Sunday 12 October 2014

आखिर हम लखनऊ आ ही गए

वाकई में ये एक बड़ा ही सुखद एहसास था, क्यूंकि दो दिन पहले ही यानी १० की सुबह हम अहमदाबाद से दिल्ली पहुँचे थे, और उसी वक़्त हमें ये पता चला की कुछ लोग लखनऊ यानी मेरे शहर जा रहे है, पहले पहल तो लगा की शायद मेरा नाम भी होगा, मगर मेरी नौकरी के कारण, और मेरी स्थिति अस्पष्ट होने के कारण मेरा नाम शायद उस लिस्ट में नहीं था, और चूँकि मैंने भी हिम्मत करके इस बारे में कोई बात भी नहीं की थी सो क्या कहूँ, पर फिर मैंने बड़ी हिम्मत करके गौड़ साहब से पुछा की क्या मैं चल सकता हूँ क्यूंकि मैं वहीँ का बाशिंदा हूँ, और अपने घर में कोई भी नुक्कड़ करना एक बहुत ही सुखद एहसास होगा.

उनसे हरी झंडी मिलते ही मेरे मन ने सोचा की कैसे जाऊंगा, क्यूंकि उस दिन देर हो चुकी थी. १० तारीख को शाम के ७ बज चुके थे, तत्काल पर तो लोग ऐसे टूटते है, जैसे अपने शिकार को देखकर शेर, मगर उम्मीद करके मैंने टिकट बुक करना शुरू किया. पहले पहल तो सारी ट्रेन्स में वेटिंग या उनुपलब्धता की स्थिति दिख रही थी, सो मैं थोड़ा सा निराश हुआ, मगर जैसे ही मैंने श्रमजीवी का बटन दबाया तो ख़ुशी के मारे झूम उठा, वाह उसमे सीट उपलब्ध थी, और वो भी सिर्फ ११. सो तुरंत ही मैंने एक टिकट बुक की, और चैन की साँस ली.

घर पहुँचते ही धोबी बन बैठा, और रात भर कपडे और अन्य चीज़े तैयार करने लगा. सुबह भी कुछ वैसी ही थी, क्यूँकि कपडे और सामान लेकर मैं जैसे ही अपनी सीट पर पहुँचा तो सुकून मिला, क्यूँकि समय पर पहुचना पहले मुश्किल लग रहा था. आखिरकार लोगों से बात करते और कुछ झपकियों के साथ मैं लखनऊ पहुँचा. हालाँकि, पहले मैंने अपने परिवार वालों को सरप्राइज देने की सोची थी, क्यूँकि ट्रैन ९:१५ पर लखनऊ पहुँच जाती है, तो मुझे उम्मीद थी की सब ख़ुशी के भौचक्के होंगे, मगर ट्रेन के २ घंटे डिले के कारण मैं करीब ११ बजे पहुँचा, और मुझे अपने सरप्राइज, को जानकारी की शक्ल देकर सरप्राइज देना पड़ा.

घर पहुँचा तो माँ की मुस्कान, उनका प्यार, भाई का प्यार इतना सुकूून दे रहा था, जिसकी व्याख्या करना असंभव है. फिर माँ के हाथ का खाना, जिसके बारे में क्या कहा जाए, कुछ कहना भी असंभव है. वो स्वाद, वो प्रेम, वो सुकून. इसका ज़िक्र वो तो बिल्कुल नहीं कर सकता जिसने एक वक़्त से अपने माँ के हाथ से बना खाना न खाया हो.

घर पर वो सोना, वो निर्दुन्द, वो शांति के साथ सोना, जिसको की दिल्ली की भाग दौड़ भरी ज़िन्दगी ने कहीं भुला दिया है, फिर से महसूस किया.

सच में इस रात को, इस यात्रा को बयाँ करने के लिए शब्द नहीं.

No comments:

Post a Comment