Thursday 13 November 2014

लैंगिकता पर जनविचार

मैं जानता हूँ आपमें से कुछ लोग ब्लॉग का टाइटल पढ़कर ये सोच रहे होंगे की ये क्या है, मगर यकीन मानिए, ये एक ऐसी समस्या है जिसके बारे में दबी ज़बान से सब बात करते है, पर खुल के कोई बोलने को तैयार नहीं।

LGBT: Lesbian Gay Bisexual Transgender


ये हमारे समाज का ही हिस्सा है मगर इनके साथ हो रहा बर्ताव कैसा है? सोचिए? क्या आपने कभी इनसे सही से बात की, या इन्हें 'ढीला' या कुछ अन्य शब्दों से ही संबोधित नहीं किया है? आप इंकार नहीं कर सकते, क्यूंकि हम जिस समाज में पैदा हुए है उसमे इनमे से किसी भी किस्म के इंसान को अच्छा नहीं समझा जाता. क्यों? अगर ये सवाल पूछे तो लोग ये कहेंगे की ये फलां-फलां है, मगर क्या उन्होंने कभी जीव विज्ञान पढ़ा है? जीव विज्ञान में एक चीज़ होती है हॉर्मोन्स, वो हॉर्मोन्स, जो ये निर्धारित करते है की हम लड़को से जीन्स पाएंगे या लड़के होकर भी लड़कियों जैसे. जब ये हार्मोनल बदलाव होते है तो ज़रूरी है की आप इस बात का ख्याल करें की यदि इनके कारण वो इंसान किसी अलग प्रवर्ति को समझने लगा है, इसका अर्थ ये नहीं की वो एक इंसान नहीं है. उसको भी आपके ही जैसे किसी माँ ने अपने गर्भ में धारण किया था, जन्म दिया, मगर किन्ही हार्मोनल बदलावों के कारण उसके बोलचाल, हाव-भाव में यदि कोई परिवर्तन हो गया तो उसको नज़रअंदाज़ न करें, बल्कि उसको स्वीकार करें, क्यूंकि उसको भी जीने का हक़ है.

भारत सरकार ने धारा ३७७ को मना कर दिया, वो धारा जिसका निर्माण १८६० में हुआ था. वो समय जब आप और मैं पैदा भी नहीं हुए थे, जो उस समय के हिसाब से सही थी, मगर जैसा की कहते है की नियम और कानून हमेशा समय के साथ बदलने चाहिए ताकि वो अपने समय के साथ कदम से कदम मिला सके. देखिये ना इसी आधार पर तमिल नाडु सरकार ने एक 'ट्रांसजेंडर्स राइट्स' नाम से एक सुविधा आरम्भ की है जो की इस तरह के लोगों की समस्याएँ हल कर सके. 

भारत के कानून ने भी इन्हे एक तीसरे लिंग के रूप में स्वीकार किया था सन ११९४ और उन्हें भी चुनाव में मत डालने का अधिकार दे दिया था. १५ अप्रैल २०१४ को भारत के कानून ने उन्हें एक पिछड़ी जाति मानते हुए, उन्हें कई सुविधाएँ प्रदान की, मगर क्या उन्हें वो सुविधाएं मिलती भी है? भारत की सबसे उच्च परीक्षा प्रणाली यु.पी.एस.सी. में भी उनके लिए कोई सुविधाएँ नहीं है. 

ये कैसा अधिकार है? क्या सिर्फ कागज़ों में उन्हें सम्मान और स्थान दे देने से वो सच हो जाता है? क्या एक कागज़ पर लिख देने से लोगों की मानसिकता बदली जा सकती है? शायद इसके लिए हमें लोगों की सोच को बेहतर करने की ज़रुरत है. सच में मेरे एक मित्र का ये स्टेटस मुझे याद आता है, जो इस स्थिति पर बिलकुल फिट बैठता है:

'ये लीजिये आपकी सोच, मुझे वह गिरी हुई मिली'

उम्मीद है की आप पाठक ये समझेंगे की वो भी हमारी तरह हाड मांस से बने हुए लोग है और उन्हें भी जीने का अधिकार है. ये कानून सिर्फ इसलिए बनाये गए, ताकि लोग इस प्रकार की मूर्खताएं ना करे, मगर इसके लिए ज़रूरी है की हम अपनी गिरी हुई मानसिकता को सुधारे

यदि आपकी कोई राय है तो कृप्या अवश्य दे.

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