Thursday 2 May 2019

ऑक्टोपस - जानवर या ज़िन्दगी?




ये रंगमंच है जिसमें फ़िल्म से कम समय में और बिना रीटेक के एक कलाकार अपने काम को दिखाता है और आपको हँसाकर, रुलाकर, गुस्सा दिलाकर मंच से परे हो जाता है। उसको मिलने वाली तालियाँ या गालियाँ इस बात की गवाही देती हैं कि उसका काम आपको कितना पसंद आया। ये उसकी वो धरोहर है जो पैसे से ज़्यादा कीमती है। एक फ़िल्म एक्टर तो करोड़ों लेकर ही कुछ करता है, जबकि एक स्टेज एक्टर अभावों के बीच भी दर्शक को एंटरटेन करता है। ये वो नशा है जो अगर लग गया तो किसी और नशे की ज़रूरत नहीं है।

हाल में मुझे भी एक नाटक देखने का मौका मिला और इसका काफी लोगों से ज़िक्र मिलने के बाद इसे देखना ज़रूरी था। नाटक को देखने से पहले का एक नियम है और वो ये कि आप अपना सारा ज्ञान छोड़ दें और सामने वाले के काम को देखें, समझें और सराहें।

इस नाटक की शुरुआत उन बेड़ियों से बंधे लोगों से हुई जो अपनी व्यथा बता रहे थे। उनके लिए ज़िंदगी का मतलब सिर्फ इन बेड़ियों के सहारे चलना है। हालांकि सब ऐसा नहीं सोचते। इनमें से कुछ अपने आसपास के हालात को, लोगों को और ख़ासकर अपनी सोच को दोष देते हैं। मंच पर निर्देशक सूत्रधार है और वो ही सारे किरदारों से आपको रूबरू कराता है, जो ज़िंदगी और हालातों का एक तानाबाना सा है।

हम सब ये सोचकर जीते हैं कि ज़िंदगी वो है जो हम सोचते हैं जबकि असलियत में ज़िन्दगी वो है जो हमें कभी दिखती नहीं। ऑक्टोपस किसी जानवर का नहीं, हमारी अपनी सोच, नज़रिए और अंदाज़ की दास्तान है जिसमें हम सब खुद को कुछ बड़ा और बेहतर समझ चुके हैं लेकिन असलियत में हम सब मज़दूर हैं। हम मज़दूर हैं अपने काम, नाम और ज़िम्मेदारियों के, उन ख्यालों के, उन ज़ज़्बातों के जो हमें एक दूसरे से बांधते हैं।

ये बंधन ही जोड़ता है, तोड़ता है, कचोटता है, रोकता है, और ना जाने किन एहसासों से हमें रूबरू करवाता है। हवस और तृष्णा भी इनमें से उस ऑक्टोपस के रूप है जो किसी के शरीर को चोट पहुँचाकर खुद को मर्द समझते हैं। इस पिछले पॉइंट को ज़्यादा विस्तार से बताने की ज़रूरत नहीं क्योंकि आपकी पैट्रिआर्किअल सोच अबतक उसे समझ चुकी होगी।

ये ऑक्टोपस रंगों में, दंगों में, खान-पान में, रूप-रंग में हर तरह और तरफ दिखता है, लेकिन इसे समझना सबके बस में नहीं। वो जैसा नाटक में भी कहते हैं,'जबसे सृष्टि की रचना हुई इंसान इस तरह से ही चलता आ रहा है, पहले वो अनजान था इसलिए लोगों को मारकर खाता था, अब जानकर अपने फायदे के लिए।' फर्क सिर्फ इतना है कि तब लालच नहीं था, अब ऑक्टोपस के लालच वाले हाथ ने इंसान की भावनाओं का गला घोट दिया है, और इंसान एक मौत जी रहा है, हर दिन, आहिस्ता, आहिस्ता।

पर इस ऑक्टोपस का कोई अंत नहीं है और जिस तरह वहां एक्टर्स एक ट्रैप से निकलर अपनी बात कहकर वापस उस ट्रैप में चले जाते हैं, वैसे ही इंसान भी अपने ट्रैप में जा रहा है, और अब बस देर है उन गुर्राने वाली आवाज़ों की जो दिल को चीर कर और दिमाग को सुन्न कर के रख देंगी।

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