Tuesday 7 October 2014

यात्रा सुखद

आखिर हम अहमदाबाद पहुच ही गए। वो 18 घंटे का सफ़र, वो ट्रेन की धड़क-धड़क और इतने लम्बे समय की यात्रा का हैंगओवर। सच में पहुचने के बाद ऐसा लगा जैसे की ज़मीन हिल रही हो ट्रेन की तरह, और वो थकान। बाप रे,ऐसा लग रहा था जैसे की सर फट जाएगा, मगर कमाल हुआ और पहुचते ही हम बिस्तर पर गिर पड़े। दुनिया में उससे सुन्दर कुछ था ही नहीं। ज़ाहिर है की इतनी लम्बी यात्रा के बाद बिस्तर से ज्यादा अच्छी चीज़ क्या मिल सकती थी। बिस्तर जैसे सपनो की सेज था, और हम उसमे जीने वाले। नित्यक्रिया से निवृत होकर मैंने बस ऐसे बिस्तर पकड़ा की जैसे नींद से बेहतर और बड़ी चीज़ कुछ थी ही नहीं।

सुबह होते ही हमने थिएटर का रुख किया जहाँ पर लज़ीज़ पोहे ने हमारा स्वागत किया। उसके साथ ही सैंडविच और तुलसी वाली चाय। भई वाह! क्या स्वागत था, और उसपर रिहर्सल के साथ बेहतरीन लंच। वाह, क्या बात है।

शाम का अंत एक अच्छे नाटक 'चुकाएँगे? नहीं!' के साथ। भाई वाह क्या शाम!

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