ये ब्लॉग अस्मिता थिएटर ग्रुप के डायरेक्टर श्री अरविन्द गौड़ जी को समर्पित!
पहले पहल तो ये शब्द सुनने में बहुत ही अजीब लगेंगे, और हो भी क्यों ना, आखिरकार कोई यदि आपको हमेशा एक जैसा ही चाहे, या ये चाहे की आप पहले दिन जैसे ही रहे तो ये एक अजीब सी कश्मकश होगी की पहले दिन तो मैं बित्ते भर का था और अपनों के हाथों में लोरियाँ सुनता था, और अगर ये बात की जाए की मैं पहले दिन जैसा नहीं रहा तो क्या ये कहा जा रहा है की मेरा विकास हुआ है, और ये तो अच्छी बात है, क्यूँकी मैंने समय के साथ विकास किया है और डार्विन की थ्योरी भी हमेशा आगे बढ़ने या सर्वाइवल ऑफ़ द फिट्टेस्ट की बात करती है.
मगर यहाँ बात कुछ और ही है, यहाँ पर बात हो रही है, की जब आप कुछ समय बाद अपनी बुद्धि या समझ के आधार पर सामने से उत्तर देने लगे और उसको स्वयं पर प्रहार समझा जाने लगे, मगर ये समझना बहुत ज़रूरी है की हम सब किसी से भी एक जैसा रहने और होने की कल्पना नहीं कर सकते, क्यूँकी यहाँ हर चीज़ चलायमान है, और इंसान तो सर्वप्रथम. इसलिए ये मान लेना की इंसान हमेशा एक जैसा ही रहेगा और कभी भी आपको उत्तर नहीं प्राप्त होगा, एक सपनो की दुनिया में रहने जैसा होगा, क्यूँकी ये असंभव है. हर इंसान एक समय तक किसी भी बात को सुन या समझ सकता है, और ये ज़रूरी नहीं की आप सदा ही सहीं हो. यहाँ पर मैं डॉ हरिवंश राय बच्चन जी की वो पंक्तियाँ प्रस्तुत करना चाहूँगा:
कहने की सीमा होती है
सहने की सीमा होती है ,
कुछ मेरे भी वश मे है
कुछ सॊच समझ अपमान करो मेरा
सहने की सीमा होती है ,
कुछ मेरे भी वश मे है
कुछ सॊच समझ अपमान करो मेरा
कितनी गहरी बात कह गए बाबूजी, कुछ ऐसी जो कहीं ना कहीं एक बहुत बड़ा अर्थ रखती है. मगर जिस बारे मे मैं कह रहा हूँ, वो है की पहले दिन जिस प्रकार की ऊर्जा, ढृणता, कर्तव्यनिष्ठा के साथ आप कहीं जाते है क्या आप उसको कायम रख पाते है? यदि नहीं तो फिर आपको पुनर्विचार की ज़रुरत है, जैसे की फिल्म 'शोले' मे संजीव कुमार जी का महानायक अमिताभ तथा धरम प्राजी को को कहा गया वो डायलाग,' मैं देखना चाहता था की तुममे आज भी वही जोश और जूनून है, या वक़्त के दीमक ने तुम्हारी जड़ो को खोखला कर दिया है'
उम्मीद है की इस ब्लॉग का सही अर्थ निकाला जाएगा
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