पिछले शुक्रवार को मैं जब बुक फेयर गया तो वहीँ पता चला कि एक नाटक भी हो रहा है जिसका नाम था आला अफसर। अब इस नाटक को पहले कभी देखा नहीं था और नाटक देखने और करने की ऐसी लत लगी हुई है कि रहा ना गया।
मैंने ऑडिटोरियम में एंट्री की तो बस अभी शुरुआत ही हुई थी। इसको देख मुझे हमारे नाटक, मुंशी प्रेमचंद के 'मोटेराम का सत्याग्रह' की याद आ गई।
नाटक की रूपरेखा बिलकुल समान थी जहाँ एक अफसर के आने की बात सुनकर सभी हैरान थे, और उसे रिझाने के तरीकों पर विचार कर रहे थे।
उसके बाद पता चला की खुद चेयरमैन साहब उस अफसर को लेने और आवभगत करने पहुंचे। उसके बाद शुरू हुआ उस अफसर का रौब, उसके किस्से, उसके अंतरंग प्रेम की कहानियां।
अब चूँकि ये सबकुछ लखनऊ में था तो संगीत भी था, और वो भी लाइव। मतलब हारमोनियम, ढोलक वाले स्टेज के अपर साइड पर किनारे बैठे हुए थे और उसको बजा रहे थे।
नाटक में मुख्या अफसर का किरदार प्रमुख था और सबसे ज़्यादा स्टेज पर वही था। एक अच्छा शो था, बस कभी कभी ओवर द टॉप डायलॉग्स और सांग्स मज़ा खराब कर रहे थे।
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