Monday 13 April 2015

हानूश की कहानी, मेरी ज़बानी

हानूश की कहानी देखने और पढ़ने में एक आम सी कहानी लगती है मगर ध्यान देने पर लगता है की ये हम सब की ज़िन्दगी की कहानी है। एक कहानी जिसमे एक इंसान का जुनून, उसकी लगन, उसकी मेहनत, उसको मिलने वाली दुत्कार और लक्ष्य प्राप्ति पर उसका सत्कार, ये सब शामिल है।

हानूश की कहानी मुझे मेरी ज़िन्दगी के उस दौर की याद दिलाती है जब मेरी ज़िन्दगी मुफलिसी में थी। जब लोगों ने मेरे सपने को पाने में रूकावट पैदा की। उससे आज भी जूझता हूँ मगर जिस ख़ूबसूरती से अस्मिता थिएटर के अभिनेता गौरव मिश्रा ने हानूश का किरदार किया, उसके मन की पीड़ा, उसका लगाव उस घडी के साथ दिखाया, वो काबिल-ए-तारीफ है।

ये घड़ी सिर्फ एक सांकेतिक प्रदर्शन है, घड़ी की जगह आप कुछ भी कह सकते है, वो आपका सपना हो सकता है, आपका प्यार हो सकता है, या कुछ और। आप अपने जीवन में जो भी करना चाहे वो पा सकते है, अगर आप उस सपने को, उस इच्छा को अपना सर्वस्व दे दें। जिस प्रकार हानूश ने मुफलिसी में १३ साल गुज़ार दिए, मगर अपने सपने को ओझल ना होने दिया, उसके पूरा हो जाने के बाद अपनी आँखों से भी महरूम हो गया, मगर घड़ी बनाने की चाह और उसकी टिक-टिक से उसका कभी मन नहीं भरा।

जब आप कुछ नया करना चाहते है तो तकलीफ़े आती ही है, ठीक वैसे ही जैसे हानूश एक ताले बनाने वाले से, एक घड़ी बनाने वाला बनने की कोशिश करने लगा और इसके लिए हर चीज़ को कुर्बान करने पर आमादा था। एक बड़ी सीख है इस कहानी में की गर आप कुछ पूरे दिल से करना चाहते है तो उसके लिए जोख़िम उठाना ही पड़ेगा और आपको उसके लिए तैयार रहना ही पड़ेगा। हानूश के पादरी भाई में भी एक बात थी। वो कहता है की उसने ड़र-ड़र कर ही जीवन बिताया है, और उसका जीवन बुरी तरह नहीं बीता है, वही दूसरी ओर उसका भाई है जो सब कुछ लुटा देने को तैयार है अपने सपने को पाने के लिए। एक ओर वो भाई है जो लोगों की परवाह करता है, और दूसरा जो सबसे बेखबर सिर्फ चिड़िया की आँख पर ध्यान लगाए हुए है।

जब गौरव मिश्रा ने वो किरदार किया और वो स्टेज पर आए तो मुझे लगा जैसे मैं भी स्टेज पर हूँ, मैं भी वही कह रहा हूँ जो वो कह रहे है, उनकी बातों ने मुझे अपने दिन याद करा दिए।

यक़ीनी तौर पर मैं भीष्म साहनी जी, गौरव मिश्रा जी, और अरविन्द गौड़ साहब को बहुत बहुत शुक्रिया कहना चाहूँगा की उन्होंने इतने अद्भुत नाटक को मंच पर प्रस्तुत किया।

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