Thursday 4 September 2014

मेट्रो सफरनामा

कल देर शाम ऑफिस से निकलते वक़्त मैं अपने बॉस से रूबरू था, उनसे एक ऑफिसियल मसले पर मंत्रणा कर रहा था. फारिक होते ही मैंने मेट्रो की ओर रुख किया, पर वहाँ पहुँचकर याद आया की साहब मेरे पास तो मेट्रो कार्ड ही नहीं है, उस वक़्त मुझे दीवार का वो मशहूर डायलाग याद आया, और ऐसा लग रहा था की हर कार्डधारक मुझे बता रहा हो,'मेरे पास कार्ड है'. पलक झपकते ही मैंने एंट्री लाइन से टोकन लाइन का रुख किया और वापस, मगर तब तक कहानी बदल चुकी थी.

एक छोटी सी लाइन ने एक लम्बी सी लाइन का रूप इख्तियार कर लिया था, जो मेट्रो स्टेशन के मेन गेट तक जा रही थी. वैसे इस लाइन को देखकर यूँ लग रहा था जैसे कोई लंगर बाँट रहा हो, या राशन की दुकान पर गरीब लगा हुआ है, अपनी ज़रुरत की चीज़ें पाने के लिए. खैर,मरता क्या ना करता, मैंने भी इसी लाइन में अपनी जगह ग्रहण की, और तभी मेट्रो वालों का दिमाग चला और उन्होंने एक नयी लाइन ओपन की, जो बिना बैग वालों के लिए थी.

एक पल को लगा की जैसे मुराद सुन ली गयी हो, क्यूंकि मैं भी इसी श्रेणी में आता था. मैंने लपककर अपनी जगह ली,और सुरक्षा जाँच पूरी कर के मेट्रो के अंदर प्रवेश किया. भीड़ काफी थी, और क्यों ना हो, आखिर ये दिल्ली की लाइफलाइन है, और दिल्ली की आबादी भी बेहताशा है. कोई किसी के सर के ऊपर से सुरक्षा हेतु लगाए गए खांचे पकड़ रहा था, तो कोई दरवाज़े से सटा हुआ अपने आपको बचाने की कोशिश कर रहा था.कोई बातों में मशगूल था, तो कोई अपनी प्रेमिका (गर्लफ्रेंड) को आगोश में भरकर,भीड़ से बचाने की कोशिश कर रहा था. कहीं किसी के शरीर पर लगे डीओ की सुगंध आ रही थी, तो कहीं दुर्गंध. कोई व्हाट्सप्प पर लगा था, तो कोई फेसबुक पर, कोई ट्विटर पर, तो कोई अपनी किताब या अखबार के पन्ने पढ़ने की कोशिश में.

खैर, इन सब के बीच मैं राजीव चौक मेट्रो पहुँचा, इस उम्मीद के साथ की जल्द ही मेट्रो आएगी और मैं अपने गंतव्य की ओर चलूँगा, मगर यहाँ तो आलम अलग था. पता चला की मेट्रो देरी से चल रही थी, कम से कम ५-८ मिनट की देरी से, सो यहाँ भी मैंने लोगो को आबझरव करना शुरू किया. लोगों का बातचीत करना, कही मोबाइल पर बात करना, तो कहीं प्रेमिका (गर्लफ्रेंड) के साथ हँसगुल्ले, कहीं लोगों का इस समस्या पर अपनी विशेष टिप्पणी देना, तो कहीं इस व्यवस्था को दोष देना. एकाएक मेरी नज़र नीचे से आते हुए लोगों पर पड़ी, वो सब इतनी जल्दी में आ रहे थे, जैसे की किसी रेस में जाना हो, कहीं भाग रहे हो, पर कहाँ, शायद ये तो मालूम ही नहीं, मगर बस भागते जाना है, इस रैट रेस में. क्या इसका कहीं अंत भी है? मालूम नहीं, मगर बस भागते रहो, क्यूंकि यहीं सिखाया गया है की,

'ज़िन्दगी एक रेस है, अगर तेज़ नहीं भागोगे, तो कोई और तुमसे आगे भाग जाएगा'

खैर इतनी भीड़ थी, और एक मेट्रो आने में भी समय लग रहा था, सो जैसे ही मुझे मेरे गंतव्य वाली मेट्रो दिखी, मैंने उसमे जैसे कैसे एंट्री ली, पर उसके चलते ही, ये पता चला, की जैसे वो कहते है ना,


'दिखावों पे मत जाओ, अपनी अक्ल लगाओ' 

ये मेट्रो दूसरे गंतव्य को जाती है, सो बीच रास्ते में ही उसको छोड़ना पड़ा.और अब मैं फिर से इंतज़ार और कतार में था, फिर थोड़ी देर बाद एक मेट्रो आई, मगर वहाँ पहले से ऐसे लिखे पढ़े गवार लोग थे, जो किसी को उतरने ही नहीं दे रहे थे, उल्टा ज़बरदस्ती चढ़ रहे थे. मैंने रोकने की कोशिश की,मगर वो तो भीड़ है साहब, किसी की नहीं सुनती. खैर मैं जैसे कैसे अपने गंतव्य पहुँचा, और वहां से अपनी मंज़िल.

मगर इस खूबसूरत सफरनामे को एक खूबसूरत तरीके से अंत भी करना था, सो घर पहुँचते ही मैंने कढ़ाई पनीर और रोटियों से इसका समापन किया और अद्भुत भोजन का आनंद लिया. और अंत में जैसे बच्चन साहब कहते है,

'शुभ रात्रि,शुभ रात्रि,शुभ रात्रि एंड डू टेक वेरी गुड केयर ऑफ़ योरसेल्वेस'

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