To read this article in English, visit: Nakkash
'बाबा ये किसका घर है?'
'भगवान का।'
'भगवान् कौन है?'
'अल्लाह मियाँ के भाई।'
जब एक ज़बरदस्त फिल्म का ट्रेलर इन शब्दों से खत्म हो तो आप सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि आखिरकार इस तरह की फिल्मों को बनाए जाने की क्या ज़रूरत आन पड़ी। ये 2019 है, और उस समय भी ऐसी फिल्में, आखिर क्यों?
उसके तुरंत बाद जब आप अपने आसपास नज़र डालते हैं तो ये एहसास होता है कि फिल्में तो समाज का आइना होती हैं। जो आपके आसपास घट रहा है वही तो दिखाया जा रहा है। इक पल को आप ठिठक जाते हैं कि चाँद तक जाने की बातें करने वाले देश और दुनिया में अब भी ऐसी सोच है क्या?
हकीकत वही है जो कुमुद मिश्रा जी ट्रेलर में कहते हैं,'जब बनाने वाले ने फर्क नहीं किया, तो हम कौन होते हैं फर्क करने वाले।' कुछ लोग आज भी इंसान को चमड़ी और ज़ात देखकर ही बात करते हैं और उसपर सबसे ज़बरदस्त कटाक्ष भी पंडित जी ने ही किया,'आप अपनी थाली में आए अन्न को ये देखकर खाते हैं कि उसे हिन्दू ने उगाया है या मुसलमान ने।'
'भगवान का।'
'भगवान् कौन है?'
'अल्लाह मियाँ के भाई।'
जब एक ज़बरदस्त फिल्म का ट्रेलर इन शब्दों से खत्म हो तो आप सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि आखिरकार इस तरह की फिल्मों को बनाए जाने की क्या ज़रूरत आन पड़ी। ये 2019 है, और उस समय भी ऐसी फिल्में, आखिर क्यों?
उसके तुरंत बाद जब आप अपने आसपास नज़र डालते हैं तो ये एहसास होता है कि फिल्में तो समाज का आइना होती हैं। जो आपके आसपास घट रहा है वही तो दिखाया जा रहा है। इक पल को आप ठिठक जाते हैं कि चाँद तक जाने की बातें करने वाले देश और दुनिया में अब भी ऐसी सोच है क्या?
हकीकत वही है जो कुमुद मिश्रा जी ट्रेलर में कहते हैं,'जब बनाने वाले ने फर्क नहीं किया, तो हम कौन होते हैं फर्क करने वाले।' कुछ लोग आज भी इंसान को चमड़ी और ज़ात देखकर ही बात करते हैं और उसपर सबसे ज़बरदस्त कटाक्ष भी पंडित जी ने ही किया,'आप अपनी थाली में आए अन्न को ये देखकर खाते हैं कि उसे हिन्दू ने उगाया है या मुसलमान ने।'
इस ट्रेलर को देखकर मुझे कोई शक नहीं कि ये फिल्म ज़बरदस्त होगी और इसकी कही बात सबके दिलों को छुएगी। मंटो ने पार्टीशन से जुडी अपनी कहानी में कहा भी है,'ये मत कहो कि एक लाख हिन्दू और एक लाख मुसलमान मरे हैं, ये कहो कि दो लाख इंसान मरे हैं।' 2019 में जब हम टचस्क्रीन और हाई-एन्ड सिस्टम्स की बात कर रहे हैं तब भी बटवारे की इस सोच को कुछ लोग कुछ उस तरह से हवा दे रहे हैं जैसे किसी चिंगारी को दी जाती है। ये सोच इंसान को ज़िंदा मार देती है, क्योंकि मुर्दे का शरीर जलता है, ज़िंदा की सोच उसे मार देती है।
ट्रेलर में हर वो चीज़ है जो आपके रोंगटे खड़े कर दे, क्योंकि एक इंसान का काम करना दूसरे को पसंद नहीं, उससे जुडी साजिश, एक का बचाव, और दूसरे का भड़काना, सब ट्रेलर में दिख जाता है। इंसान मौत से नहीं मरता जितना शर्मिंदगी से, और यही वजह है कि इस फिल्म को लेकर मैं उत्साहित हूँ। उम्मीद है जो अब भी लोगों को जाति, वर्ण, कर्म, और धर्म के नाम पर बाटते हैं उन्हें समझ आएगा कि दौर बदल गया है, और जो उनकी सोच को सही मानते हैं उन्हें भी एक करारा जवाब मिलेगा।
कुमुद मिश्रा, इनामुलहक और शारिब हाश्मी जी एक साथ फिल्म 'फिल्मिस्तान' में नज़र आए थे, और उस फिल्म को 'नोटबुक' के डायरेक्टर नितिन कक्कड़ ने डायरेक्ट किया था। अगर आपने वो फिल्म देखी है तो आप इस फिल्म के अंदर होने वाले कमाल को समझ चुके होंगे।
लेखक: अमित शुक्ला
No comments:
Post a Comment