Friday 7 November 2014

बेकारी के कुछ दिन

जी हाँ, बेकारी, या यूँ कहूँ की बेरोज़गारी का आलम भी बड़ा अजब होता है। इसका आनंद भी कुछ अलग होता है। ना सुबह जल्दी उठने की चिंता, न ऑफिस पहुचने की, न पंच की, न अकाउंट की, न बॉस की झिकझिक, न क्लाइंट की चिकचिक, बल्कि शांति की टिक टिक। भई वाह, एक लंबे अंतराल के बाद इसका आनंद भी अनूठा है। ना जाने क्यों बच्चन साहब की ज़मीर फ़िल्म का वो गीत याद आ गया,

'बड़े दिनों में ख़ुशी का दिन आया, आज कोई न पूछो मुझसे मैंने क्या पाया'

जबतक अगला कदम निर्धारित नहीं होता, इस दौर का लुत्फ़ उठाया जाए, और खुश रहा जाए।

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