Thursday 17 July 2014

ऐसी दीवानगी देखी नहीं कभी!

नाटक तो कई देखे और किए भी मगर जैसी दीवानगी मैंने १३ जुलाई को 'रामकली' के लिए देखी वैसी दूसरी कोई नहीं। ऐसा नहीं है की मुझे इस नाटक की ख्याति के बारे में जानकारी नहीं थी. मुझे पता था की नाटक बहुत ही प्रभावशाली है और इस नाटक से जुड़े हर कलाकार और किरदार के कारण वो और भी जीवंत हो उठता है,मगर इस कदर, शायद इसका अंदाजा नहीं था.

तो हम बात कर रहे थे १३ जुलाई की जो बिल्कुल और दिनों जैसा ही था, वही सूरज उगा, अपनी गर्मी के प्रकोप से चारो और त्राहि-माम मचा रहा था। मुझे सूरज के होने का एहसास शायद ६:३० बजे तक नहीं हुआ क्यूँकि शायद मैं किसी गहरी नींद या अच्छे स्वप्न के आगोश में था. लेकिन आखिर सूरज तो सूरज है, उसने जब निश्चय कर लिया हो की उसे हर इंसान को जगाना है, तो फिर मेरी क्या बिसात की मैं उससे लडूँ,और छत पर सोने से आपको ये परिणाम मिलना तो स्वाभाविक है। जैसे जैसे सूरज अपना ताप बढ़ाता गया, मैं अपनी निद्रावस्था को त्यागने पर मजबूर हो उठा। मगर आलस्य ने साथ नहीं छोड़ा था,सो मैं नीचे आकर ज़मीन पर ही लेट गया, मगर तभी मुझे ख्याल आया की आज इतवार है और हमारा नाटक रामकली। न जाने कहाँ से मुझमे एक अजीब सी ऊर्जा आ गयी, मैं उठा और अपने आप को तैयार करने लगा ताकि मैं समय पर श्रीराम सेंटर पहुंच जाऊँ। इस बीच फेसबुक स्टेटस अपडेट करना, ट्वीट करना, और कई अन्य स्थानो पर इसके बारे में लिखने की इच्छा को मैं अमली जामा पहनाने लगा. इस दौरान कपड़ो को धुलना, सूखने डालना और किताबे पढ़ने का सिलसिला चालू था.

अपनी राम कहानी को छोटी करते हुए, दोपहर करीब १ बजे मैंने अपने घर से निकला, सोचा समय पर पहुँच जाऊँगा, और मैं २ बजे श्रीराम सेंटर पहुँच चुका था. इसके साथ ही सारी चीज़ों को तरतीब में लाने का सिलसिला शुरू किया. कौन सी चीज़ कैसे और कहाँ सेट की जाएगी, कौन कब कहाँ से प्रवेश करेगा इत्यादि-इत्यादि। इस सब के दौरान इस बात की सुगबुगाहट भी थी की ऑनलाइन  बुकिंग की कोई जानकारी उपलब्ध नहीं थी और उस जानकारी को प्राप्त करने के सारे प्रयास हो रहे थे, किन्तु सब विफल। शाम ५ बजे के करीब सर के निर्देशों पर मैंने नीचे एक काउंटर सेट किया जहाँ पर ऑनलाइन बुकिंग करने वाले लोग मुझे उनके पास आया हुआ सन्देश दिखाकर टिकट ले सकते थे. शुरुआत में सब कुछ ठीक चल रहा था, फिर ६ बजे के करीब लोगों का हुजूम आया, इतना की हमारे पास टिकटों का अंत हो गया. 

पर लोग फिर भी टिकट चाहते थे, नाटक देखना चाहते थे, खड़े होकर, ज़मीन पर बैठकर,उन्हें सब मंज़ूर था, मगर नाटक देखना था. इतना प्यार इतनी शिद्दत की जिसको बयान करने के लिए मेरे पास शब्द नही है. इतना प्यार था की लोग मुझसे भी ऑनलाइन वाली टिकेट्स की रिक्वेस्ट कर रहे थे, मगर मैं नियती के हाथों मजबूर था, मैं उन लोगों के टिकट कैसे दे दूँ जिन्होने इसके लिए पहले ही पैसे दे दिए है. खैर, जैसा की हमारा उसूल है,'कोई भी दर्शक वापस नही जाना चाहिए', हमने वैसा ही किया. नाटक शुरू होने के करीब सवा घंटे बाद जब मैं अंदर गया, तो लोगों का हुजूम देखकर मैं दंग था. लोग ज़मीन पर बैठकर नाटक देख रहे थे, और खुश थे. सबसे अद्भुत बात नाटक के अंत में हुई जब लोगों ने नाटक ख़त्म होने के बाद करीब 15 मिनट तक तालियाँ बजाई और खड़े होकर अभिवादन किया. यकीन मानिए एक कलाकार के लिए इससे बड़ी खुशी की बात और कोई नही होती. सदा नतमस्तक हैं हम ऐसे दर्शक वर्ग को. अब आपको छोड़े जाता हूँ इस नाटक की कुछ तस्वीरों के साथ, देखिए और आनंद उठाइए.












































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