Saturday 26 July 2014

तब रोक न पाया मैं आसूँ

मेरे इस ब्लॉग का शीर्षक कहीं ना नहीं डॉ हरिवंश राय बच्चन जी की कविता से हूबहू मेल खाता है, मगर यहाँ कहानी कुछ और ही है.

ये बात है ८ जुलाई की, वो तारीख जिस दिन गिन्नी प्राजी ने,मेरे दोस्त ने चोला छोड़ दिया था. एक साल पहले जब मेरे दोस्त ने चोला छोड़ा था तब मुझे यकीन नहीं हो रहा था. इस बात की उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी की प्राजी इतनी छोटी सी उम्र में चोला छोड़ कर हमसे मीलों दूर चले जाएँगे. आज भी रह रह कर वो वक़्त मुझे याद आता है:

वो तारीख थी शायद ६ जुलाई की, जब हमने एक नाटक ख़त्म किया और प्रेक्षागृह के बाहर हम मीटिंग कर रहे थे. मीटिंग ख़त्म होते के साथ ही मैं घर को रवाना हुआ क्यूंकि मुझे उस दिन एक अजब सी इच्छा ने जकड रखा था, और वो थी घर जल्दी पहुँचने की इच्छा. मैं घर पहुँचा, रात का भोजन खत्म किया, इस ख्याल से बिल्कुल बेखबर की कहीं किसी अस्पताल में मेरा दोस्त आखिरी सांसें गिन रहा है. इससे अजब इत्तेफाक क्या होगा की हमेशा ट्विटर पर रहने वाला इंसान, यानी की मैं उस दिन ट्विटर पे नहीं था.

उस रात मेरे वहाँ से निकलते ही मेरे थिएटर गुरु श्री अरविन्द गौड़ जी को एक सन्देश मिला, लिखा था,'अर्जेंट, प्लीज कॉल'. मैसेज में लिखे शब्दों की गंभीरता को देखते हुए तुरंत ही फ़ोन किया गया तो पता चला की गिन्नी अस्पताल में भर्ती है और हालत गंभीर है. बस फिर क्या था, सभी लोग तुरंत अस्पताल पहुँचे. इस दौरान उसकी सलामती के ट्वीट्स आने लग गए थे, क्यूँकि अरविन्द सर ने ट्वीट कर दिया था, और मैं इन सबसे बेखबर गहरी नींद में था.

रात करीब सवा एक बजे मेरे फ़ोन की घंटी बजी, एक पल को तो मुझे ऐसा ही लगा जैसे सपनो में ही घंटी बज रही थी, मगर थोड़ी देर बाद जब वो दुबारा बजी तो ये समझ में आया की वो सपना नहीं हकीकत थी. मैंने फ़ोन देखा, वो मेरे दोस्त हिमांशु सिंह का फ़ोन था, पहले पहल मैं भौचक्का हुआ की इतनी रात को हिमांशु का फ़ोन क्यों? मैंने फ़ोन उठाया और उधर से आती हुई आवाज़ ने मुझे सहमा दिया, आवाज़ आई,'गिन्नी का एक्सीडेंट हो गया है और वो अस्पताल में है'. मुझे लगा कोई मज़ाक कर रहा है या बकरा बना रहा है, क्यूंकि प्राजी तो मेरे सामने ठीक ठाक हालात में घर को निकले थे. उसने आगे कहा,'सर ने तो ट्वीट भी कर दिया है'. मैं हतप्रभ था की मैं आज ट्विटर पे क्यों नहीं आया. मैंने कहा मैं पहुँचता हूँ, मगर चूँकि वो अपने घर से निकल चुके थे तो मुझे बीच में कहीं मिलने को कहा,मैंने एम्स पर मिलना सही समझा क्यूँकि वहाँ से अस्पताल पास पड़ता था. मैंने अगले दिन के नाटक के कपड़े बैग में डाले और रात में ऑटो करके एम्स पहुँचा. अगले ही पल वो भी वहीँ थे, वो विद हेलमेट और मैं विद आउट हेलमेट रॉंग साइड चलाते हुए अस्पताल पहुँचे.

चूँकि कुछ समझ नहीं आया तो हमने दीवार फांदी और वहाँ पर सब लोग थे. रात भर वही रुका रहा मैं और सब साथी, सुबह सुबह मैं और मोना बिश्ट वहाँ पर थे. बाकी सब धीरे धीरे घर गए, मगर सब जल्दी जल्दी वहाँ आ रहे थे, क्यूंकि सबके दिलों को कहीं न कहीं छुआ था गिन्नी ने. हम सब उसको देखना चाहते थे. आखिरकार सुबह उन्होंने हमें आई.सी.यू. में जाने का मौका दिया. देखकर यकीन नहीं हो रहा था की ये प्राजी का चेहरा था.

वो नीला पड़ चुका चेहरा, बायीं आँख के चारो ओर काला घेराव, जो की उनके साथ हुए एक्सीडेंट की कहानी बयान कर रही थी. खुले हुए केश, सर पे चोट का निशान और वो शिथिल सा शरीर जिसको वेंटीलेटर की शक्ति से जीवित रखने का प्रयास किया जा रहा था. वो मशीन की आवाज़ जो कुछ तरंगे पैदा कर रही थी, जिससे शायद उनको बचाने का प्रयास किया जा रहा था, और उनके समक्ष खड़ा मैं, जो बिना वेंटीलेटर के ही शिथिल सा खड़ा था, और अंदर उमड़ता दुःख, आंसूँओं का सैलाब, जो बाहर आना चाहते थे, मगर मैंने उन्हें रोका, क्यूँकि यदि मैं रो पड़ा, तो बाहर आंसूँओं का ज्वालामुखी फट पड़ेगा. ऐसा सैलाब आएगा जो किसी से संभाला भी नहीं जाएगा.

अपनी भावनाओ को सँभालते हुए, मैं बाहर आया, मगर वहां पहले से मेरे ग़मगीन साथी खड़े थे. मैंने खुद को संभाला, क्यूँकि वहाँ हर इंसान भावनाओ के सैलाब में गोते खा रहा था और गर मैंने भी अपनी भावनाओ पर काबू नहीं पाया तो मैं इतने सारे भावनाओ के सुलगते ज्वालामुखियों को भटने से कैसे रोक पाऊँगा.

पर जैसा की कहते है 'द शो मस्ट गो ऑन', तो शाम को अपने दो साथियों, लतिन घई और विनय शर्मा को ड्यूटी पर लगाकर हम नाटक करने पहुँचे. इस हिदायत के साथ की यदि कुछ भी बदलाव होता है तो तुरंत सूचित किया जाए. पहली बार मैंने अरविन्द सर को इतना भावुक देखा. सर कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थे,नाटक से पहले सर ने बस इतना कहा,'याद रखना हम उसके लिए कर रहे है जो अपनी ज़िन्दगी के लिए वहाँ अस्पताल में लड़ रहा है'

रूंधे गले और नम आँखों से हमने नाटक शुरू किया. दर्शकों को इस बारे में सूचित कर दिया गया था. स्टेज पर आते ही हम सब नार्मल बिहेव करते, पर पलटते ही आँखें गीली. नया हो या पुराना, छोटा हो या बड़ा सभी के दिल को छुआ था प्राजी ने. हमने जैसे नाटक समाप्त किया, सब अस्पताल की ओर भागे. अगली सुबह मेरे एक साथी ने मुझे थोड़ा विश्राम दिया ताकि मैं घर जाकर कपडे बदल लूँ. मैं जैसे ही घर से अस्पताल की ओर निकला, खबर आई की प्राजी चोला छोड़ चुके है. हाथ से फ़ोन गिर पड़ा, समझ नहीं आया क्या करूँ. आनन-फानन में मैं अस्पताल पहुँचा, प्राजी का निर्जीव शरीर मोर्ग में रखवाया, फिर उसको काबुलीवाले गुरूद्वारे ले गए, और फिर शमशान घाट. प्राजी का शरीर अपनी आँखों के सामने पंचतत्व में विलीन होते और सबकी आँखों को नम देखा. मैं तो वहाँ से आना ही नहीं चाहता था, पर मजबूरी थी.

वहाँ गिन्नी के पिताजी से मुलाकात हुई, जिन्होंने इस पूरे घटनाक्रम के दौरान एक भी आँसूं नहीं बहाया था. वो बहुत ही शक्ति के साथ इस परिस्थिति को संभालने का प्रयास कर रहे थे, या कहीं न कहीं ये ग़म इतने गहरे तरीके से उनके साथ जुड़ गया था, की आँसूं की जब्त हो गए थे. इस शेर को सलाम.

एक साल बाद उसकी बरसी पर जब वो पुराने दिनों की तसवीरें दिखाई गयी और जब मुझे अरविन्द सर ने ये परिभाषित करके बुलाया की 'अस्मिता में गिन्नी के सबसे करीबी दोस्त अमित शुक्ला' और मुझे उस अद्भुत इंसान के बारे में कुछ कहने को और अपनी यादें साझा करने को कहा,
'तब रोक न पाया मैं आँसू'

क्षमा चाहता हूँ की मेरे पास उसकी बरसी से जुडी कोई तस्वीरें नहीं है

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