Friday 18 July 2014

बरसो रे मेघा बरसो





जून और जुलाई की चिलचिलाती हुई गर्मी के असर से हर इंसान त्राहि-मामि करता है. इस ताप से बचने के लिए घर में रहने वाले लोग कूलर या ए.सी. का इस्तेमाल करते हैं तो वही रास्तों पर विचरते प्राणी पानी या फिर आइसक्रीम वालो की मदद से इस चढ़ते हुए पारे के ताप को कम करने का प्रयास करते है, और हर क्षण यही प्रार्थना करते है अपने उस 'तथाकथित भगवान' से की बरसात कर दो. पर क्या करें साहब उस 'तथाकथित भगवान' को भी तो अपील्स की आदत है, और जब इतने सारे लोग उसको अपील करने लगे तो वो भी आखिर अपने 'तथाकथित पानी के नल' खोल देता है. कुछ वैसा ही कल भी हुआ, जब सुबह तक बारिश के कोई आसार न थे, और लोग अपनी दिनचर्या में व्यस्त थे, कोई ऑफिस पहुँचने की कोशिश कर रहा था, कोई बच्चों को स्कूल भेजकर, अपने घरों के काम में लगा हुआ था, तो वही आज कल की युवा पीढ़ी अपने सपनो को पाने की कोशिश में बाहर थी, ठीक इसी तरह हर कोई अपने-अपने काम में व्यस्त था.


इसी बीच घुमड़ते हुए मेघा ने अपनी दस्तक दी, जो बाहर थे उन्हे इसकी दस्तक सुनाई दे गयी, जो नही थे,हमारे जैसे, उन्होने लोगों की बातों से कुछ देर बाद में सूचना पाई. खैर शाम हुई और हमने ऑफिस से छुट्टी पाते ही इस अद्भुत मौसम का लुत्फ़ उठाया। चूँकि हम सब अपनी यात्रा में कहीं न कहीं आगे बढ़ने को आतुर थे, सो हमने भी कदम आगे बढ़ाने की कोशिश की कि तभी मुझे दो 'तथाकथित भगवान' भक्तों के स्वर सुनाई दिए. एक ने कहा,'भगवान ने बहुत अच्छा किया कि बरसात कर दी', तो वहीँ दूसरे ने कहा 'क्या यार, ये भगवान भी १० मिनट बाद नहीं बरस सकता था, कम से कम मैं अपने घर पहुंच जाता'. पहले वाले के बारे में मैं कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता, मगर दूसरे वाले कि बात सुनते ही मुझे ज़ोर की हँसी आ गयी, यूँ लगा जैसे उसके 'तथाकथित भगवान' को उसकी अनुमति लेकर ये बरसात करनी चाहिए. वैसे ऐसे भक्तों के लिए वो तभी तक भगवान है, जब तक वो उनके मन की चीज़ करता है, वरना वो गलत है.

खैर ऐसे लोगों की बात को मैं तवज्जो नहीं देता जो इस प्रकार की घटिया सोच रखते है. ये शब्द सुनकर मुझे अपने 'नास्तिक' होने पर ख़ुशी महसूस हुई, लेकिन बरखा ने कहाँ मेरे लिए रुक जाना था, सो मैंने भी मौसम का आनंद लेते हुए आगे बढ़ना शुरू किया. आगे कुछ ही दूरी पर गया था, की घनघोर वर्षा होने लग गयी. मैंने पास के ही छाँव ली, ताकि भीगने से बच सकूँ. मैं तो कहूँगा की ये मौसम बहुत देर से आया, इसकी दरकार कितने समय से किसान को थी, वो किसान जो आज भी परेशानियों से घिरा हुआ है, जो सूखा पड़ने के कारण आत्महत्या कर रहा है. वो किसान जो अपनी ज़िन्दगी को बचाने के लिए दर-दर का मोहताज है. वो किसान जो हमारे पेटों तक पहुँचने वाला अन्न पैदा करता है, जिसको ये बड़े मिल वाले, बड़े नाम और दाम पर बेचकर अपनी तिजोरियाँ भरते है और वो गरीब बेचारा फसल के पैसे कमा कर संतोष कर लेता है. इस सोच के सागर में डूबा ही था, की एक बच्ची की आवाज़ से मैं वापस किनारे पर आया. पहले लगा की शायद मेरी आँखों से जो बह रहा है, वो बारिश का पानी है, पर फिर समझ में आया की मैं कितना डूब गया था इस ख्याल में, क्यूँकि वो बारिश का पानी नही था.









वापस होश में आते ही, मैंने अपने चारो ओर नज़र दौड़ाई तो लोगों का एक हुजूम देखा, युवक-युवतियों के जोड़े, परिवार,बुजुर्ग सब मेरे आस पास ही थे.धीरे धीरे अँधेरा होने लगा और लोग भीगते हुए आकर वहाँ पर शरण ले रहे थे. वहाँ एक अलग ही दुनिया बस चुकी थी, वहाँ माँ अपने बच्चे को बाहर हाथ निकालने से मना कर रही थी, तो वहीँ बच्चों की मासूम शरारतें, उनकी हँसी माहौल को और भी सुन्दर बना रही थी. वहाँ प्रेमी जोड़ो का बाहें डाले गाना गाना भी बहुत ही अच्छा लग रहा था. उसपर मेरी नज़र दो ऐसे बुज़ुर्गों पर पड़ी जो शायद शरीर से बुज़ुर्ग थे,दिल से नही, क्यूँकि दादाजी बच्चन साहब का 'आज रपट जाए तो हमें न उठइयो' गीत गुनगुना रहे थे, जो वहाँ खड़े हम सबको बहुत ही अच्छा लग रहा था, और इस अद्भुत माहौल में और भी अच्छा बना दिया एक बेहतरीन सी चाय ने, जिसकी चुस्कियां लेते हुए हम सब उस भीड़ में अपनी अपनी पहचान लिए हुए, इस बरसात का आनंद ले रहे थे. इस दौरान मुझे सिर्फ इस बात की चिंता थी की कहीं ये पानी कहीं मेरे कमरे में ना घुस जाए,पर घर पहुंचकर जब ये पता लगा की ऐसा कुछ नही हुआ, तो मुझे बहुत ही अच्छा महसूस हुआ.



मुझे इस बात का दुःख ज़रूर है की जहाँ दिल्ली में पानी की कमी रहती है, और इतनी बरसात हुई पर किसी ने भी रेन वाटर हार्वेस्टिंग के बारे में नही सोचा, क्यूँकि यदि हम ऐसा करते तो शायद पानी की समस्याओं से कुछ हद तक निजात तो पा ही सकते थे.

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