और फिर आप इस दुनिया में आ जाते है. आपके कारण आपकी माँ ने जो कष्ट सहा होता है उसको शब्दों में बयान करना असंभव है. मगर इस सारे दर्द के बावजूद वो आपको इस दुनिया में लाती है, इस ख़ुशी से की उन्होंने एक नन्ही जान को दुनिया देखने का पुनीत कार्य किया है, वो बेहद खुश होती है. फिर उनके सपने,आशाएँ,उम्मीदें सब आपसे जुड़ जाता है.
चूँकि उस पल आप केवल रोने की भाषा ही जानते है और अपनी बात मनवानी हो या खुद को राजा साबित करवाना हो तो ये ही आपका हथियार होता है. आपका रोना उन्हें बेचैन कर देता है, चाहे आपको दूध पीना हो, या पालने में आपके द्वारा पेशाब हो, आप सब भावनाओ की अभिव्यक्ति सिर्फ रोकर ही करते है. आपके रोने की आवाज़ सुनकर पूरा घर आपकी सेवा में तत्पर हो जाता है. कोई आपको गोद में उठा लेता है, गीत गुनगुनाने लगता है, कोई आपसे बाते करने लगता है, और आपके हर पल बदलते हावभाव से आपकी मनःस्थिति को समझने की कोशिश करता है, या यूँ महसूस करता है की जैसे आप उनकी बातों का जवाब दे रहे है. आपकी बड़ी होती आँखें, कभी सिकुड़ती आँखें, कभी वो नाज़ुक से हाथ जो भींच लेते है आप, या उनकी ऊँगली पकड़ लेते है. वो कभी आपको तोतली सी आवाज़ में सम्बोधित करने लगते है, कभी कहते है,'मेला लाजा बाबू/गुड़िया रानी घुम्मी करने चलेगा/चलेगी' या फिर आपको सुलाने के लिए लोरी सुनाते है, जैसे की 'आ जाओ, आ जाओ, निन्नी निन्नी आ जाओ, बउवा/बिटिया का सुला जाओ' या फिर 'चंदा,घुप्प', और ना जाने क्या क्या माहौल होते है. रात में भी आपके पहरेदार बनकर सब सोते है, क्यूंकि जब दुनिया सोती है, तब आपका जागने का समय होता है.
धीरे धीरे आप समय के साथ बढ़ते चले जाते है, आपका दायरा घर से बढ़कर, विध्यालय तक पहुंच जाता है. आपका वो सुबह सुबह उठने के लिए मना करना, वो मम्मी/पापा का आपसे पहले उठना, आपके लिए खाना बनाना, आपको नहलाना, कपडे पहनाना. आपका दूध को लेकर नखरे करना, पर बोर्नवीटा या हॉर्लिक्स मिलाते ही उसको चट कर जाना. वो आपको घर से बस के पॉइंट तक छोड़ने आना, आपको हाथ हिलाकर टाटा करना, और फिर आपको वापस लेने जाना. इस बीच आपकी सलामती की दुआ करना.
शायद कहीं ना कहीं हम वक़्त के साथ ये भूल चुके है, की ज़िन्दगी का आधार रिश्ते है. हम पैसे की चमक धमक और इस शोर-शराबे में ज़िन्दगी का असली सबक भूलते जा रहे है. वो सबक जो शायद कहीं ना कहीं हम सबको बचपन में बताया जाता है, सिखाया जाता है. पर जैसे जैसे हम मॉडर्न होते जा रहे है, अपनों से कहीं ना कहीं दूर होते जा रहे है. कहीं ना कहीं हम इसके लिए बदलते समय और दिनचर्या को ज़िम्मेदार मानते है, मगर असलियत ये है की हम सब कहीं ना कहीं सिकुड़ से रहे है. खुद के घोसलों में, अपने शंखों में, अपने कूबड़ में, हमारे लिए अब रिश्तों का मतलब 'वसुधैव कुटुम्बकम' से 'मैं भला, मेरा घर भला' में परिवर्तित हो गया है.
शायद हमें सोचने और समझने की ज़रुरत है,की हमसब की ज़िन्दगी एक पेड़ के तने की तरह है, जिसकी जड़ रिश्ते है. इस तने से जुडी हुई कई डालियाँ है, जो हमारे रिश्तेदार है, पहली दाहिनी डाली है माँ की, बायीं डाली है पिता की, उससे अगली भाई-बहन और आगे की डालियाँ है हमारे बाकी रिश्तेदार, जैसे की मामा,बुआ,मौसी,दादी इत्यादि इत्यादि मगर इन सब रिश्तो को ताकत मिलती है जड़ से, जो की है रिश्ते. अगर जड़ यानी की रिश्ते खराब हो जाए, तो क्या डालियाँ और क्या तना, सब कुछ सूख जाएगा और मुरझा जाएगा और अंततः भूमिगत हो जाएगा. इस जड़ को हमेशा उसकी ज़रूरी खाद और पानी देते रहिए, एक दूसरे के साथ वक़्त बिताकर,उनका हालचाल लेकर. शायद इसलिए रहीम साहब ने बड़ी बढ़िया बात कही है:
रहिमन धागा प्रेम का,मत तोरो चटकाए,
तोरे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाठ पड़ जाए,
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