Tuesday 9 September 2014

इंसान क्यों वापस है जानवर बनता


ये वही देश है जहाँ पर पैसे को लक्ष्मी, ज्ञान को सरस्वती देवी की कृपा कहा जाता है. ये वही देश है, जहाँ आज से कुछ दिनों बाद एक ९ दिन का त्यौहार मनाया जाएगा, जिसमे एक स्त्री (माफ़ कीजियेगा मगर कई लोग इन्हे देवी भी कहते है) के ९ रूपों का गुड़गान किया जाएगा. वहां कहा जाएगा की इस देवी ने इसका वध किया, या ये फलां चीज़ को देने वाली देवी है, मगर वही असलियत में उस देवी का क्या हाल है, चलिए इससे भी आपको रूबरू करते है, वैसे शायद ज़रुरत नहीं, क्यूंकि आप सब जानते ही है, मगर फिर भी.

वो लड़की जो जीना चाहती है उसको कोख में ही मार दिया जाता है, उसको पैदा होने के बाद भी ज़िल्लत सहनी पड़ती है, क्यूंकि बेटे को सारी सहूलियतें जो देनी है. हम सब इन बातो को जानते है, सुनते है, मगर कभी ध्यान नहीं देते, और दे भी क्यों, हमें लगता है की ये हमारे घर की बात नहीं हो रही है, दूसरे की है तो हमें इससे क्या?

इनमे से कुछ आपको ऐसे भी मिलेंगे जो उस वक़्त जब आपको ऐसा कुछ दिखाया जाएगा तो बहुत क्रन्तिकारी बातें कहेंगे, मगर पलटते ही, उलटी सीढ़ी बातें, और बकवास करेंगे. आज का समय मुखौटो का है, और आप देखिए ना, हर दिन, चाहे वो सुबह हो या शाम, दिन हो या रात, चाहे अखबार हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, आपको बलात्कार की, छेड़छाड़ की, भ्रूण हत्या की, दहेज़ हत्या की, सम्मान के लिए हत्या,एसिड अटैक की खबरें ज़रूर मिल जाएँगी.

मैं ये पूछता हूँ की क्या हम एक ऐसा समाज बनाना चाहते है, जहाँ लड़कियों को चलने से पहले सुरक्षा की जरूररत पड़े, जहाँ उसे लगे की हम क्या वाकई एक आज़ाद देश की नागरिक है, और फिर भला ये कैसी स्वाधीनता है. मुझे तो ये स्वाधीनता नहीं लगती, मुझे तो ये बस मुखौटे का फर्क दिखता है,क्यूंकि देखिए ना, जहाँ तालिबान लड़कियों की उन्नति को रोकता है, उनपर बंदिशे लगाता है, हम भी तो वही करते है, बस फ़र्क़ ये है की वो बेखौफ कहता है, क्यूंकि उनके वहाँ अराजकता है, और हमारे वहाँ लोकतंत्र. हम भी तो लड़कियों पर बंदिश लगते है, की 'ये पहनो, वो नहीं', 'इससे मिलो, उससे नहीं', 'इतने बजे तक घर आ जाओ, इसके बाद नहीं'. यही सवाल हम लड़को से क्यों नहीं पूछते? कुछ ऐसे ही सवाल उठता है अस्मिता थिएटर ग्रुप का नाटक दस्तक:



देखिए ना, एक लड़की का बलात्कार हो जाता है, जो २.५ साल की थी, तो कभी ९० साल की एक बुज़ुर्ग के साथ दुर्घटना हो जाती है. कभी कोई अपनी पडोसी की लड़की या पत्नी के साथ, या कोई रिश्तेदार की किसी महिला के साथ दुष्कर्म करता है. ये क्या होता जा रहा है?

जब १६ दिसंबर की वीभत्स घटना हुई तो क्या हुआ? लोग सड़को पर आये, कुछ महीने ज़ोर शोर से विरोध हुआ, मीडिया न्यूज़ डिबेट हुई, सेशंस लगे, कड़े कानून की बात हुई,पर अब सब ठंडा, क्यों, क्यूंकि गुनहगार सलाखों के पीछे है और अपने अंजाम की ओर. लोगों ने कहा की उनको फाँसी दे दो, उससे ऐसी घटनाएँ कम होंगी, मगर क्या वाकई ऐसा हुआ है, या ऐसा होगा? यदि सत्य देखा जाए तो ऐसी घटनाएँ नहीं रुकी थी, ना रुकी है. आज भी प्रतिदिन किसी ना किसी बच्ची के साथ दुष्कर्म की घटना होती है, और हम पुलिस, प्रशाशन को दोष देते है. हम ये क्यों भूल जाते है की उस वक़्त हम वहां होते है, हम मतलब आम इंसान ('आम आदमी' राजनीतिक शब्द हो गया है). जब दो बच्चियों को दुष्कर्म के बाद पेड़ से लटका कर मार दिया गया, हम सब फिर उठे, फिर अपने आपको दिखाने के लिए, और फिर चंद ही दिनों के बाद फिर अपनी ज़िन्दगी में खो गए.

वास्तविकता को स्वीकारना हमारी फिदरत में नहीं है, की हम सब वो लोग है, जो खुद से नहीं किसी के कहने से उठते है. हम खुद की चीज़ों के लिए भी तभी आवाज़ उठाते है, जब कोई हमें सपोर्ट कर दे. हम भूलने के बड़े आदी है, अरे हम भगत जी को भूल गए, बापू को भूल गए, उनकी बताई सीख और सोच को भूल गए. बस किया क्या है,उनके नाम पर राजनीति. किसी ने भगत सिंह सेना बना ली और जब भी ऐसा कोई वाकया हुआ तो उठ खड़े हुए, फिर सो गए. जब कोई प्रेम का इज़हार करने को आगे आया तो राखी बंधवा कर अपनी संस्कृति का हवाला दिया, और ना जाने क्या क्या?

अरे हम ये भूल रहे है की परिवर्तन जीवन का नियम है. अगर वो लड़कियाँ है, तो उन्हें भी जीने का हक़ है. अस्मिता थिएटर के ही संस्थापक अरविन्द गौड़ ये सवाल सही पूछते है, की १५ अगस्त १९४७ को जब आज़ादी मिली थी तो क्या सिर्फ लड़को को मिली थी, लड़कियों को नहीं? आज़ादी पूरे देश को मिली थी, एक समाज, एक तबके, एक धर्म, या जाती के लोगो को नहीं. 

हमें ये समझने की ज़रुरत है की वो जनक है, जननी है, आदिशक्ति है( यहाँ मैं ये स्पष्ट कर दूँ, की मैं कही से भी आस्तिक नहीं हुआ हूँ). ज़रुरत है की हम उनको वो सम्मान दे जिसकी वो हक़दार है, और हाँ भीख में नहीं, या इस उम्मीद में नहीं, की हमें भी वही मिले, बल्कि इसलिए, क्यूंकि वो उसके योग्य है.

सोचिए

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