Tuesday 14 April 2015

अम्बेडकर-गाँधी के विचारों का मंचन

आज बाबासाहेब की जयंती है। आज बहुत से कार्यक्रम होंगे, मगर कल देर शाम अस्मिता थिएटर द्वारा जे.एन.यू. में राजेश कुमार द्वारा लिखित 'अम्बेडकर और गाँधी' का मंचन किया गया। मैं भी वहाँ कल दर्शक दीर्घा में था और सोच रहा था की इन दो महान हस्तियों के चरित्रों को एक साथ एक मंच पर देखना या दिखाना बहुत ही अनूठा अनुभव होगा।

यकीन मानिए मेरा अंदाज़ा गलत नहीं था। अस्मिता के वरिष्ठ अभिनेता बजरंगबली सिंह ने जैसे ही स्टेज पर बाबा साहब का चरित्र निभाना शुरू किया, मेरे रोंगटे खड़े हो गए।

एक अद्भुत वार्तालाप का माहौल बन गया, जिसमे बापू और बाबा साहब के बीच अश्पृश्यता के मुद्दे पर बहस शुरू हुई, एक बातचीत, विचारों का आदान प्रदान आरम्भ हुआ। वो बातचीत, जिसमे अस्पृश्यता को मिटाने की बातचीत थी, वर्ण व्यवस्था पर मतभेद था।

यकीनी तौर पर दोनों ही लोग बहुत ही शक्तिशाली प्रतीत होते है, मगर ये कहना गलत नहीं होगा की बाबासाहब वाकई में बहुत ही शक्तिशाली लगते है। इसका ये तात्पर्य नहीं की बापू कहीं से कमज़ोर थे, वो बस अपने विचारों को बहुत ही अलग रूप से प्रस्तुत करते थे।

रमाबाई का किरदार कर रही शिल्पी मारवाह का संवाद बहुत ही सुन्दर था,ख़ासतौर पर,

'आज तक महात्मा लोगों के प्राण बचाते थे, आप तो स्वयं महात्मा के प्राण बचाने जा रहे है।'

बाबासाहेब के इतने सारे और शक्तिशाली संवाद है की यदि उन्हें लिखने बैठा, तो रात से सुबह हो जाएगी। बापू के रूप में गौरव मिश्रा जी ने ये फिर साबित किया है की आप किसी भी किरदार में जान फूँक देते है। बापू का सधा हुआ चरित्र और व्यक्तित्व निभाने में उन्होंने कमाल कर दिया है।

सिर्फ नाटक के अंतिम संवाद पर मुझे थोडा सा कहना है, की बाबासाहेब ने बापू की मृत्यु के लिए हत्या शब्द का इस्तेमाल शायद कभी भी अपनी लेखनी और बातों में नहीं किया है, किन्तु नाटक के अंतिम संवाद में 'हत्या' शब्द का इस्तेमाल किया गया है। यदि लेखक और निर्देशक इसपर ध्यान दे दें तो अति कृपा होगी।

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