Saturday 5 July 2014

अस्मिता थिएटर में मेरे शुरूआती दिन

समय हवा से भी तेज़ी से बहता है, या फिर यूँ कहें की उससे भी कहीं ज्यादा तेज़ी से बहता है, तो कुछ गलत नहीं होगा। मुझे आज भी याद है वो दिन जब मैंने थिएटर करने की सोची। वैसे कोई भी होता तो ये कहता कि 'मियाँ कहाँ जब ३० बरस में नौटंकी करने चले हों,अब तो समय हैं शादी करने का,सेटल होने का, और परिवार के साथ साथ वंश आगे बढ़ाने का, अब कहाँ ये ड्रामा- श्रामा करने चले हों', मगर शायद कही दिल के अँदर कुछ था, एक सपना जो बचपन से दिल में कही बसता था, जो अभिनय करना चाहता था, जो स्टेज या कैमरा के सामने परफॉर्म करना चाहता था, लोगो के चेहरों पर ख़ुशी लाना चाहता था, मगर १६ बसंत देखने के साथ ही ये सपना आई.आई.टी. के सामने कही घुटने टेक चुका था. ज़िन्दगी के इस सपने ने कहीं एक अधमरी सी साँस ली , और ज़िन्दगी के नाकाम हिस्सें और किस्सों में जाकर आराम करने लगा, मगर हमेशा के लिए वही रहकर दफन होने के लिए नहीं। इस दबी हुई हालत में भी वो कभी कभी रह रह कर सिसकियाँ भरता रहता था, मुझे आवाज़ देता रहता था, की में अभी कब्र में दफन नहीं हुआ हूँ, बस एक कोने में कुछ वक़्त के लिए आराम कर रहा हूँ. सिर्फ तब तक,जब तक उसमें वापस से खड़े होने की ताकत नहीं आ जाती.

आई.आई.टी. में पहुँचने का सपना जब साकार ना हुआ तो फिर अंदर से उबाल मारते हुए कई बार वो मुझे कचोटता, मुझे प्रेरणा देता की कुछ करो, मैंने भी प्रेरणा लेकर पत्राकारिता के लिए आवेदन कर दिया, सोचा लगातार पढता रहता ही हूँ लेटेस्ट घटनाओ के बारे में कहीं ना कहीं से, तो करंट अफेयर्स तो पास कर ही लूँगा, बाकी बची एडमिशन की प्रक्रियाएं भी पार ही हो जाएँगी, मगर वक़्त के बन्दर ने कुछ ऐसी गुलाटी मारी कि ये सपना भी जाता रहा. एक अजब से ग़म ने जकड़ लिया, लगा जैसे कोई भी सपना साकार नही होगा। इसी ग़म में और नौकरी कि जद्दोजहद में नौकरियां ढूंढ ही रहा था, की एकाएक एक ख्याल कौंधा, ख्याल भी ऐसा जैसा दूसरा कोई नहीं,'क्यों न थिएटर के बारे में ढूँढा जाए?' ये ख्याल आते ही जैसे सारा ग़म काफूर सा हो गया, लगा जैसे मेरे अंदर के दर्द को किसी ने थामने की बात कह दी हो, जैसे कोइ रास्ता अपने आप मेरे सामने खुल गया हो.

फिर से उंगलियां चलने लगी या यूँ कहूँ कि दौड़ने लगी तो कुछ गलत ना होगा। उस पर बाबा गूगल ने इतने सटीक परिणाम दिखाए की बांछे खिल उठी. आज भी याद है की कुल ५ थिएटर ग्रुप्स का नाम सामने आया, ३ को तो वही पर ही सलाम करके आगे बढ़ चला, बाकी बचें २ थिएटर ग्रुप्स, एक का नंबर नही मिला क्यूंकि वो नॉट रीचब्ल था, और आखिरी था अस्मिता थिएटर ग्रुप। इत्तेफाक कहें या समय की बन्दर क़ी गुलाटी कि उसी दिन उनका एक नाटक 'आपरेशन थ्री स्टार',इंडिया हैबिटेट सेंटर में हो रहा था, शाम को कोइ काम ना होने की कारण ये एक अच्छा मौका था लाइव उस चीज को देखना जिसे में बचपन से करना चाहता था, और ये भी पता चल जाएगा की क्या मैं सिर्फ मुंगेरीलाल के सपने ही देख रहा था, या ये वाकई में मैं कर सकता हूँ. खैर ख्यालों के इस मकड़जाल से निकलकर मैं शाम को नाटक देखने पहुँचा। अब देर से तो पहुँचना ही था, क्यूँकि मैंने कभी आई.एच.सी. का नाम भी नहीं सुना था,देखना तो दूर की बात है. जैसे कैसे गिरता पड़ता मैं पहुँचा तो शुक्र है अभी पहले गाने की शुरुआत ही हुई थी. पूरा नाटक देखा, पहले पहल थोड़ा अटपटा लगा, फिर समझ आया की मैं तो ऐसे सोच रहा हूँ जैसे मैं तो इस शैली का महारथी हूँ, और सब कुछ जानता हूँ. खैर जैसे ही भ्रम का झरोखा टूटा, तो मैंने पुनः नाटक का आनंद लेना आरम्भ किया।

खड़े होकर तालियाँ बजाना, शायद इससे बड़ा सम्मान एक कलाकार को नहीं प्राप्त हो सकता,उस दिन नाटक के बाद मैंने भी सबके लिए खड़े होकर तालियाँ बजाई। खैर मैं बिना किसी से बात किये, अपने घर आ गया, विवेचना करने लगा, और इसी ख्याल ने ३ दिन और रातों का समय ले लिया. अंत में निश्चय करके मैंने अस्मिता थिएटर ग्रुप ज्वाइन किया।

कुछ महीनों तक लोगों को अभिनय करते देखता,सीखता और बस खुद में कहीं खो जाता। फिर कुछ महीनो के बाद एक दिन जब टीम नुक्कड़ नाटक करने जा रही थी, तब मुझे बैकस्टेज के लिए चुना गया. क्या सोच थी, क्या आलम था, क्या भावनाओ का गुबार सा उठ रहा था, बयान नहीं कर सकता! और वैसे भी बयान करते करते इतनी दूर आ चूका हूँ की अब आप सबको और बोर नहीं करना चाहता। आप को छोड़े जाता हूँ मेरे शुरूआती दिनों, या यूँ कहूँ की अपने पहले बैकस्टेज काम की तस्वीरों के साथ. मेरा ब्लॉग पढ़ने और मेरी यात्रा संग यात्रा करने के लिए धन्यवाद।

आशा करता हूँ की आप अपनी भावनाएँ कमेंट्स के माध्यम से व्यक्त करेंगे!


































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