Thursday 22 January 2015

जबाँ/ अमित शुक्ल

ये कविता एकाएक मेरे जहन में आई कुछ ख्यालों का मूर्त रूप है। आनंद उठाइए।

जबाँ,
है नहीं हड्डियाँ इसमें पर,
रिश्तों को तोड़ने का दम रखती है,
सोच समझ कर बोलिए क्योंकि,
सोचने का काम नहीं करती है,

क्या दिल में, क्या दिमाग में,
ये दोनों की खबर रखती है,
ज़िन्दगी के नाज़ुक डोर को,
मरोड़ने का हुनर रखती है।

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