Tuesday 22 July 2014

लिखते लिखते कहीं रुक गया मैं!

सुबह से ही सोच रहा था, की लिखूँगा आज मैं पर ना जाने क्या हुआ आज हाथों ने जैसे कीबोर्ड की ओर जाने से इंकार कर दिया. कारण शायद ये था की मैंने बातों बातों में ही कुछ ऐसा पढ़ लिया जिसे समझने की कोशिश अभी भी कर रहा हूँ. अभी भी मैं ये सोच रहा हूँ की इन शब्दों को क्या कहूँ, 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ', मगर वाकई में आज ये दो कविताएँ कुछ ऐसी पढ़ी डॉ हरिवंश राय बच्चन जी की, की जैसे लगा मैं भला अपने जीवन में क्या लिख पाऊँगा, क्या समझ पाऊँगा, कुछ समझने की और कहने की शक्ति जैसे क्षीण सी हो रही थी. इसलिए आपको भी उन कविताओं का रस पान करा देता हूँ, जिनके रस से मैं आज सराबोर हो उठा हूँ, और अब तक उसके नशे में झूम रहा हूँ. ये दोनों ही कविताएँ मेरे दिल के करीब है:

क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?

क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?

मैं दुखी जब-जब हुआ
संवेदना तुमने दिखाई,
मैं कृतज्ञ हुआ हमेशा,
रीति दोनो ने निभाई,
किन्तु इस आभार का अब
हो उठा है बोझ भारी;
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?

एक भी उच्छ्वास मेरा
हो सका किस दिन तुम्हारा?
उस नयन से बह सकी कब
इस नयन की अश्रु-धारा?
सत्य को मूंदे रहेगी
शब्द की कब तक पिटारी?
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?

कौन है जो दूसरों को
दु:ख अपना दे सकेगा?
कौन है जो दूसरे से
दु:ख उसका ले सकेगा?
क्यों हमारे बीच धोखे
का रहे व्यापार जारी?
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?

क्यों न हम लें मान, हम हैं
चल रहे ऐसी डगर पर,
हर पथिक जिस पर अकेला,
दुख नहीं बँटते परस्पर,
दूसरों की वेदना में
वेदना जो है दिखाता,
वेदना से मुक्ति का निज
हर्ष केवल वह छिपाता;
तुम दुखी हो तो सुखी मैं
विश्व का अभिशाप भारी!
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?

-डा. हरिवंशराय बच्चन

और दूसरी कविता है:

यहाँ सब कुछ बिकता है , दोस्तों रहना जरा संभाल के !!!

बेचने वाले हवा भी बेच देते है , गुब्बारों में डाल के !!!
सच बिकता है , झूट बिकता है, बिकती है हर कहानी !!!
तीन लोक में फेला है , फिर भी बिकता है बोतल में पानी!!!
कभी फूलों की तरह मत जीना,
जिस दिन खिलोगे... टूट कर बिखर्र जाओगे ।
जीना है तो पत्थर की तरह जियो;
जिस दिन तराशे गए... "खुदा" बन जाओगे ।।

-डा. हरिवंशराय बच्चन

आशा है आपको पसंद आएँगी

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