Monday 23 February 2015

धर्म का मर्म ( Religion for Live, not For Show off)

अपने मित्र निशांत यादव के ब्लॉग से साभार


एक बार ऋषि वाल्मीकि के पास कुछ लोग आये और बोले ऋषिवर हमने हर देवता की मूर्ति बना ली है लेकिन धर्म  की मूर्ति कैसे बनायें ! कुछ सूझता ही नहीं की उसकी नासिका (नाक ) , हनु (ठोड़ी) , ललाट ( माथा ) , इत्यादि कैसे है ! कृपया मार्ग दर्शन करें हमें धर्म की पूजा करनी हैं ! ऋषि वाल्मीकि हँसे और वोले धर्म का कोई आकर नहीं है ये तो चैतन्य हैं जीवन को जीने का माध्यम मात्र है , धर्म को जी सकते है और उसकी पूजा उसे जी कर ही हो सकती है धर्म कोई किताव या मूर्ति में नहीं होता

ये आपके स्वभाव में होता है वे सभी लोग खुश होकर बापिस लौटे  गए और जिनकी मूर्ति उन्होंने बनायीं थी उन देवताओं के आदर्शो को उन्होंने जिया ना कि सिर्फ आडंबर ( दिखावा ) किया और इसी प्रकार एक बार कौरवों और पांडवों के गुरु ने उन्हें दो पक्ति याद करने को दी , की "सत्य ही जीवन है " और “धर्म का पालन ही सत्य है " ये दोनों वाक्य सब भाईओं को याद हो गए लेकिन युधिष्ठिर को याद नहीं हुए ! उनके गुरु ने पुछा युधिष्ठिर तुम सब से बुद्दिमान हो,किन्तु तुम्हे ये दो वाक्य कैसे याद नहीं हुए? युधिष्ठिर वोले गुरुदेव ये दोनों वाक्य भला इतनी शीघ्र कैसे याद हो सकते हैं ये वाक्य तो जीवन को जीने से और इनका पालन करने से ही याद होंगे और गुरु देव ने उन्हें गले लगा लिया और वो धर्मराज हुए !अत धर्म और धर्मांतरण के नाम लड़ना किसी धर्म का पालन नहीं और दरअसल धर्म का कोई नामकरण ही नहीं हैं ये तो चैतन्य हैमित्रो धर्म के मर्म को समझो और धर्मांतरण या धर्म के पालन और उसके तत्व के ज्ञान में विभेद करना सीखो , ध्यान रखो सत्य और धर्म चैतन्य है ,स्वभाव है, जीने का नाम है , कोई दिखावा नहीं ........

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