिट्ठी में लिखा था कि 'एक भीगा हुआ आदमी बारिश से नहीं घबराता।'
ये बात उनके लिए भी सच है जो मुंबई में अपने दिनों को स्ट्रगल मानते हैं जबकि वो इसे एक सीखने का तरीका मान सकते हैं। ये भी मान सकते हैं कि जिंदगी उन्हें आनेवाले वक्त के लिए तैयार कर रही है जब उनके पास काम ही काम होगा और वक्त नहीं होगा। यहाँ ये जरूरी है कि वो आनंद की तरह रिजेक्शन के ड़र पर जीत पा लें।
जब बात आनंद की चल ही रही है तो आइए बात करते हैं उस सदाबहार गीत की जिसने जिंदगी के असली रिश्ते और मायनों को एक बेहद खूबसूरत तरीके से दिखाया जिसमें राजेश जी दिन के उजाले में गीत को शुरू करते हैं और जब गीत खत्म होता है तो कैमरा एक जगह रुका हुआ होता है जो एक तरह से उन लोगों को दर्शा रहा है जो उस गुजरे हुए इंसान के साथ किसी रिश्ते में थे। वहीं अगले सफर में जानेवाला अपनी परछाई को पीछे छोड़ता हुआ आगे बढ़ जाता है और वो भी नंगे पैर क्योंकि उसे नए अनुभव के लिए तैयार होना होता है। वो अपने बोझ को संभालने वाली चीजों को हाथ में ले लेता है क्योंकि अब उसके नए सफर की शुरुआत हो रही है।
बाबू मोशाय हर जगह होते हैं और वो इन दो विभूतियों के आस पास भी थे जिन्होंने एक बड़ी जिंदगी जी, और वो बाबू मोशाय भी शायद ऐसे ही तड़प रहे होंगे कि सबकुछ जानते हुए भी वो उनकी कोई मदद नहीं कर पा रहे हैं और वो उम्मीद और कोशिश कर रहे होते हैं कि तभी एक आवाज आती है:
और वो विभूति खामोशी चुनकर कहीं दूर चले गए।
लेखक: अमित शुक्ला (इंस्टाग्राम पर भी इसी यूजरनेम के साथ)
No comments:
Post a Comment