'द ताशकंद फाइल्स' विवेक अग्निहोत्री की फिल्म है और मैं यहाँ पर उस फिल्म का रिव्यू या कुछ और कहने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ। मैं इस फिल्म को सुझाव के कारण देखने गया और अगर ये कहा जाए कि विवेक की फिल्म 'बुड्ढा इन ए ट्रैफिक जाम' के बाद मैं इस फिल्म को देखने के लिए उत्साहित था।
हर डायरेक्टर हमेशा अच्छा नहीं होता और इस फिल्म ने उस बात को साबित किया। इस आर्टिकल में ऊपर बताई गई फिल्म के अलावा शायद ही कोई फिल्म होगी जो आपने इनकी देखी होगी और कइयों ने तो उसे भी नहीं देखा होगा। फिल्म की शुरुआत देखकर मुझे ये अच्छा लगा कि एक टैलेंटेड एक्ट्रेस श्वेता प्रसाद बासु इस फिल्म में अपना हुनर दिखा सकेंगी। मकड़ी और इक़बाल इनके हुनर को बताने के लिए काफी हैं लेकिन जब राइटिंग ही ना हो अच्छी, तो क्या करेगी बच्ची।
श्वेता के साथ यही हुआ क्योंकि फिल्म की शुरुआत में फेक न्यूज़ को लेकर तंज भरी बातें पाने वाली रागिनी फुले एकदम से ऐसा किरदार करने लग जाती है जो काफी अटपटा सा लगता है। हैरान करने वाली बात है कि जिस इंसान को दुनियाभर के लोग नहीं ढूंढ पाते उसे श्वेता का किरदार ढूंढ लेता है। अगर ये बात हैरान और हँसी नहीं लाती तो आपको आगे बताते हैं।
मिथुन चक्रवर्ती जो इतने मंझे हुए एक्टर हैं, बिहारी एक्सेंट करने की कोशिश करते हैं और किरदार की मट्टी पलीत कर देते हैं। छह को कहने की कोशिश में मिथुन जी ना सिर्फ एक्सेंट को तबाह करते हैं बल्कि किरदार को भी। नसीर साहब ने कोशिश की, पर जब सही से ना लिखी गई हो फिल्म तो एक्टर कबतक और कितना बचाएगा फिल्म और किरदार को खराब दिखने से।
आप अंदाजा लगाइए कि एक चलते शॉट में जहाँ श्वेता आखिरी बयान दे रही होती हैं, उस समय पल्लवी जोशी जैसी मंझी हुई अभिनेत्री ब्लर में अपनी नाक खुजा रही हैं। एक अच्छा एक्टर क्या इस तरह का काम करता है भला, या ये उनका प्रयास था कि उनपर भी लोगों का शॉट के दौरान ध्यान रहे?
मैं अन्य किसी एक्टर की बात नहीं करूंगा, क्योंकि बाकियों में से सिर्फ एक पंकज त्रिपाठी जी ने मज़ाकिया रहने की कोशिश की, लेकिन वो भी बेवजह की बातों पर। उनसे गुज़ारिश है कि आपसे काफी उम्मीद है हम जैसे लोगों को क्योंकि आप एक्टिंग में धमाल हैं, इस तरह का काम ना करें पंकज जी।
बाकी आपको बताने की ज़रूरत नहीं, कि फिल्म कैसी थी।
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