Saturday 14 February 2015

दिल्ली के किनारों तक!!!

११ फरवरी को एक अरसे के बाद नुक्कड़ नाटकों के साथ जुड़ने का मौका मिला। जी हाँ, निगोड़ी नौकरी ना जाने कहाँ इस सपने को लीलने की तैयारी में थी। वो कहते है ना की जब आपको अपने सपने का होश हो तो बाकी दिक्कतें कहीं काफूर हो जाती है।

आख़िरकार जैसे ही मुझे इस बात का एहसास हुआ, मैंने उस दिन को ये नहीं सोचा की कहाँ और कैसे पहुँचूँगा। पहला नाटक हमने किया एक कॉलेज में, दुःख की बात ये थी की मैंने वो नाटक पहले नहीं किया था। सो बैकस्टेज ही करना सबसे उचित लगा। इसी बहाने कुछ नया सीखा। पहली बार मैंने कैमरा या यूँ कहूँ की कैमकोर्डेर को अपने हाथों में थामा। इसके लिए मैं अपने एक सहनाटक कर्मी गौरव पाँचाल का आभारी हूँ की उन्होंने अपने इस यंत्र का प्रयोग मुझे करने दिया।

लगा की जैसे मुझे कितनी बड़ी चीज़ मिल गई है, कितनी बड़ी ख़ुशी। उसको हाथ में थामे मैं साथ वाली बिल्डिंग के पहले माले में खड़ा अपने साथियोँ के अद्भुत नाटक 'ज़िन्दगी' का फिल्मांकन कर पा रहा था। वो नाटक जो आपको प्रेरित करता है की आप जाए और रक्तदान करे। रक्तदान मतलब जीवनदान, महादान। मेरे अस्मिता थिएटर ग्रुप के साथियों ने बहुत ही अद्भुत रूप में इस सन्देश को लोगों के संग साझा किया। शिल्पी मैम, राहुल खन्ना जी, लतिन, तुषार तथा अन्य साथी कलाकारों ने बहुत ही अद्भुत रूप में इस सन्देश को पहुँचाने का प्रयास किया जो अति सराहनीय है।

लोगो के अभिवादन से इस बात की पुष्टि होती थी की हमारा सन्देश व्यापक रूप में पहुँच गया था। लोगों ने बात भी की। अपने अनुभव साझा किए। उन्हें बताया गया की कल उनके विद्यालय में रक्तदान शिविर आयोजित किया गया है, और वो ज़्यादा से ज़्यादा संख्या में पहुँच कर रक्तदान करें ताकि और लोगों की जानें बचाई जा सकें। इस दौरान मैं पहले माले से उनके बीच आकर अपने अधकचरे तरीके से दर्शक और हमारे कलाकारों के बीच की बातचीत के कुछ अंश कैद करने की कोशिश करने लगा।

उस दिन की यात्रा के अगले पड़ाव में हम एक और विद्यालय में गए जहाँ हमने इसी सन्देश को पुनः बाँटा। एक नई जगह एक नया अनुभव, नए दर्शक पर वही सवाल, वही संकोच, वही बातचीत। बहुत ही सुखद अनुभव। वहाँ पर भी मैं अपने इस नए दोस्त के साथ अपने साथी कलाकारों के उस विद्यालय के छात्रों के साथ के संवादों को कैद करने में लग गया। बहुत ही अद्भुत अनुभव था। कुछ ऐसा जिसके बारे में शब्दों में कह पाना असंभव है।

अपने दिन के अंतिम पड़ाव में हम दिल्ली के दूर इलाके बवाना को रवाना हुए। अलग अलग बसों में सफ़र करते और एक आर.टी.वी. के सहारे हम वहाँ पहुँचे। आखिरकार जब हमने वहाँ अपना 'मर्द' नाटक शुरू किया तो फिर से ये साथी मेरे हाथ में आ गया, मगर एक वक़्त तक इस्तेमाल होते होते मेरे दोस्त ने जवाब दे दिया मगर मैंने जो कुछ उस दिन समझा वो कभी जवाब नहीं देगा बल्कि एक अनुभव बनकर मेरे साथ रहेगा। अद्भुत।

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