Monday 23 June 2014

फिल्मिस्तान : मज़ाक मज़ाक में सीख दे गए मियाँ

यदि आप फिल्मिस्तान को एक भारत-पाक युद्ध के तौर पर देखने जा रहे है, तो यकीन मानिए, आपके हाथ सिर्फ निराशा ही आएगी। फिल्मिस्तान की पटकथा और अभिनय दोनों ही बेहद उम्दा है, और एक बेहद ही ज़रूरी सन्देश को बड़ी ही सहजता से निर्देशक ने आपके समक्ष प्रस्तुत करने का एक सफल प्रयास किया है.

फिल्मिस्तान कहानी है, फिल्मों के सौखीन सनी अरोरा की जो एक दिन अपनी एक डाक्यूमेंट्री फिल्म की शूटिंग के दौरान बॉर्डर पर आतंकवादियों के हाथ चढ़ जाता है, और यहीं से शुरू होती है वो अद्भुत कहानी जिसके अंत को देखते हुए आप भाव विभोर हुए बिना नहीं रह पाएंगे. कैसे वो ये समझाने की कोशिश करता है की दोनों देश एक है, एक ही जैसी बोली, भाषा, वेशभूषा। इस दौरान उसे कई बार आतंकवादियों की बातों का और मार का सामना करना पड़ता है, पर वो अपने प्रयास में आगे बढ़ता है, और आखिरकार वहां से ज़िंदा वापस आ जाता है, अपने पाकिस्तानी दोस्त के साथ.

डायलॉग्स काफी बारीकी और एहतियात से लिखे गए है, जैसे पाकिस्तानी लोगों का किरदार निभा रहे लोग बिलकुल उर्दू में ही बात कर रहे है. कुछ ऐसे डायलॉग्स भी है जो आपको सोचने पर मज़बूर कर देंगे और बेबसी को भी बयान करते है, जैसे गोपाल दत्त का वो डायलाग,

'मेरे अब्बा मस्जिद में नमाज़ अदा करते थे. नमाज़ पाँच वक़्त की अदा करते थे, पर खाना दो वक़्त का भी नही. एक दिन मैंने अब्बा से एक नयी कमीज मांगी तो उन्होंने मना कर दिया. मैं रोता हुआ घर से बाहर आ गया. कमीज तो मिल गयी, मगर उसकी कीमत आज तक अदा कर रहा हूँ मियाँ'

इस फिल्म की तारीफ तो महानायक श्री अमिताभ बच्चन जी ने भी कई बार की थी, और सबसे सुन्दर था वो पल जब टीम स्वयं उनसे मिलने पहुंच गयी.



अभिनय में तो इनामुलहक़ ने भी बहुत ही शानदार अभिनय किया है. ऐसा एक पल के लिए भी नहीं लगा की ये नए कलाकार है, एक अद्भुत ताज़गी से भरी ये फिल्म आपको २ घंटे तक हँसे बिना रहने ही नहीं देगी. वो सनी का मिमिक्री करना, वो अद्भुत डायलॉग्स, जानदार अभिनय, और स्थितिवश वो गीत एक दुसरे के संग पिरोये हुए गीत से लगते है.

सलाम है उस टीम को जिसने इतने गंभीर मुद्दे को इतने सलीके और अच्छे से पेश किया की लोग लोट-पोट हुए और सन्देश को समझे बिना नहीं रह सके.

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