दीवार ज़िन्दगी की एक बेहद ज़रूरी ज़रूरत है। आज आप या हम जिस घर में रहते हैं उसकी सबसे पहली चीज़ ये दीवार ही तो है। वो घरौंदा जिसे हर कोई अपना आशियाना कहता है, उसकी पहली चीज़ एक दीवार है।
दीवार वैसे तो हमें सिर्फ अपने घरों में दिखती है, लेकिन अगर थोड़ा गौर करें तो हमें ये समझने में देर नहीं लगेगी कि ये दीवार तो सिर्फ एक जरिया है कुछ बड़ी चीज को बताने का। क्या आप उसे समझ सके? शायद हाँ, शायद ना। अगर आप समझ गए हैं तो फिर ये ब्लॉग पढ़ना बेमानी है, लेकिन अगर नहीं तो इसे ज़रूर पढ़िए।
एक दीवार वो है जो हमारे घरों की हिफाज़त के लिए बनाई जाती है, जिसके ज़र्रे ज़र्रे पर ये लिखा होता है कि ये फला साहब या साहिबा के नाम पर है। इसमें कोई भी नहीं जा सकता। ये तो वो जगह है जहां कोई भी बिना आपकी मर्जी के नहीं जा सकता, लेकिन उस दीवार का क्या जो आपके ज़ेहन में है?
जी हाँ, हमारे दिमाग में भी एक दीवार है। वो दीवार चाहे आपकी परवरिश की हो, या फिर सोच की, नज़रिए की या किसी और चीज़ की, हर तरफ एक दीवार ही है। पढ़ाई एक बेहद कमाल चीज़ है, क्योंकि वो इन दीवारों को तोड़ती है, लेकिन हम भी कमाल हैं।
हमें आदत है कुछ नए तो तोड़कर नया बनाने की, और इसी लिए जब हम पढ़ते हैं तो एक नई सोच बना लेते हैं। वो सोच जो या तो कुछ पढ़कर या देखकर आती है। उस पढ़ने की वजह से हमने एक पुरानी सोच को गिरा दिया लेकिन एक नई सोच बना ली। अब हम उसकी दीवार में कैद हो गए हैं।
इस कैद से बचने का इकलौता तरीका है कोई भी दीवार ना बनाना, लेकिन ये लिखने में जितना आसान है, करने में उतना ही मुश्किल। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि हम सब पैदा होते हैं एक खाली स्लेट की तरह, लेकिन वक़्त के साथ इसमें हमारे बड़ों ने अपने तरीके से अक्षर लिख दिए। किसी ने कहा कि फला चीज़ ठीक है, फला नहीं, ये सात्विक है ये तामसिक। वो सुकर्म है, और दूसरा कुकर्म।
बस फिर क्या था, आप भी उसी को विश्वास कर आगे बढ़ते रहे और एक नई दीवार बना बैठे, जो बदलते समय के साथ भले ही तथाकथित मॉडर्न तो हुई लेकिन साथ ही अवसरवादी हो गई। एक नई दीवार बन गई जिसमें पुराने की महक रही क्योंकि हमने ना उसे छोड़ा ना ही पूरी तरह से अपनाया।
ज़रूरी है कि बाज़ारू चश्में उतारकर एक बार खुद के दिमाग को भी टटोलने की कोशिश की जाए कि क्या हम आगे बढ़ रहे हैं या फिर सोच की इस दीवार ने हमें सिर्फ एक नया आवरण दे दिया है जिसमें हमने खुद के लिए एक 'मॉडर्न' दीवार बना ली है जहां उपभोगता भी हम हैं और प्रचारक भी।
ये ज़रूरी है कि हम इन दीवारों को हटाएं, ना कि नई दीवारें बनाएं।
लेखक:
अमित शुक्ला
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