इस ब्लॉग को लिखने से पहले मैं सोच रहा था की क्या ये ब्लॉग लिखूं या नहीं? क्या वाकई में इस ब्लॉग की ज़रुरत है, पर फिर अंदर से उठती हुई आवाज़ को सुना और सोचा की केवल मैं ही नहीं हम सब ऐसे अनुभव करते होंगे, और वैसे भी ये ब्लॉग है जहाँ पर मैं अपनी भावनाएँ रख सकूँ. बड़ी हिम्मत करते हुए मैंने इस ब्लॉग को लिखना शुरू किया.
बात दरअसल २ दिन पुरानी है, यानी २२ जुलाई की. रात में घर पहुँचकर मैंने जैसे ही टी.वी. खोला तो बस मेरे प्रभु श्री अमिताभ बच्चन जी का नाटक 'युद्ध' शुरू ही होने वाला था. खबर अच्छी थी, क्यूंकि मैं समय पर घर पहुँचा था, और फिर मेरे टी.वी. की स्क्रीन का साइज ७० मम हो गया, क्यूँकि बच्चन साहब जो आ चुके थे. पूरी तल्लीनता से मैंने नाटक देखा, इस दौरान इस बात से बेखबर की रात चढ़ आई है और खाने के साधन भी कम हो चुके है. रात ११:३० बजे जैसे ही नाटक ख़त्म हुआ और मेरी चेतना वापस आई (क्यूँकि बच्चन साहब को देखते वक़्त मैं खुद को, और अपने आस पास को जैसे भूल सा गया था), मैंने खाना खाने के लिए घर से बाहर प्रस्थान किया. पहले पहल ये सोचा की पैक करवाकर घर पर कुछ ले आता हूँ, मगर इस ख्याल से ऊपर आया वो ख्याल जिसने मुझे वही पर जाकर खाने को प्रेरित किया. खैर मैंने भी इसे ही सही समझा और घर से कदम ढ़ाबे की ओर चल पड़े. वहां पहुँचकर मैंने भोजन किया और अपने घर की ओर चल पड़ा.
घर पहुँचकर पता चला की हमारे एरिया की लाइट काट दी गयी है, वैसे ये कोई नयी बात तो थी नहीं, सो हलके हलके कदमो के साथ मैंने घर का दरवाज़ा खोला. मुझे ऐसा लगा जैसे कोई मुझे छूकर अंदर गया है. एक पल के लिए तो मैं सिहर उठा. मगर हमेशा से नास्तिक होने के कारण ऐसी किसी भी चीज़ पर यकीन करना नामुमकिन था, सो मैंने दरवाज़ा बंद किया और अपने कमरे का दरवाज़ा खोला, फिर वही एहसास. न जाने फिर क्यों मुझे बार बार ऐसा एहसास हो जैसे मेरे कमरे के दरवाज़े पर कोई खड़ा है, या मुझे देख रहा है, यकीन मानिए ऐसा सोचते ही मैं खुद सिहर जाता था, समझ नहीं आता था की आखिर हुआ क्या? मैं चाट पर पहुँचा और चुपचाप सो गया. सुबह के साथ एक नयी ख़ुशी ने मेरा स्वागत किया.
मगर ये तो सिर्फ आधी कहानी थी, कल शाम को जब मैं घर पहुँचा तो करीब ९ बज चुके थे, मैंने टी.वी. खोली और अपना फेवरेट डब्लू.डब्लू.ई. देखने लगा, इसी दौरान मेरी नज़र घर की खिड़की पर पड़ी जो बालकनी में खुलती थी, वहां पर मुझे एक इंसाननुमा आकृति दिखाई दी, बिलकुल वैसा ही चेहरे का आकार, गर्दन, और हाथ को तानकर बांधे हुए एक इंसान की आकृति. पहले पहल मुझे लगा की सामने या आस पास के किसी मकान के बरामदे में कोई खड़ा होगा, शायद इसलिए ऐसी आकृति आ रही होगी, मगर उस आकृति ने अपनी जगह तब तक नहीं छोड़ी जबतक मैं खुद वहां नहीं पहुँच गया तो उसने मेरे मन में अजीब से सवाल खड़े कर दिए. पहले पहल मुझे ऐसा लगा की ये कोई वहम ही होगा, मगर वो आकृति, वो एहसास जैसे की किसी ने आपको छुआ है मेरे मन में सवाल ज़रूर खड़े करता है, मगर भूत-प्रेत या कुछ और को मानने के लिए अभी भी मैं तैयार नहीं हूँ. मैंने अपने एक मित्र से बात की उसने बताया की हो सकता है की कुछ हो ही, इसलिए आप 'हनुमान जी' की मूर्ति या चालीसा घर में रख लीजिए.
बताइए एक नास्तिक से भगवान की बातें? मैंने भी कह दिया की मरना पसंद है,मगर जिस चीज़ के अस्तित्व को आजतक नहीं माना उसे मरते दम तक नहीं मानूंगा. ये तो वही बात हो गयी की जब शहीद भगत सिंह जी को फाँसी दी जाने वाली थी, तो उनसे कहा गया की अब तो अरदास कर लो, तो उनका जवाब मुझे आज भी प्रेरित करता है, की 'जब मैंने आज तक उसके अस्तित्व को नाकारा है, तो आज जब मैं अंत के निकट हूँ, इसलिए मैं उसका ध्यान कर लूँ, ये कायरता होगी'
मैं स्वयं की तुलना उस महान बलिदानी से नहीं कर रहा, मगर मैं उसका अस्तित्व कभी भी नहीं मान पाऊँगा.
बात दरअसल २ दिन पुरानी है, यानी २२ जुलाई की. रात में घर पहुँचकर मैंने जैसे ही टी.वी. खोला तो बस मेरे प्रभु श्री अमिताभ बच्चन जी का नाटक 'युद्ध' शुरू ही होने वाला था. खबर अच्छी थी, क्यूंकि मैं समय पर घर पहुँचा था, और फिर मेरे टी.वी. की स्क्रीन का साइज ७० मम हो गया, क्यूँकि बच्चन साहब जो आ चुके थे. पूरी तल्लीनता से मैंने नाटक देखा, इस दौरान इस बात से बेखबर की रात चढ़ आई है और खाने के साधन भी कम हो चुके है. रात ११:३० बजे जैसे ही नाटक ख़त्म हुआ और मेरी चेतना वापस आई (क्यूँकि बच्चन साहब को देखते वक़्त मैं खुद को, और अपने आस पास को जैसे भूल सा गया था), मैंने खाना खाने के लिए घर से बाहर प्रस्थान किया. पहले पहल ये सोचा की पैक करवाकर घर पर कुछ ले आता हूँ, मगर इस ख्याल से ऊपर आया वो ख्याल जिसने मुझे वही पर जाकर खाने को प्रेरित किया. खैर मैंने भी इसे ही सही समझा और घर से कदम ढ़ाबे की ओर चल पड़े. वहां पहुँचकर मैंने भोजन किया और अपने घर की ओर चल पड़ा.
घर पहुँचकर पता चला की हमारे एरिया की लाइट काट दी गयी है, वैसे ये कोई नयी बात तो थी नहीं, सो हलके हलके कदमो के साथ मैंने घर का दरवाज़ा खोला. मुझे ऐसा लगा जैसे कोई मुझे छूकर अंदर गया है. एक पल के लिए तो मैं सिहर उठा. मगर हमेशा से नास्तिक होने के कारण ऐसी किसी भी चीज़ पर यकीन करना नामुमकिन था, सो मैंने दरवाज़ा बंद किया और अपने कमरे का दरवाज़ा खोला, फिर वही एहसास. न जाने फिर क्यों मुझे बार बार ऐसा एहसास हो जैसे मेरे कमरे के दरवाज़े पर कोई खड़ा है, या मुझे देख रहा है, यकीन मानिए ऐसा सोचते ही मैं खुद सिहर जाता था, समझ नहीं आता था की आखिर हुआ क्या? मैं चाट पर पहुँचा और चुपचाप सो गया. सुबह के साथ एक नयी ख़ुशी ने मेरा स्वागत किया.
मगर ये तो सिर्फ आधी कहानी थी, कल शाम को जब मैं घर पहुँचा तो करीब ९ बज चुके थे, मैंने टी.वी. खोली और अपना फेवरेट डब्लू.डब्लू.ई. देखने लगा, इसी दौरान मेरी नज़र घर की खिड़की पर पड़ी जो बालकनी में खुलती थी, वहां पर मुझे एक इंसाननुमा आकृति दिखाई दी, बिलकुल वैसा ही चेहरे का आकार, गर्दन, और हाथ को तानकर बांधे हुए एक इंसान की आकृति. पहले पहल मुझे लगा की सामने या आस पास के किसी मकान के बरामदे में कोई खड़ा होगा, शायद इसलिए ऐसी आकृति आ रही होगी, मगर उस आकृति ने अपनी जगह तब तक नहीं छोड़ी जबतक मैं खुद वहां नहीं पहुँच गया तो उसने मेरे मन में अजीब से सवाल खड़े कर दिए. पहले पहल मुझे ऐसा लगा की ये कोई वहम ही होगा, मगर वो आकृति, वो एहसास जैसे की किसी ने आपको छुआ है मेरे मन में सवाल ज़रूर खड़े करता है, मगर भूत-प्रेत या कुछ और को मानने के लिए अभी भी मैं तैयार नहीं हूँ. मैंने अपने एक मित्र से बात की उसने बताया की हो सकता है की कुछ हो ही, इसलिए आप 'हनुमान जी' की मूर्ति या चालीसा घर में रख लीजिए.
बताइए एक नास्तिक से भगवान की बातें? मैंने भी कह दिया की मरना पसंद है,मगर जिस चीज़ के अस्तित्व को आजतक नहीं माना उसे मरते दम तक नहीं मानूंगा. ये तो वही बात हो गयी की जब शहीद भगत सिंह जी को फाँसी दी जाने वाली थी, तो उनसे कहा गया की अब तो अरदास कर लो, तो उनका जवाब मुझे आज भी प्रेरित करता है, की 'जब मैंने आज तक उसके अस्तित्व को नाकारा है, तो आज जब मैं अंत के निकट हूँ, इसलिए मैं उसका ध्यान कर लूँ, ये कायरता होगी'
मैं स्वयं की तुलना उस महान बलिदानी से नहीं कर रहा, मगर मैं उसका अस्तित्व कभी भी नहीं मान पाऊँगा.
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