Tuesday 11 November 2014

जीने की इच्छा मर पड़ी है

गिन्नी भाई को समर्पित:

बीते दिनों के झरोखों से यादों की,
कपोल जैसे कही फूट पड़ी है,
जहाँ भी है तू बुला ले ए दोस्त,
जीने की इच्छा मर पड़ी है,
यादों की लहरों में दिल कही खो गया,
इक दिन तू हमसे कहीं दूर हो गया,
आज भी मेरी ज़िन्दगी में तेरी कमी बड़ी है,
जहाँ भी है तू बुला ले ए दोस्त,
जीने की इच्छा मर पड़ी है,
सोचता हूँ तेरे घर वालों से बात करूँ,
मगर क्या भूलूँ क्या याद करूँ,
बोलने की ताकत जैसे जड़ पड़ी है,
जहाँ भी है तू बुला ले ए दोस्त,
जीने की इच्छा मर पड़ी है,
तुझसे जुडी पीड़ा किसको दिखाऊँ,
दुनिया में हँसकर बस वो दर्द छुपाऊ,
तेरे अंतिम दर्शन की याद साथ चल रही है,
जहाँ भी है तू बुला ले ए दोस्त,
जीने की इच्छा मर पड़ी है,
तुझ संग बैठेंगे, खूब गल्ला करेंगे,
कुछ तुझसे कहेंगे,कुछ तेरी सुनेंगे,
सुनने को कान, देखने को आँखें तरस गई है,
जहाँ भी है तू बुला ले ए दोस्त,
जीने की इच्छा मर पड़ी है,
सोचता हूँ तुझसे आकर अभी मिल लूँ,
पर आत्महत्या गुनाह है, बात ये हमने पढ़ी है,
जहाँ भी है तू बुला ले ए दोस्त,
जीने की इच्छा मर पड़ी है।
                                   -अमित शुक्ल

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