Sunday 21 December 2014

आज कहाँ है दामिनी?


२ साल पहले जब १६ दिसंबर को ये दर्दनाक वाक्या पेश आया था, उस पल लोगों ने बहुत शोर किया, प्रदर्शन किया, लाठी चार्ज सहा, और चंद ही वक़्त बाद, आज हम कहाँ है?

जैसे जैसे १६ दिसंबर  की तारीख पास आती गई, लोगों का गुस्सा वापस बढ़ता गया, और उस तारीख पर, सब आ गए, सड़को पर, अपना रोष दिखाने, खुद को फेमिनिस्ट कहलवाने, और फिर वहां से हटते ही? आप आलम देखिये की लोग १६ दिसंबर को इतने ज़्यादा जागरूक हो जाते है, कि वो जंतर-मंतर पहुँच जाते है, अपना रोष दिखाने,  और मीडिया वाले भी, उस दिन कोशिश करते है की हर एक कवरेज हो सके, ताकि उनके चैनल और अखबार में ये कहा जा सके की 'आपने सबसे पहले यहाँ देखा', या 'यहाँ पढ़ा', मगर आज उस घटना के २ साल और ५ दिन बाद हम कहाँ है? क्या आज हममे से कोई इस बारे में बात कर रहा है? नहीं? क्यों? क्यूंकि आज मीडिया नहीं है, उस मुद्दे पर बात करने के लिए, आज शक्लें नहीं आएँगी अखबारों में, टी.वी. में, आज लोग किसी और मुद्दे पर व्यस्त है, और हमारे लिए आज वो एक बेमानी सी बात हो जाती है. आजकल टी.आर.पी. का ज़माना है साहब, आज जो टी.आर.पी. दे रहा है वो है एक नया मुद्दा, आज दामिनी का मुद्दा उतना काफी नहीं लगता, इसलिए देखिए ना, आज उसपर कोई बात भी नहीं करता। एक दिन, या यूँ कहूँ की एक तारीख को सब जाग उठते है, सबको होश आता है, वुमन एम्पावरमेंट का, और बाकी दिन, सुसुप्त।

आज 'दामिनी' के पिता को सरकार की ओर से मुआवज़ा मिल गया, मगर उस लड़के का क्या, जिसने उसकी अस्मत बचाने के लिए जी जान लगा दी? आज वो कहाँ है? क्या उसकी किसी को सुध है? देखिये ना, बड़े बड़े फेमिनिस्ट आए, १६ दिसंबर को अपनी रोटियाँ 'दामिनी' के मृत शरीर पर सेकी और चल दिए फिर अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में शामिल होने के लिए. देखिए ना उसके इन्साफ को मांगने के लिए लोगों का हुजूम निकल पड़ा, मगर उसको एक कपडा पहनाने और अस्पताल पहुँचाने के लिए एक हाथ भी ना बढ़ा.

आजकल फ़ास्ट फॉरवर्ड होने का ज़माना है साहब, लोग एक दिन पहले की बात भूल जाते है फिर ये तो २ साल ५ दिन पुरानी बात हो गयी, इसकी सुध किसे होगी?

उस 'दामिनी' को तो हम बचा नहीं सके, मगर गर हो सके तो अपने आस पास हर दिन तिल तिल कर मर रही दामिनियों को बचा सके, तो ये उस वीरांगना को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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