यकीनी तौर पर इसमें कोई शक नहीं की हम सबको अपने रास्ते तलाशने पड़ते है, वो रास्ते जो कहीं जाते है, जो अपना ठिकाना जानते है, मगर हमारे आने का रास्ता देखते है. यकीन जानिए बीते शनिवार को अस्मिता थिएटर का नाटक रास्ते देखा और देखकर स्तब्ध था. वो अद्भुत अभिनय, वो शब्दों का चयन, वो घटनाऍ जिनके बारे में बहुत पढ़ना पड़ेगा, वो दमदार अभिनय गौरव मिश्रा जी का, वो कश्मकश में फसी शिल्पी मरवाहा का चरित्र, वो माधव जो उसकी यात्रा के बारे में पढ़ लेता था, वो बातचीत, जो की उन पत्रो का चित्रण था, जो की उसने अपने बाबा को लिखा था. वो जो की एक मार्क्सिस्ट है, जिनके लिए दुनिया मार्क्सिस्म से ही बेहतर बनी हुई है.
ओह वो कश्मकश दुर्गा के बाबा की जो की अपनी बेटी के बारे सब कुछ जानते हुए भी जड़वत है, क्यूंकि उन्हें पता है की अगर उन्होंने अपने आंसूँ का बाँध तोड़ दिया तो एक सैलाब आ जाएगा. उनके वो पुराने दोस्त, जो उनके जीवन को अर्थ देते थे.
यकीन मानिए, मिश्रा जी के वो अंतिम अलफ़ाज़ पड़ते समय, वो दर्द, वो पीड़ा साफ़ झलकती थी. मेरे रोंगटे खड़े कर दिए उन्होंने. सच में, इस वक़्त लिख रहा हूँ, और कल भी लिखा था (मगर ब्लॉग कही उड़ गया),मेरे रोंगटे तब भी खड़े हो गए थे, और अब भी.
अंत में यहीं कहूँगा,'रास्ते हम सब के पास होते है, पर तलाशने पड़ते है'
ओह वो कश्मकश दुर्गा के बाबा की जो की अपनी बेटी के बारे सब कुछ जानते हुए भी जड़वत है, क्यूंकि उन्हें पता है की अगर उन्होंने अपने आंसूँ का बाँध तोड़ दिया तो एक सैलाब आ जाएगा. उनके वो पुराने दोस्त, जो उनके जीवन को अर्थ देते थे.
यकीन मानिए, मिश्रा जी के वो अंतिम अलफ़ाज़ पड़ते समय, वो दर्द, वो पीड़ा साफ़ झलकती थी. मेरे रोंगटे खड़े कर दिए उन्होंने. सच में, इस वक़्त लिख रहा हूँ, और कल भी लिखा था (मगर ब्लॉग कही उड़ गया),मेरे रोंगटे तब भी खड़े हो गए थे, और अब भी.
अंत में यहीं कहूँगा,'रास्ते हम सब के पास होते है, पर तलाशने पड़ते है'
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