Monday 22 September 2014

दीवारें हम खुद बनाते है

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ये कहना शायद गलत नहीं होगा की अपने आस-पास और अपने मन में दीवारें हम खुद बनाते है. देखिये ना, जब हम पैदा होते है, तो कुछ दीवारें हमारे अपने, हमारे बड़े हमारे मन में बना देते है, जैसे की, फला से मिलो, फला से नहीं, उनको नमस्कार नहीं किया तो गलत बात है, सीधे घर न आने वाले लड़के बदमाश बनते है और ना जाने क्या क्या? पहले पहल तो ये सब सही लगता है, मगर जैसे जैसे हमारा विवेक जागता है, हम पहचानते है की ये सब एक ढकोसला है, स्वांग है, जिसे हमपर थोपा गया है, उनके द्वारा जिन्होंने पहले कभी ऐसी किसी बात को अपनों से सुना, उसपर अमल किया, बजाय इसके की उसकी वास्तविकता या प्रमाणिकता या यूँ कहूँ की प्रासंगिकता की विवेचना करे, उन्होंने इसको एक सत्य मान लिया और अपने पर थोप लिया, फिर अपने बाद अपने बच्चो में वही कीटाणु डाल दिए.

गर हम उन दीवारों से बच गए तो अपनी मानसिकता और सोच के आधार पर अपने लिए दीवारें कड़ी कर लेते है. जैसे की, वो लड़का मेरा दोस्त बनने के काबिल नहीं, या उसमे वो बात नहीं है,या मैं ये नहीं कर सकता, और ना जाने क्या क्या? ज़रुरत है की हम अपने आस पास दीवारें ना लगाए, बल्कि एक ऐसा व्यक्तित्व तैयार करे जो उन्नति और तरक्की को ले जाए,किसी का गला घोट कर नहीं, बल्कि ख़ुशी देकर.

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