सआदत हसन मंटो की शार्ट स्टोरी "सरकंडों के पीछे" से रूपांतरित गुस्ताख एक शार्ट फिल्म है।
इस शार्ट फ़िल्म की खासियत है उसका प्रदर्शन। शुरुआत होती है तो हमें लगता है कि ये उस इंसान की कहानी है जो एक कार से आती है।
पलक झपकते ही हमारी कहानी की नायिका पारुल गुलाटी की एंट्री होती हैं। वो खुद को सँवार रही हैं, कि तभी उन्हें रोटी समझने वाला एक शख़्स आता है, और फिर जब उन्हें एक इंसान से इश्क़ होता है या यूं कहें कि लगाव होता है तो वो अपने उसी सवाल को उसके सामने भी रख देती हैं।
एक तरफ है वो रोटी जो पेट की आग बुझाती है तो दूसरी वो जो जिस्म की। आखिरकार इस कशमकश के बीच अपने सवालों और अंतर्द्वंदों से जूझती पारुल जब वो सवाल पूछती है तो एक पल को वो सवाल सिर्फ हिम्मत से नहीं, बल्कि हम सबसे पूछती नज़र आती हैं।
आज भी लूटी जा रही अस्मतों से तो यहीं लगता है कि हमने शायद व्यवहारिक तौर पर खुद को मॉडर्न बनाया है, जबकि शायद सोच में हमें काफी बढने की ज़रूरत है।
अगर ऐसा ना होता तो #METoo सरीखे कैंपेन नहीं होते।
यहां इस पूरी कहानी के दौरान ये बात देखने वाली थी कि प्यार किसी का रूहानी तो किसी का महज जिस्मानी था। किसी के प्यार में कशिश तो कहीं सिर्फ हवस थी।
इंसानी रिश्तों का तानाबाना सिर्फ एहसासों पर है और इसकी खूबसूरत बानगी हमें तब देखने को मिलती है जब कई दिनों के बाद हिम्मत को देखते ही पारुल उनके गले लग जाती हैं, और इस बात पर हैरान भी कि ये दूसरी औरत कौन हैं।
वैसे इंसानी रिश्तों की एक दूसरी हकीकत है जलन और क्रोध, जिसको कि इस कहानी में काफी अच्छे से दिखाया गया है।
कहानी का बेहद सुंदर चित्रण करने के लिए डायरेक्टर और कैमरामैन को बधाई, लेकिन आखिरकार एक 'गुस्ताख़' दिल प्यार और हवस के बीच एक गुस्ताखी कर गया।
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