Wednesday 29 April 2020

Ateet on Zee5: ना सर है ना पैर है पर बेकार एक्टिंग और उससे भी बेकार कहानी जरूर है



अतीत जब वर्तमान से टकराएगा तो दोनों के बीच द्वंद होना लाजमी है और इन दोनों के बीच इंसान परेशान ही रहता है। ये समय नाम के रथ के वो दो पहिए हैं जिनपर सवार होकर इंसान चलता रहता है और दूर इस रथ के तीसरे पहिए भविष्य को लेकर हमेशा चिंतित रहता है। एक वक्त आता है जब अतीत आँखों से ओझल हो जाता है और हम वर्तमान में जीने लग जाते हैं ये सोचकर की जैसे वो था ही नहीं लेकिन इंसान किसी भी चीज से भाग सकता है सिवाय दो चीजों के, अपने अतीत और मौत से।

मौत का नाम आते ही आँखें नम सी हो रही हैं क्योंकि गुजरे दिन में ही हमने इरफान खान साहब सरीखे एक बेहतरीन अदाकार को खोया है। एक पल ही लगा उनको वर्तमान से अब अतीत के पन्ने का हिस्सा बनने में और वो और उनके जैसे कई हुनरमंद लोग अब वर्तमान की जगह अतीत बनकर हमारे साथ सिर्फ यादों में ही रह जाएंगे। मैं अमूमन कहता हूँ कि इंसान को पल भर का समय लगता है वर्तमान से याद बनने में और कल इसे सच भी होता देख लिया।



अब बात उस अतीत की जिसे वैसे तो जी5 ने 21 अप्रैल को ही रिलीज कर दिया था लेकिन मुझे आज देखने का मौका मिला, या कहूँ सजा मिली तो मैंने उसे देखा। ये नहीं कह सकता कि किसी ने मुझे जोर जबरदस्ती से ये फिल्म दिखाई लेकिन तीन बड़े नामों के फिल्म के पोस्टर में होने पर, और एक के साथ आंशिक और अनौपचारिक रूप से काम करने के कारण मुझे उम्मीद थी कि फिल्म में कुछ तो जरूर होगा जिसके कारण वो इस फिल्म का हिस्सा हैं।

खैर जैसे जैसे फिल्म आगे बढ़ती गई मेरी उबासियों में भी बढ़ोतरी होती गई, और इस दौरान जिस चाय को मैं गर्म गर्म लाया था वो भी बिल्कुल वैसी ही ठंडी हो गई जैसे इस फिल्म को देखने का मेरा जोश ठंडा पड़ गया। अब तीन बड़े नाम लेकर भी अगर आप उस कहानी को सही से नहीं दिखा सके और एक्टर अपने काम को नहीं कर सके तो इसमें गलती ना सिर्फ एक्टर की है बल्कि हर्षिल आर पटेल की है जिन्होंने कहानी और स्क्रीनप्ले लिखा बल्कि डायरेक्टर भी कम जिम्मेदार नहीं हैं।

Ateet Movie Review and Rating {2/5}: A rare film that clubs horror ...

अगर आप फिल्म से जुड़े हुए हैं तो सोच रहे होंगे कि ये क्या कह रहा है और इसे भला एक्टिंग और डायरेक्शन के बारे में क्या मालूम? मैंने पहले ही कहा कि मैं फिल्म के एक अहम एक्टर के साथ आंशिक रूप से काम कर चुका हूँ तो मुझे मालूम है और वैसे भी इमरती और जलेबी में फर्क एक अंधा भी बता सकता है।

आइए आपको बताते हैं कि इस ब्लॉग में क्या अच्छा और क्या बुरा था, क्योंकि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, और जैसा शोले में संजीव कुमार साहब ने जेलर के खोटे सिक्के के दोनों तरफ से खोटा होने जवाब में कहा था, सिक्के और इंसान में यही फर्क है:

बुरा

हॉरर जो कपिल शर्मा की कॉमेडी जैसा था



जी नहीं ये दोनों में से किसी के लिए कॉम्पलिमेंट नहीं था। अतीत में जो हॉरर दिखाया गया उससे बेहतर तो रामसे की फिल्मों में होता था साहब। अगर हम हॉलीवुड से कम्पेयर करने बैठे इस फिल्म के हॉरर को तो मुझे कई जगहों पर हँसी आई क्योंकि जब डॉक्टर आंटी का किरदार कर रहीं नेहा बम जी मूर्ति उठाने की नाकाम कोशिश करती हैं तो बच्ची का किरदार बगल से ऐसे जाता है जैसे कोई स्केटबोट पर हो या फिर सर्फिंग। यही हाल उस समय भी था जब वो बच्ची के पास कमरे में जाती हैं।

जहाँ तक बात है कपिल की कॉमेडी की तो वो कॉमेडी के नाम पर बॉडी और पर्सन शेमिंग करते हैं जिसे वो कॉमेडी कहते हैं। कॉमेडी देखनी है और साथ में सटायर करने की कला भी तो स्वर्गीय श्री जसपाल भट्टी जी के काम को देखिए। आपको दोनों मिलेंगे बिना किसी बत्तमीजी और बेवजह शो में आई फीमेल्स के साथ फ्लर्टिंग के। ऐसे भी कई लोग हैं जो कपिल की कॉमेडी को बड़ा अच्छा कहते हैं तो मैं अब उनकी सोच और समझ को क्या कहूँ?

घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने


ये कहावत आपने कई बार गाँव में सुनी होगी लेकिन इस फिल्म की ये हकीकत है। साहब जब सही कहानी को एक्ज़िक्यूट नहीं कर सकते तो भाई बेवजह एक्टर्स को लेकर लोगों की जिंदगी के एक सौ सत्ररह मिनट क्यों खराब करने? आगे नाथ न पीछे पगहा वाली कहानी बनाकर आप सिर्फ खुद के लिए मुश्किल और देखने वालों को ये बता रहे हैं कि आप कितने इनकम्पिटेंट हैं।

एक्टर्स को एक्सप्लोर करने का मौका ना देना



मैं यहाँ सिर्फ दो लोगों की बात करूँगा, संजय सूरी और राजीव खंडेलवाल क्योंकि दोनों को कोई मौका ही नहीं मिला अपने कम्फर्ट जोन से बाहर जाकर कुछ काम करने का। आमिर के बाद शायद ही राजीव को कोई ऐसा काम मिला है जिसको देखकर ये कहा जा सके कि वाह क्या काम किया है। संजय जी ने अपने काम से कोशिश बहुत की लेकिन जब स्क्रिप्ट में मसाला ही नहीं होगा तो एक्टर कितनी कोशिश कर सकता है।

तू गंगा की मौज मैं जमुना का धारा, हो रहेगा मिलन, ये हमारा तुम्हारा


जी हाँ टाइटल आपको समझाने के लिए काफी है कि स्थिति क्या है, क्योंकि कौन सी कहानी कैसे कब और क्या दिखानी है ये कोई नहीं जानता था। पूरी कहानी एक अजीब से खौफ से शुरू हुई जिसमें इन्होने सिनेमेटोग्राफर का इस्तेमाल किया ताकि वो हॉरर की फील दे। फिर एडिटिंग वाले ने थोड़ा काम किया ताकि वो चिंगारी एकदम सही तरह से पर्दे पर लगे ताकि कोई ये ना कह सके कि जैसे प्रोफेशनल रेसलिंग फेक है वैसे ही ये शॉट भी था।

इसके बाद तो इंतेहा हो गई चीजों की जिसमें प्रियमणि सना को किसी से बात करते हुए देखती हैं। फिर वो डॉक्टर आंटी वाला सीन और ना जाने क्या क्या? भाईसाहब जब कहानी में ना हो दम तो ऐसे ही हॉरर को दिखाकर अपने रनिंग मिनटस पूरे किए जाते हैं। इससे भी अजब था अंत साहब क्योंकि जो आदमी पूरी कहानी में अपनी बेटी और बीवी को हासिल करना चाहता है और जो किसी भी हद तक जा सकता है वो एकदम से सबकुछ छोड़छाड़ कर जलती हुई आग में चला जाता है।

क्या स्क्रिप्ट विक्रम और बैताल से उठाई थी या आपने ऑडिएंस को उस दौर का समझा था? आपकी फिल्म के एक सीन में ये तक साफ दिखता है कि बैकस्टेज वर्कर्स जिनमें एडी और अन्य शामिल होते हैं वो फ्रेम में आए थे, या यूँ कहूँ कि उनकी परछाई आई थी जो नहीं होना चाहिए।

अब जब बुरी बातें कर लीं तो थोड़ी अच्छी बातें भी कर लेते हैं क्योंकि किसी भी जानेवाले के बारे में हमेशा अच्छा ही कहा जाता है, और ये फिल्म भी उसी स्टेज में बनी और दिखाई गई है:

अच्छा

मानसिक बीमारी को दिखाने की कोशिश


मानसिक बीमारी को आज भी बड़ी ही बुरी नजर से देखा जाता है और अगर आप किसी से कह दें कि आप मानसिक रूप से बीमार हैं तो लोग पहले तो यकीन नहीं करेंगे और बाद में उसका मखौल उड़ाएंगे। ऐसा ही कुछ इस फिल्म में भी दिखा जहाँ संजय जी के कहने पर उनके सामने बैठे ऑफिसर को यकीन नहीं हुआ। संजय जी के फ्यूसीफॉर्म फेस एरिया में बदलाव होते थे जब वो चीजें देखते थे और आप इसे हैलुजिनेशन भी कह सकते हैं लेकिन उन्हें हिप्नागोगिक हैलुजिनेशन और हिप्नोपोम्पिक हैलुजिनेशन था।

उनके किरदार ने चार्ल्स बोनट सिंड्रोम के लक्षण भी दिखाए लेकिन उसका मकसद था ये समझाना कि मानसिक बीमारी किसी को भी हो सकती है और होने पर आपको इसका इलाज करवाना चाहिए जैसा डॉक्टर मसूद कर रहे थे।

प्रियमणि का कंट्रोल


ये फिल्म सिर्फ इनके कारण ही दो घंटे देख पाने में सफल रहे। द फैमिली मैन में श्रीकांत तिवारी की मुस्कान और यहाँ अपने अतीत और वर्तमान के बीच फँसी प्रियमणि ने जो काम किया है उसमें उनका हुनर दिखता है। वो पूरे फिल्म के दौरान कॉल्मनेस के साथ काम कर रही थीं लेकिन मेरा सिर्फ एक सवाल है कि अपने पति के मौत के बाद वाले गीत में काले रंग की ड्रेस में इतना सज के कौन चलता है जिसमें हाथों में घड़ी हो, और चाल में नजाकत।

हरैसमेंट हर जगह होता है


जब आर्मी विमेन के साथ एक मिलिट्री हॉस्पिटल का लड़का वार्ड में और फिर बाहर हरैसमेंट करने की कोशिश करता है तो उस दौरान राजीव का आना ये दर्शाता है कि शोषण हर जगह होता है। ऐसी कई खबरें मीडिया में भी आईं (यहाँ मैं वायरल हुए एक सिपाही के वीडियो की बात नहीं कर रहा हूँ) जहाँ इस बारे में बातचीत हुई लेकिन फिर भुला दिया गया। शोषण चाहे शारीरिक हो, मानसिक हो या कोई और, शोषण शोषण होता है। ये दिखाने की हिम्मत दिखाने के लिए सराहना तो की जानी चाहिए, और साथ ही ये भी कि हर एक्टर ने अपने किरदार के हिसाब से ड्रेस किया था।

अब आपको तो मैं यही सलाह दूंगा कि ऐसी सड़कों पर मत जाइए जो गड्ढें मैं जाती हों लेकिन अगर आपको कूदने की इच्छा है या फिर आप भी अतीत की तरह कहीं वापस आकर एक अजीब सा काम देखना चाहते ही हैं तो आप लोकतंत्र मैं हैं और यदि वयस्क हैं तो कौन आपको रोक सकता है।

लेखक: अमित शुक्ला (इंस्टाग्राम पर भी इसी यूजरनेम के साथ)

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