Friday, 12 April 2019

रिश्ते की दीवार से बनी जिंदगी


वो टीवी पर एक एड आता है, जिसमें एक आवाज़ पीछे से कहती है,'रिश्तों की जमापूंजी।' आज फिर वो आवाज़ कहीं सुनी और एकाएक मैं ख्यालों में चला गया कि कैसे इन रिश्तों को जमापूंजी कह दिया जाता है, क्योंकि किसी भी रिश्ते में पैसे की खनक नहीं होती।

रिश्ते तो इश्क़ जैसे पाकीज़ा होते हैं, पर फिर एक पल को ज़िंदगी के इस सबसे नाज़ुक पर सबसे महत्वपूर्ण जुड़ाव को लेकर सोचना शुरू किया तो पर्दा साफ होता गया। तो आइए इस ख्याल की शुरुआत करते हैं:

रिश्ते जिंदगी की वो ज़रूरत है जिसमें से एक दोस्त को छोड़कर हम नहीं चुन सकते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि आप जिसकी कोख में होते हैं, उसे दुनिया ने सबसे बड़ा और पाकीज़ा ओहदा दिया है, जिसे माँ कहते हैं। उनके पति आपके पिता हो जाते हैं। माँ के माँ-बाप नाना-नानी, तो वहीं पिता के माँ-बाप दादा-दादी।

माँ की बहनें मौसी कहलाती हैं, और चूँकि वो माँ की बहने हैं, तो माँ से कम भी नहीं कहीं जा सकती। एक दौर था जब रिश्तों को उनके असली नाम से बुलाते थे, लेकिन जैसे माँ को आजकल मम कहा जाने लगा है, हो सकता है, आनेवाले समय में बड़ी मौसी को मैक्सिमम और छोटी को मिनीमम कहा जाने लगे।

जिंदगी में रिश्तों की अहमियत कुछ वैसी ही दिखती है जितनी चाय में चीनी और खाने में नमक। दोनों ज़रूरत से ज़्यादा हों या यूँ कहूँ कि उनकी दखलंदाजी ज़रूरत से ज़्यादा हो तो जिंदगी का ज़ायका खराब हो जाता है।

इन सबके बीच एक कमाल की बात ये है कि हमें हमेशा सच बोलने की सीख दी जाती है, लेकिन रिश्तों में हम अक्सर झूठ ही बोलते हैं। अगर किसी से नाराज़गी होती है तो उसके सामने कहने की ताकत रखने की बजाय हम उसकी चुगली करने लग जाते हैं।

वो लोग तो बिना रीढ़ की हड्डी के होते ही हैं, जो किसी की पीठ पीछे बुराई करें, लेकिन उससे भी ज़्यादा नाशुक्रे होते हैं वो जो अपना कीमती वक्त ज़ाया कर ये बकवास सुनते हैं।
रिश्ते कुछ इस कदर हो गए हैं साहब कि जो दीवार कभी घरों के बीच होती थी, आजकल रिश्तों के बीच आ बसी है।

किसी से मत का भेद रखिए, मन का भेद रखना कोई अच्छी बात नहीं, क्योंकि वो एक दिन आपको ही भेद जाती है। इस सबके बीच जो चीज़ रिश्तों में सबसे कमज़ोर है, या इसे कमज़ोर बनाती है, वो है उम्मीदें।

ये बात सच है कि उम्मीद पर दुनिया कायम है, लेकिन उस कहावत में ये नहीं कहा गया कि दूसरों से उम्मीद करने पर दुनिया कायम है। हम सब अपने रिश्तों से उम्मीद लगाते हैं, माँ-बाप बच्चों से उम्मीद लगाते हैं, उनकी पढ़ाई, शादी, और अपने हर फैसले को माने जाने की उम्मीद।

बच्चे माँ-बाप से उम्मीद लगाते हैं, प्रेमिका और प्रेमी तथा पति और पत्नी एक दूसरे से उम्मीद लगाते हैं, लेकिन क्यों? लोगों को रिश्तों को अपनी तरह से निभाने दो, वैसे भी जगजीत सिंह, मरासिम में कह ही चुके हैं,'हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते, वक़्त की साख से लम्हें नहीं तोड़ा करते।'

रिश्तों का मकसद एक दूसरे के साथ रहना था, अपनी उम्मीदों के दबाव से किसी को घोट कर या घुटकर मरना नहीं।

ये रिश्तों की जमापूंजी नहीं, इन्सटॉलमेंट है, जो अपने मरते दम तक हम भरते ही रहते है। मेरी नज़र में तो रिश्तों में प्रेम होना सबसे ज़रूरी है, वरना जैसा रहीम जी कह चुके हैं:
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय,
तोड़े से फिर ना जुड़े, जुड़े गाठ पड़ जाय।

लेखक:अमित शुक्ला

(इस आर्टिकल के किसी भी अंश का इस्तेमाल करने से पहले लिखित अनुमति लेना अनिवार्य है। ऐसा ना करने पर उचित कार्यवाही की जाएगी।)

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