Friday 10 October 2014

आखिर हम घर आ ही गए

३ दिन की यात्रा के बाद आखिरकार १० तारीख को हम घर आ ही गए I वो तीन दिन जहाँ पर हमने ना सिर्फ अहमदाबाद के ज़ायको का आनंद लिया बल्कि वहां की संस्कृति,बोली, ज़ायके और अभिनय शक्ति का अनुभव किया. खैर जिस दिन हम पहुँचे थे वो ७ तारिख की सुबह थी, मगर वहाँ की अद्भुत आबोहवा ने वहाँ पहुचने से पहले ही एक नया जोश भर दिया था I क्या खूबसूरत बातचीत, मीठी बोली, अद्भुत लोग और अभिनय, बाकमाल I

३ दिन तक उन्होंने हमारी खातिरदारी की I ये मेरी ज़िन्दगी की पहली यात्रा थी तो जोश सातवे आसमान पर था I लोगों से मिलना, बोलचाल समझने में कष्ट होने के बावजूद, उनकी भाव भंगिमाओं से बातों को समझना I  उसपर दर्पणा अकादमी के अपने साथियों के द्वारा मिला प्यार खुशियाँ ही भर देता था I  वो उनका हर बात का मुस्कुराकर जवाब देना वाकई में ख़ुशी का प्रवाह करता था I

वहाँ पर अभिनय करने का अपना ही कमाल था I  वो लोगों का रिस्पांस, वो हँसना, वो तालियाँ बजाकर अभिवादन करना, और वो स्नेह और प्यार वाकई में अतुलनीय था I

अपने सभी साथियों को अनेक अनेक आभार प्रकट करते हुए मैं इस यात्रा का अंत इन खूबसूरत पंक्तियों से करना चाहूँगा: सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल, ज़िंदगानी फिर कहाँ; ज़िंदगानी गर रही तो , नौजवानी फिर कहाँ??

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