एक बच्चा जब अपनी माँ की गोद में सर रखे होता है तो उसे ये पता होता है कि दुनिया में चाहे कुछ हो जाए, पर उसे इस गोद से धोखा नहीं मिलेगा। एक बेटा जब बाप के साथ होता है तो उसे ये मालूम होता है कि उसकी ताकत उसके साथ है।
ऐसा विश्वास कैसे आता है? ये भरोसा कैसे पनपता है? ज़ाहिर सी बात है कि एक इंसान दूसरे इंसान के काम और उसके व्यवहार से इस बात तक पहुँचता है। वो भरोसा एक इंसान को दूसरे की तरफ सिर्फ इस वजह से आता है क्योंकि उसे इस बात का यकीन है कि उसके साथ बैठा, खड़ा, बातचीत कर रहा इंसान उसका अहित नहीं करेगा।
भरोसा एक छोटा शब्द लग सकता है लेकिन हर किसी के लिए इसके मायने अलग हैं। कोई खुद पर भरोसा करता है, कोई लोगों पर भरोसा नहीं करता।
ये एक ऐसी चीज़ है जिसकी कोई कीमत नहीं है, पर ये सबसे अनमोल है। आप किसी दुकानदार, किसी डॉक्टर के पास सिर्फ तब ही जाएंगे जब आप इस बात का यकीन कर सकेंगे कि उस फलां इंसान के साथ आपको कोई नुकसान नहीं है।
अगर डॉक्टर की भाषा में कहा जाए तो ये एक डिसऑर्डर है जो बेहद शूक्ष्म है, लेकिन अगर इसपर ध्यान ना दिया गया तो ये बेहद विकराल रूप धारण कर सकता है।
मेरे साथ एक फ़िल्म की स्क्रिप्ट पर साथ रहे मेरे साथी इस बात को समझ सकेंगे। आखिरकार ये एक तरह से सनिकजोफेनिया तक पहुँचने की शुरुआत भर है, और भले ही ये सही ना हो, लेकिन इस बात से कोई दोराय नहीं कि कोई भी बीमारी नासूर बन सकती है अगर उसपर ध्यान नहीं दिया जाए।
एक बात जो यहां समझने वाली है वो ये कि इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम सब खुद से इतने उलझे हुए हैं कि बातों और रिश्तों को सुलझाने का कोई रास्ता नज़र नहीं आता। आखिरकार इतनी भागदौड़ किसलिए? डॉक्टर को बताने या समझाने के लिए?
ये बात ज़रूरी है कि हमारे सारे रास्ते खुले हों और हमारी सोच एकदम स्पष्ट ताकि ये भरोसा आप दूसरे पर रख सकें। हमारी लोगों के बारे में चुगली करने की आदत भी इसको काफी हवा देती है, लेकिन अगर उसी चुगली को हम अपनी उन्नति की तरफ मोड़ दें तो ज़िन्दगी आज भी 'गुलज़ार' है।
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