Thursday 30 April 2015

इंसानी जीवन का सच

निशांत जी के ब्लॉग से साभार

हम  इंसान अपने बजूद को जिन्दा रखने के लिए जिंदगी भर लड़ते है एक दूसरे से लड़ते , परस्थितिओं  से लड़ते है और कभी- कभी पीढ़ी दर्द पीढ़ी लड़ते है अपने होने के बजूद हम इंसान जमा कर जाते है बिलकुल मुन्नवर राणा साहव के शेर की तरह ...

मुमकिन है मेरे बाद की नस्लें मुझे  ढूंढ़ें
बुनियाद में इस नाम का पत्थर भी लगा दो.

लेकिन ये प्रकृति जिसके गोद में हम पल रहे है ये भी चुपचाप हंसती होगी  और फिर एक दिन  एक झटके में हमारे बजूद को मिटा जाती है और हम फिर से जुट जाते अपने बजूद को बनाने में ! यही इंसानी जीवन होने का संघर्ष है हम मिटते है बनते और फिर बनते है  !!

Monday 27 April 2015

बाबरे मन लौट आ ...

मेरे मित्र निशांत यादव जी के ब्लॉग से साभार


बाबरे मन लौट आ आवारगी के दिन गए ।                                            
देख लंबा रास्ता , अब मस्तियों के दिन गए ।। 

राह पथरीली मिले या फ़ूल की चादर मिले ।
चल समय पर छोड़ दे , पर बाबरे मन लौट आ ।।

चुन लिया है फूल को काँटों के संग इस राह में ।
कौन जाने छोड़ दे  ...  एक  साथी वास्ता ।।

राह फूलों की चुने , सब काँटों से किसका वास्ता ।
नींद सुख की सब जियें , दुःख से है किसका वास्ता ।।

आ अंधेरो से लड़े , अब रौशनी की लौ लिए ।
चल जला दें  राह में रौशन किये लाखो दीये ।।

छोड़ दे अब साथ उसका जिसने अँधेरे दिए ।
बाबरे मन लौट आ आवारगी के दिन गए ।।

रौशनी की एक लौ है काफी ,  मन के अँधेरे तेरे लिए ।
देख फिर भी लाया हूँ मैं , आशा के लाखो दीये ।।

फिर से न विखरेगा तू , आज ये वादा तो कर ।
देख ले आया हूँ मैं, निशाँ मंजिलो के ढूंढ कर ।।

लौट आ अब देख ले , जिंदगी दरवाजे खड़ी ।
बाबरे मन लौट आ , आवारगी के दिन गए ।।

........निशान्त यादव

Friday 24 April 2015

तन उजियारे, काले मन

http://www.nishantyadav.in/2015/04/blog-post_24.html

माया और काया पर निर्भर है व्यक्ति यहाँ ।
तन का रंग सब देख रहे मन के रंग से अनिभिज्ञ यहाँ ।।
माया काली ,उजियारे तन की माँग यहाँ ।
काले तन ,उजियारे मन को ले जाऊँ कहाँ ।।
हे ! कृष्ण बताओ क्या  तुमने भी झेला दंश यहाँ ।
देखो रंग, प्रेम पर भारी , हे ! कृष्ण यहाँ ।।
रंगो के इस भेद भाव में जीती दुनिया सारी ।
माया के काले  पाश बंधी दुनिया सारी ।।
हे ! शनि काला रंग अपना ले जाओ ।
या फिर माया पाश  से मुक्ति दे जाओ ।।
मन के काले जग में उजियारा मिले कहाँ ।
हे ! सूर्य कृपा कर उजियारे मन कर जाओ ।।
हे ! चंद्र रात्रि से लड़ जाओ ।
सब काले मन उजियारे से भर जाओ ।।

Monday 20 April 2015

दहेज़

ये कविता मैने तब लिखी थी जब मैं ७वी या आठवी कक्षा में था। आशा करता हूँ आपको पसंद आएगी।



दहेज़
दहेज़ तूने कितनो की सेज़,
को अर्थी में बदल दिया,
कर दिया तूने कितनी,
माओ की कोख़ सूनी,
आँचल उठा के रो रही है,
अब उनकी आँखें रोनी,

क्या उनका कसूर था,
क्या उनका गुनाह था,
क्यूँ कर दिया तुमने उनके,
जीवन का ख़त्म प्रवाह था,

क्या धन ही है,
सबकुछ तुम्हारे जीवन में,
क्या स्त्री का कोई मान,
नहीं तुम्हारे जीवन में,

क्यूँ भूल जाते है हम,
की जो आज हमारी बहू है,
वह किसी की बेटी है,
और जो आज हमारी बेटी है,
कल वो भी किसी कि बहू होंगी,

क्यूँ होता है यह फर्क,
क्यूँ है ये दहेज़ का नर्क,
क्या कभी समाप्त हो पाएगा,
यह बहूँ-बेटी का फर्क,

क्या ये सोच है प्रधान,
या है ये कोरा ज्ञान,
की जो बन आई बहूँ,
वह है पैसे की खान,
क्या इस विकृत सोच से,
बना दिए है घर शमशान,

संस्कारों की बलि-वेदि पर,
कब तक होंगी बेटियाँ कुर्बान,
कब तक कल्पनीय भय से,
हम सहते रहे यह अपमान,

बदल सकता यह रूप तभी,
जब बहूँ का दर्ज़ा हो बेटी समान,
जब सिर्फ बेटी ही नहीं बल्कि,
बहूँ का भी हो सम्मान,

तब पिता भी यह कह सकेगा,
जाओ खुश रहो बिटिया रानी,
सास करेगी माँ सा प्यार,
तब सत्य होगी यह कहानी।
                                            -अमित शुक्ल


Wednesday 15 April 2015

किसान पस्त, पी.एम. मस्त


ये २०१५ का भारत है साहब, जी हाँ, वही भारत जिसमे अच्छे दिन लाने का सपना लोगबाग को दिखाकर मोदी साहब देश के प्रधानमन्त्री बन गए। प्रधानमंत्री मतलब देश का केंद्र बिंदु। प्रधानमंत्री मतलब लोगों की तकलीफों को समझने वाला, उनका निवारण करने के तरीके बनाने वाला, मगर क्या ऐसा है?

पिछले कुछ वक़्त का हाल देखें तो ये साबित हो जाता है की देश में उसके अन्नदाता को उचित मूल्य नहीं मिल रहा है। जो किसान कभी लोगो की पेट की आग बुझाने के लिए दिन-रात,सुबह-शाम अपने खेतों में काम करते थे वो अब इस ख्याल से ख़ौफ़ज़दा है की कहीं बिगड़े मौसम और सरकार की अनदेखी के कारण वो अपने लगाए हुए पैसे भी पा पाएँगे या नहीं?

जी हाँ, शायद आपको इस बात का अंदाजा नहीं होगा की पहले तो ये किसान अपनी जमा पूँजी लगाकर अपने खेतों में फ़सल उगाते है, फिर उसे मिल में जमा करा देते है, क्योंकि वो एक वक़्त के बाद ही उन्हें पैसा देते है, और वो भी कौड़ियों के भाव। इस साल किसानों को लगभग ३ रूपए पर किलो का भाव मिल रहा है, जो की इस अन्नदाता के लिए एक तमाचा ही है।

आखिर जिसने अपना खून पसीना लगाकर इसको उगाया है उसे ही उसकी चीज़ से महरूम कर दिया जाए तो ये गलत होगा या नहीं? इस पर कमाल ये की जब ये किसान अपना हक़ लेने सरकारी अधिकारी के पास जाते है, तो उनसे रिश्वत मांगी जाती है, और मुआवज़े के नाम पर मिलता कुछ नहीं।

'कल तक जो अन्नदाता था, वो आज भिखारी बना बैठा है,
है किसान का ख्याल नहीं, ये कौन उल्लू सरताज बना बैठा है।'- शुक्ल

आगे शायद कहने की ज़रुरत नहीं की इतने बुरे वक़्त में, जब देश के प्रधानमन्त्री को स्वदेश में होना चाहिए, वो विदेश की सैर कर रहे है, बड़े बड़े होटलों में खाना खा रहे है, और किसान भूखों मर रहा है, या खुद को मार रहा है, क़र्ज़ के कारण, मुफलिसी के कारण।

उम्मीद है की इस बार राशन खराब नहीं किया जाएगा, या खुले में सड़ने को नहीं ड़ाल दिया जाएगा।

Tuesday 14 April 2015

अम्बेडकर-गाँधी के विचारों का मंचन

आज बाबासाहेब की जयंती है। आज बहुत से कार्यक्रम होंगे, मगर कल देर शाम अस्मिता थिएटर द्वारा जे.एन.यू. में राजेश कुमार द्वारा लिखित 'अम्बेडकर और गाँधी' का मंचन किया गया। मैं भी वहाँ कल दर्शक दीर्घा में था और सोच रहा था की इन दो महान हस्तियों के चरित्रों को एक साथ एक मंच पर देखना या दिखाना बहुत ही अनूठा अनुभव होगा।

यकीन मानिए मेरा अंदाज़ा गलत नहीं था। अस्मिता के वरिष्ठ अभिनेता बजरंगबली सिंह ने जैसे ही स्टेज पर बाबा साहब का चरित्र निभाना शुरू किया, मेरे रोंगटे खड़े हो गए।

एक अद्भुत वार्तालाप का माहौल बन गया, जिसमे बापू और बाबा साहब के बीच अश्पृश्यता के मुद्दे पर बहस शुरू हुई, एक बातचीत, विचारों का आदान प्रदान आरम्भ हुआ। वो बातचीत, जिसमे अस्पृश्यता को मिटाने की बातचीत थी, वर्ण व्यवस्था पर मतभेद था।

यकीनी तौर पर दोनों ही लोग बहुत ही शक्तिशाली प्रतीत होते है, मगर ये कहना गलत नहीं होगा की बाबासाहब वाकई में बहुत ही शक्तिशाली लगते है। इसका ये तात्पर्य नहीं की बापू कहीं से कमज़ोर थे, वो बस अपने विचारों को बहुत ही अलग रूप से प्रस्तुत करते थे।

रमाबाई का किरदार कर रही शिल्पी मारवाह का संवाद बहुत ही सुन्दर था,ख़ासतौर पर,

'आज तक महात्मा लोगों के प्राण बचाते थे, आप तो स्वयं महात्मा के प्राण बचाने जा रहे है।'

बाबासाहेब के इतने सारे और शक्तिशाली संवाद है की यदि उन्हें लिखने बैठा, तो रात से सुबह हो जाएगी। बापू के रूप में गौरव मिश्रा जी ने ये फिर साबित किया है की आप किसी भी किरदार में जान फूँक देते है। बापू का सधा हुआ चरित्र और व्यक्तित्व निभाने में उन्होंने कमाल कर दिया है।

सिर्फ नाटक के अंतिम संवाद पर मुझे थोडा सा कहना है, की बाबासाहेब ने बापू की मृत्यु के लिए हत्या शब्द का इस्तेमाल शायद कभी भी अपनी लेखनी और बातों में नहीं किया है, किन्तु नाटक के अंतिम संवाद में 'हत्या' शब्द का इस्तेमाल किया गया है। यदि लेखक और निर्देशक इसपर ध्यान दे दें तो अति कृपा होगी।

Monday 13 April 2015

हानूश की कहानी, मेरी ज़बानी

हानूश की कहानी देखने और पढ़ने में एक आम सी कहानी लगती है मगर ध्यान देने पर लगता है की ये हम सब की ज़िन्दगी की कहानी है। एक कहानी जिसमे एक इंसान का जुनून, उसकी लगन, उसकी मेहनत, उसको मिलने वाली दुत्कार और लक्ष्य प्राप्ति पर उसका सत्कार, ये सब शामिल है।

हानूश की कहानी मुझे मेरी ज़िन्दगी के उस दौर की याद दिलाती है जब मेरी ज़िन्दगी मुफलिसी में थी। जब लोगों ने मेरे सपने को पाने में रूकावट पैदा की। उससे आज भी जूझता हूँ मगर जिस ख़ूबसूरती से अस्मिता थिएटर के अभिनेता गौरव मिश्रा ने हानूश का किरदार किया, उसके मन की पीड़ा, उसका लगाव उस घडी के साथ दिखाया, वो काबिल-ए-तारीफ है।

ये घड़ी सिर्फ एक सांकेतिक प्रदर्शन है, घड़ी की जगह आप कुछ भी कह सकते है, वो आपका सपना हो सकता है, आपका प्यार हो सकता है, या कुछ और। आप अपने जीवन में जो भी करना चाहे वो पा सकते है, अगर आप उस सपने को, उस इच्छा को अपना सर्वस्व दे दें। जिस प्रकार हानूश ने मुफलिसी में १३ साल गुज़ार दिए, मगर अपने सपने को ओझल ना होने दिया, उसके पूरा हो जाने के बाद अपनी आँखों से भी महरूम हो गया, मगर घड़ी बनाने की चाह और उसकी टिक-टिक से उसका कभी मन नहीं भरा।

जब आप कुछ नया करना चाहते है तो तकलीफ़े आती ही है, ठीक वैसे ही जैसे हानूश एक ताले बनाने वाले से, एक घड़ी बनाने वाला बनने की कोशिश करने लगा और इसके लिए हर चीज़ को कुर्बान करने पर आमादा था। एक बड़ी सीख है इस कहानी में की गर आप कुछ पूरे दिल से करना चाहते है तो उसके लिए जोख़िम उठाना ही पड़ेगा और आपको उसके लिए तैयार रहना ही पड़ेगा। हानूश के पादरी भाई में भी एक बात थी। वो कहता है की उसने ड़र-ड़र कर ही जीवन बिताया है, और उसका जीवन बुरी तरह नहीं बीता है, वही दूसरी ओर उसका भाई है जो सब कुछ लुटा देने को तैयार है अपने सपने को पाने के लिए। एक ओर वो भाई है जो लोगों की परवाह करता है, और दूसरा जो सबसे बेखबर सिर्फ चिड़िया की आँख पर ध्यान लगाए हुए है।

जब गौरव मिश्रा ने वो किरदार किया और वो स्टेज पर आए तो मुझे लगा जैसे मैं भी स्टेज पर हूँ, मैं भी वही कह रहा हूँ जो वो कह रहे है, उनकी बातों ने मुझे अपने दिन याद करा दिए।

यक़ीनी तौर पर मैं भीष्म साहनी जी, गौरव मिश्रा जी, और अरविन्द गौड़ साहब को बहुत बहुत शुक्रिया कहना चाहूँगा की उन्होंने इतने अद्भुत नाटक को मंच पर प्रस्तुत किया।

Sunday 12 April 2015

मुफलिसी भी कमाल है

मुफलिसी भी कमाल है,
ये दौर बहुत बेमिसाल है,
उतरते है नकाब चेहरों से,
जब आप होते कंगाल है,
मुफलिसी भी कमाल है,

इस दौर की क्या सुनाए,
साथी दूर होकर दुत्कार लगाए,
जानते हुए भी पूछे मेरा हाल है,
मुफलिसी भी कमाल है,

एतबार करने वाले दगा देते है,
बाते करते है पीछे,देख भगा देते है,
देखकर कहते है क्यों हम भटेहाल है,
मुफलिसी भी कमाल है,

मदद पूछते है तो वो भिखारी समझते है,
एक परिवार कहते थे जो, अब पराया कहते है,
शुक्र है अपना परिवार नहीं कहता की आप कंगाल है,
मुफलिसी भी कमाल है,

खामख्याली से जागा हूँ, संभल गया हूँ,
बिखरने से पहले ही मैं सिमट गया हूँ,
असली-नकली की पहचान करा दी, ये धमाल है,
मुफलिसी भी कमाल है।

- अमित शुक्ल

Saturday 11 April 2015

पैसा ही सब कुछ है?

सच है साहब। पैसा ही सब कुछ है। ये वो बात है जो बच्चे माँ के गर्भ में ही सीख लेते है, मगर मैंने 31 साल में भी नहीं समझा। पहले मुझे लगता था की इंसान का चरित्र, उसकी परवरिश, उनके संस्कार बहुत बड़ी चीज़ है, मगर अब लगता है की नहीं, ये सब ख़ामख्याली थी। आज की दुनिया के लिए पैसा ही सब कुछ है।

बीते कुछ महीनों में जिस किस्म की पैसों की तकलीफ देखी है, ये कहना गलत नहीं होगा की ज़िन्दगी बस कुछ ऐसी ही हो चली है।

सबक सिखाकर वो पल चला गया। अब ज़िन्दगी अनुभव पर ही ज़िंदा है।

Thursday 9 April 2015

ये बेमौसम बरसात कितनी भयानक है

http://www.nishantyadav.in/2015/03/blog-post_30.html


ये बेमौसम बरसात कितनी भयानक है 
गरजते बादल दानव जैसे हैं काले घनघोर डरावने
मै अपनी लहलहाती फसल को देख कर कितना खुश था
बिजली सी लपलपाती तलवार से इसने
मेरी फसल और मेरे अरमानो का वध किया है
बाढ़ के रेलों ने मेरे घरो को उजाड़ दिया है
झेलम ,चिनाव गंगा कोसी सब इनके साथ हो ली हैं
मैं अकेला खड़ा हूँ निशस्त्र असहाय लुटा सा
हे ! ईश्वर मेरी बर्बाद फसल उजड़े घर के तरफ देखो
जवाव दो ! क्या ये दानव तुमने भेजा है
क्या बिजली सी लपलपाती तलवार तुम्हारे म्यान की है
जवाव दो ! निरुत्तर क्यों हर बार  की तरह
हे ! ईश्वर बादलो से कहो ये लौट जाएं
झेलम से कहो ये अपने प्रवाह को कम कर ले
और यदि ये तुम्हारी चुनौती है
तो मुझे स्वीकार है
मैं धरती का पुत्र हूँ हिमालय सा मेरा साहस है
मैं हर बार गिर के उठा हूँ
मैं फिर से उठ जाऊंगा
ये फसल फिर से उगेगी ,
यदि कभी धरती पर आओ
तो मेरा जवाव लाना
क्या ये दानव तुमने भेजा है

..निशान्त यादव....

Monday 6 April 2015

अंधेपन का कमाल देखिए

भारत चमत्कारों का देश है साहब, यहाँ हर चौक,चौराहे पर चमत्कार होते है। कभी फूल चढ़ाकर, कभी तेल तो कभी मिठाई और अगर इससे भी दिल ना भरे तो थोड़ी सी बख्शीश देकर। कभी पत्थरों को या उसके रखवालो को जो एक मंत्र पढ़कर और ५०० की पत्ती जेब में रखकर आपकी गाडी को हरा सिग्नल दे देता है।

ये वही देश है साहब जहाँ पर कुछ सालों पहले तक दर्जी का काम करने वाला लोगों को अजीब अजीब से नुस्खे बताकर, जैसे समोसे के साथ लाल चटनी खाने से कृपा आने लग जाएगी, एक अरबपति बन जाता है, और उसके वही तथाकथित भक्त भिखारी, क्योंकि गरीब तो वो पहले से ही होते है।

देखिए ना, ये वही देश है जहाँ पर बाबाओं के पास करोडो की दौलत चंद ही सालों में इकठ्ठा हो जाती है, जबकि उनके भक्तों की रही गई संपत्ति भी लुट जाती है।

यहाँ पर एक पंडित की इज़्ज़त एक प्रधानमन्त्री से ज़्यादा है क्योंकि यहाँ की राजनीति भी इनपर निर्भर होती है। दुःख की बात ये है की एक विकासशील देश में इस तरह की चीज़ से ज़्यादा बुरा क्या हो सकता है की बाबा लोग मुफ़्त में घर से खाने को कमा ले जाते है जबकि उसी जगह एक पसीने बहा कर काम करने वाला पाई पाई के लिए जद्दोजहद कर रहा होता है।

ये दुखद है की हम

'राम को मानते है, राम की नहीं मानते,
रामायण को मानते है, रामायण की नहीं मानते,
अल्लाह को मानते है, अल्लाह की नहीं मानते,
ग्रन्थ साहिब को मानते है, ग्रन्थ साहिब की नहीं मानते,
क्राइस्ट को मानते है, क्राइस्ट की नहीं मानते।

ज़रूरी है की हम अपने अंधेपन से बचे, वरना एक दिन इसी तरह हम मिट जाएँगे, क्योंकि अंध श्रद्धा नुकसान देती है।

Sunday 5 April 2015

जो चाहूँ, सो लिखूँ

पिछले कुछ दिनों से ब्लॉग पर आने वाले कुछ साथियों ने इस बारे में अपनी प्रतिक्रिया जाहिर की है की मैं बस औरों की चीज़ें या दूसरों की कृतियाँ अपने ब्लॉग पर क्यों साझा कर रहा हूँ?

मैं ये जानना चाहता हूँ की इस प्रकार की राय रखने के लिए तो आप आज़ाद है मगर मुझपर थोपने वाले आप कौन होते है। किसी ने अच्छा लिखा है तो उसको अपने ब्लॉग पर साझा करना क्या बुरा है। क्या कोई कृति किसी की बपौती है? नहीं ना। अगर किसी को अपनी बात पूरी तरह से कहने का समय नहीं मिला या वो बात ऐसी है की उसे और लोगों तक भेजा जाए तो इसमें बुरा क्या है?

अपने मत आप अपने जीवन में लगाए, दूसरों पर नहीं।