Wednesday 9 September 2015

रीढ़ की हड्डी / अमित शुक्ल

मेरे अपने लिखे हुए शेर:

रीढ़ की हड्डी होना ज़रूरी है,
तलवे चाटने की क्या मजबूरी है,
खुद में बेहतर होते चलो हर पल,
सुना है चमचो की उम्र होती थोड़ी है - शुक्ल

रंज है गर दिल में,तो खुल के कह दो,
यूँ घुट घुट कर रहना हमें अच्छा नहीं लगता,
दिल की बात कह दोगे तो दर्द कम हो जाएगा,
चिंगारी कब शोला बन जाए,पता नहीं लगता' -शुक्ल

Tuesday 8 September 2015

सब कुछ बिक रहा है / अमित शुक्ल

ये मेरी एक कविता है, आशा करता हूँ आपको पसंद आएगी।

सब कुछ बिक रहा है,
ईमान बिक रहा है,
इंसान बिक रहा है,
काले को गोरा बनाने का,
सामान बिक रहा है,
सोच बिक रही है,
शहीदों का तो देखो यारों,
कफ़न भी बिक रहा है,
सब कुछ बिक रहा है,
रैप बिक रहा है,
एप बिक रहा है,
कला तो नहीं आजकल,
जिस्म दिखाने वालियों का,
जिस्म बिक रहा है,
आस्था बिक रही है,
श्रद्धा बिक रही है,
मूर्ति के रूप में दुकानों में,
भगवान बिक रहा है,
सच बोलना तो भूल चुके,
हकीकत से नाता तोड़ चुके,
आजकल तो देखो मीडिया में,
झूठ बिक रहा है,
फेसबुक पे बिक रहा है,
गूगल पे बिक रहा है,
आजकल तो सच भी,
बेईमानी में बिक रहा है,
- शुक्ल