Monday 20 April 2015

दहेज़

ये कविता मैने तब लिखी थी जब मैं ७वी या आठवी कक्षा में था। आशा करता हूँ आपको पसंद आएगी।



दहेज़
दहेज़ तूने कितनो की सेज़,
को अर्थी में बदल दिया,
कर दिया तूने कितनी,
माओ की कोख़ सूनी,
आँचल उठा के रो रही है,
अब उनकी आँखें रोनी,

क्या उनका कसूर था,
क्या उनका गुनाह था,
क्यूँ कर दिया तुमने उनके,
जीवन का ख़त्म प्रवाह था,

क्या धन ही है,
सबकुछ तुम्हारे जीवन में,
क्या स्त्री का कोई मान,
नहीं तुम्हारे जीवन में,

क्यूँ भूल जाते है हम,
की जो आज हमारी बहू है,
वह किसी की बेटी है,
और जो आज हमारी बेटी है,
कल वो भी किसी कि बहू होंगी,

क्यूँ होता है यह फर्क,
क्यूँ है ये दहेज़ का नर्क,
क्या कभी समाप्त हो पाएगा,
यह बहूँ-बेटी का फर्क,

क्या ये सोच है प्रधान,
या है ये कोरा ज्ञान,
की जो बन आई बहूँ,
वह है पैसे की खान,
क्या इस विकृत सोच से,
बना दिए है घर शमशान,

संस्कारों की बलि-वेदि पर,
कब तक होंगी बेटियाँ कुर्बान,
कब तक कल्पनीय भय से,
हम सहते रहे यह अपमान,

बदल सकता यह रूप तभी,
जब बहूँ का दर्ज़ा हो बेटी समान,
जब सिर्फ बेटी ही नहीं बल्कि,
बहूँ का भी हो सम्मान,

तब पिता भी यह कह सकेगा,
जाओ खुश रहो बिटिया रानी,
सास करेगी माँ सा प्यार,
तब सत्य होगी यह कहानी।
                                            -अमित शुक्ल


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