Saturday 27 December 2014
Tuesday 23 December 2014
क्या देश मोदी-मय हो गया है?
जब देश में धर्म परिवर्तन हो रहा है, नेता उलटे सीधे बयान दे रहे है, तो अमूमन नेताओ और प्रधानमन्त्री को माइक का तोहफा देने वाले पत्रकार कहाँ है?
Sunday 21 December 2014
आज कहाँ है दामिनी?
जैसे जैसे १६ दिसंबर की तारीख पास आती गई, लोगों का गुस्सा वापस बढ़ता गया, और उस तारीख पर, सब आ गए, सड़को पर, अपना रोष दिखाने, खुद को फेमिनिस्ट कहलवाने, और फिर वहां से हटते ही? आप आलम देखिये की लोग १६ दिसंबर को इतने ज़्यादा जागरूक हो जाते है, कि वो जंतर-मंतर पहुँच जाते है, अपना रोष दिखाने, और मीडिया वाले भी, उस दिन कोशिश करते है की हर एक कवरेज हो सके, ताकि उनके चैनल और अखबार में ये कहा जा सके की 'आपने सबसे पहले यहाँ देखा', या 'यहाँ पढ़ा', मगर आज उस घटना के २ साल और ५ दिन बाद हम कहाँ है? क्या आज हममे से कोई इस बारे में बात कर रहा है? नहीं? क्यों? क्यूंकि आज मीडिया नहीं है, उस मुद्दे पर बात करने के लिए, आज शक्लें नहीं आएँगी अखबारों में, टी.वी. में, आज लोग किसी और मुद्दे पर व्यस्त है, और हमारे लिए आज वो एक बेमानी सी बात हो जाती है. आजकल टी.आर.पी. का ज़माना है साहब, आज जो टी.आर.पी. दे रहा है वो है एक नया मुद्दा, आज दामिनी का मुद्दा उतना काफी नहीं लगता, इसलिए देखिए ना, आज उसपर कोई बात भी नहीं करता। एक दिन, या यूँ कहूँ की एक तारीख को सब जाग उठते है, सबको होश आता है, वुमन एम्पावरमेंट का, और बाकी दिन, सुसुप्त।
आज 'दामिनी' के पिता को सरकार की ओर से मुआवज़ा मिल गया, मगर उस लड़के का क्या, जिसने उसकी अस्मत बचाने के लिए जी जान लगा दी? आज वो कहाँ है? क्या उसकी किसी को सुध है? देखिये ना, बड़े बड़े फेमिनिस्ट आए, १६ दिसंबर को अपनी रोटियाँ 'दामिनी' के मृत शरीर पर सेकी और चल दिए फिर अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में शामिल होने के लिए. देखिए ना उसके इन्साफ को मांगने के लिए लोगों का हुजूम निकल पड़ा, मगर उसको एक कपडा पहनाने और अस्पताल पहुँचाने के लिए एक हाथ भी ना बढ़ा.
आजकल फ़ास्ट फॉरवर्ड होने का ज़माना है साहब, लोग एक दिन पहले की बात भूल जाते है फिर ये तो २ साल ५ दिन पुरानी बात हो गयी, इसकी सुध किसे होगी?
उस 'दामिनी' को तो हम बचा नहीं सके, मगर गर हो सके तो अपने आस पास हर दिन तिल तिल कर मर रही दामिनियों को बचा सके, तो ये उस वीरांगना को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
Wednesday 17 December 2014
पेशावर में खूनी संहार
पाठक अपने विवके से काम ले क्यूंकि तस्वीरें विचलित कर सकती है.
वहीँ हमारे और दुनिया भर के लोगों ने इसके प्रति संवेदना व्यक्त की है और मुजरिमों के लिए रोष.
In the wake of dastardly attack in Pakistan, I appeal to schools across India to observe 2 mins of silence tomorrow as a mark of solidarity.
— Narendra Modi (@narendramodi) December 16, 2014
Spoke to PM Nawaz Sharif over the telephone. Offered my deepest condolences on the dastardly terror attack in Peshawar.
— Narendra Modi (@narendramodi) December 16, 2014
India stands firmly with Pakistan in fight against terror. Told PM Sharif we are ready to provide all assistance during this hour of grief.
— Narendra Modi (@narendramodi) December 16, 2014
T 1709 - I can reconcile to the vilest of all deeds .. but I cannot reconcile to the death of 'innocence'
— Amitabh Bachchan (@SrBachchan) December 17, 2014
T 1708 - My Blog : http://t.co/Vkp8AEjFR5 DAY 2436 ... the innocence of children silenced !
— Amitabh Bachchan (@SrBachchan) December 16, 2014
Tuesday 16 December 2014
२ साल बाद हम कहाँ?
उस पल जब लोगों ने विरोध किया तो ये लगा की लोग जागरूक हो गए है. अब शायद इस देश का इतिहास बदलेगा और शायद बच्चियों और औरतों को उनका सम्मान मिलेगा. शायद अब देश में उनको बेहतर स्थिति मिलेगी. मगर क्या ऐसा हुआ? नहीं।
सबको याद ही होगा की किस तरह उसके बाद बदायूं में वाक्या हुआ, जिसे एक अजीब सी तहकीकात ने तबाह कर दिया, और उसके बाद ना जाने कितने ऐसे वाकए हुए जिसने ये साबित किया की चाहे आप कुछ भी कर लो, देशवासी नहीं सुधरने वाले. पिछले साल औरतों पर होने वाले और ख़ास तौर पर यौन शोषण के मामलो में बढ़ोतरी ही हुई. कई थे जो कह रहे थे की जैसे ही आप 'निर्भय' के दोषियों को सजा डोज, सब ठीक हो जाएगा, मगर क्या वाकई ऐसा होता या होगा?
जी नहीं, ये मुनेगरीलाल के सपने देखना बंद करते हुए हमें ये समझना होगा की ये किसी को फांसी देने से ठीक नहीं होगा, ठीक वैसे ही जैसे की कईयों ने कहा की चूँकि अब अन्ना और केजरीवाल जनलोकपाल के लिए संघर्ष कर रहे तो कुछ बदलेगा, और हर घर में संघर्ष हो रहा है तो कुछ बदलेगा, मगर क्या वाकई?
इस स्थिति में ये समझने की ज़रुरत है की कानून शायद उतना अलग नहीं कर पाएगा, जितना मानसिकता बदलने से कमाल हो पाएगा। इसलिए बड़ी बड़ी बातें करने और मीडिया में प्रचार पाने से अच्छा है की लोग सोच बदले, सोच बल्दे की लडकियां भी एक सामान है. जब लड़के सिगरेट पीते है तो लोग कहते है की टशन है, मगर लड़की पिए तो गलत है. लड़का देर से घर आये और नए नए दोस्तों के साथ आये तो चलन है, और लड़की आए तो बदचलन है.
सोच बदलने की ज़रुरत है. जागो भारत जागो।
Monday 15 December 2014
ब्लॉग पुनःस्थापित
आज ब्लॉग की विवेचना करने बैठा तो लगा की मैं जैसे अपने साथ और अपने पाठकों के साथ एक बेईमानी कर रहा था. इस बात का बेहद दुःख था की ऐसा हो रहा था, मगर फिर ऐसा लगा की यदि मुझे ऐसे ही ब्लॉग लिखना है तो बेहतर है की मैं लोगों का और अपना समय और ऊर्जा नष्ट ना करूँ। फिर सोचा की नहीं क्यों ना एक नयी शुरुआत की जाए और लोगो को कुछ अच्छा लिखकर दिया जाए जिसे लोग पढ़ सकें और आनंद पाये, फिर चाहे वो कुछ भी हो.
तो इसी दृण निश्चय के साथ मैं आप सब का पुनः स्वागत करता हूँ और आशा करता हूँ की अब से आप सबको कुछ अच्छा पढ़ने को मिलेगा।
चलिए कल मिलते है.
Friday 12 December 2014
आखिर क्या है इन वीरांगनाओ की सच्चाई
Tuesday 9 December 2014
फ़िज़ाओं में जवाब मिलेगा। ((बॉब डिलन के गीत ‘द आन्सर इज़ ब्लोइं इन द विंड’ से प्रेरित)
इससे पहले वो इंसाँ कहलाए?
कितने सागर कोई फ़ाख़्ता उड़े
इससे पहले कि वो चैन पाए?
बारूद की बू फैली हर इक ओर
कैसे यारों अमन आने पाए?
हवाओं में यारों जवाब मिलेगा
फ़िज़ाओं में जवाब मिलेगा।
इससे पहले कि वो मिट जाए?
कितने युगों तक करें इंतज़ार
जब आज़ादरूहों की उठेगी फ़रियाद?
कब तक आख़िर कोई मुँह फेर कर
हक़ीक़त से दामन बचाए?
हवाओं में यारों जवाब मिलेगा
फ़िज़ाओं मे जवाब मिलेगा।
अँधेरों में ढका आसमान
और तबाही मची है घर घर में
आँखें अपनी खोलो ज़रा
औ’ कितनी और लाशों के अम्बार लगें
इससे पहले कि आप जान पाएँ?
हवाओं में यारों जवाब मिलेगा
फ़िज़ाओं में जवाब मिलेगा।
Wednesday 3 December 2014
आत्मा है खाली हाथ (A Soul with Empty Hand ) .....
परमार्थ का स्वार्थ से मेल क्या है !
सत्य का असत्य से भला नाता कैसा !
इन सब तुलनाओं के बीच !
एक सत्य है जीवन और मृत्यु का होना !
जीवन का मृत्यु से और मृत्यु का जीवन से राग अलग है !
क्रोध , द्वेष , हिंसा और मोह माया !
प्रेम , त्याग बैराग्य और तपस्या !
यही इस जीवन का सच है !
मृत्यु क्या है ?
सिर्फ निस्वार्थ चले जाने खाली हाथ ?
हा यही है सच है मृत्यु बाद !
आत्मा है खाली हाथ .............
निशान्त यादव
Monday 1 December 2014
कहीं खो गयी है माँ ... (A lost Mother )
वास्तविक लेख: http://www.myfeelinginmywords-nishantyadav.blogspot.in/2014/11/lost-mother.html
शायद उसे उसका शाहिद अभी मिला नहीं था , उतरने वाले उतर रहे थे और चढ़ने वाले चढ़ रहे थे
और तब ये माँ ऐसे चिल्लाती तू तब भी इस बेजार निशब्द भीड़ में शामिल हो चुप चाप खड़ा रहता ?
बेपरबाह दौड़ता , मशीनी सीढ़ी से चढ़ता हुआ इस शहर की रिवाजो और भीड़ में शामिल हो गया ....
Sunday 30 November 2014
पैसे से पहचानते है लोग
एक दौर वो था जब,
नाम-काम से जानते,
और पहचानते थे लोग,
पर वक़्त बदल गया है,अब
पैसे से पहचानते है लोग,
हर कोई पूछता है आप कैसे है,
जब तक आपकी जेब में पैसे है,
वरना आपको नहीं जानते है लोग,
पैसे से पहचानते है लोग
गर्लफ्रेंड भी पूछती है, पैसे के बारे में,
माँ-बाप भी पूछते है आमदनी के बारे में,
मगर माँ-बाप के प्यार को नहीं समझते लोग,
पैसे से पहचानते है लोग,
आज पहचान मिलती है बैंक बैलेंस से,
कपड़ो के पहनावे से, सेल्फिज़ के स्टांस से,
गर्लफ्रेंड कितनी हॉट है, या कितनी बार किया संभोग,
पैसे से पहचानते है लोग,
नहीं जेब में पैसा तो दुनिया भी धुत्कारती है,
अपनी औलाद भी अनजान कहकर पुकारती है,
लोगों की पहचान कराता ये पैसे का रोग,
पैसे से पहचानते है लोग।
-अमित शुक्ल
Wednesday 26 November 2014
भाग रहा है इंसा
पैसा कमाने को,
सपने पाने को,
घरोंदा बनाने को,
Tuesday 25 November 2014
उस अद्भुत लम्हे की तैयारी
सोच रहा था की जब सर मिलेंगे तो क्या करूँगा? कैसे उनसे मिलूंगा, क्या कहूँगा? किस ओर खड़ा होऊँगा? और ना जाने क्या क्या? ये होना लाज़मी भी था, क्यूंकि आप चाहे कितनी भी बार सर से मिल लो, ये डर, ये घबराहट होती है है, हालांकि सर सबसे बड़े ही प्यार से मिलते है, मगर वो जो अंग्रेजी की कहावत है ना,'Butterflies in the Stomach' वो मुझे अभी से महसूस हो रही थी, हालांकि अभी कुछ भी निर्धारित नहीं था. ये भी नहीं पता था की ऐसा कुछ हो भी पायेगा की नहीं, क्यूंकि सर हर क्षण व्यस्त रहते है, और इस उम्र में (जैसा लोग कहत है) जब लोग अमूमन आराम कर रहे होते है, वो कई गुना ज़्यादा काम करते है, और हर पल इतने एक्टिव रहते है, की उनकी ऊर्जा देखकर हम तथाकथित जवानो को भी शर्म आ जाए.
फिर वो पल आया, शायद इतवार का दिन था, मुझे मेरे एक दोस्त का फ़ोन आया, पता चला की सर के पास ये मैसेज पहुंच चूका है की उनकी प्यारी इ.ऍफ़. के हम दिल्ली के सदस्य उनसे मिलना चाहते है. ये सुनते ही की सर तक ये बात पंहुचा दी गयी है, मेरे रोंगटे खड़े हो गए और ख़ुशी के कारण चेहरे पर एक मुस्कान सी आ गयी. यकीन कर पाना मुश्किल था, की मैं ऐसा कुछ सुन रहा हूँ. इस बात की ख़ुशी हो रही थी की सर को मेरा नाम बताया जाएगा या वो स्वयं शायद मेरे नाम को पढ़कर उसको स्वीकार करेंगे, की इसको भी बुलाओ या बुलालो. मुंगेरीलाल के सपनो ने अंदर ही अंदर इतनी ख़ुशी मचा दी की मैं फूला नहीं समां रहा था.
आखिरकार मंगलवार को वो मंगल घडी आई जब इस बात की पक्की खबर मिली की 'आज शाम ५ बजे बच्चन सर के साथ अपना अपॉइंटमेंट है अपॉइंटमेंट है, हाएँ', हिंदी में बोलता है हाएँ। ख़ुशी और विस्मित रूप के भाव मेरे चेहरे पर आ गए. एक पल के लिए तो ये लगा की कोई ये बता दे की मैं सपना देख रहा हूँ, या यूँ कहूँ की मैं ये सोच रहा हूँ, और ये सपना है, और अगर है भी तो मुझे उठाये नहीं, और गर नहीं तो मैं इसको जीना चाहता हूँ, हर पल , हर क्षण को.
पहले सोचा की मैं एक गिफ्ट ले लेता हूँ, फिर समझ ही नहीं आया की क्या गिफ्ट लूँ भला मैं उनके लिए, क्यूंकि गिफ्ट्स और अवार्ड्स अब उनके सामने छोटे लगते है. फिर याद आया की कुछ किताबें है जो मैंने अब तक पढ़ी ही नहीं है, और कुछ ऐसी है जो की मैंने सर के लिए ही मंगाई थी, सो उनमें से कुछ मैंने अपने साथ कर ली, और साथ में एक पुराने एल.पी. का रिकॉर्ड, जिसमे कुछ बेहद ही पुरानी कव्वालियाँ थी, इतनी पुरानी की एक कव्वाली तो आपमें से किसी ने शायद सुनी भी नहीं होगी, वो थी फिल्म शोले की कव्वाली।
खैर इस बीच ये सोच ही रहा था की क्या पहनूँ, फिर याद आया की मेरी फेवरेट ड्रेस तो कुरता पायजामा है, जो सर भी अमूमन पहनते है, और वो इतनी अच्छी लगती है की क्या कहें, सो मैंने भी कुरता पायजामा पहना और इस अद्भुत यात्रा के लिए तैयार हो गया.
आगे की यात्रा चित्रों के साथ, मगर एक वीडियो आपको दिखा देता हूँ की क्या और कैसे? क्रमशः
Monday 24 November 2014
थोड़ी सफाई यहाँ भी कर दो
Tuesday 18 November 2014
क्यूँ पूजूँ भगवान को मैं?
क्यूँ पूजूँ भगवान को मैं?
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पत्थर बनकर बैठ गए जो,
भगवान कहे जो जाते है,
इनमे ऐसी क्या बात है भला,
क्यूँ पूजूँ भगवान को मैं?
जिनके नाम पर होता धंधा,
अंधश्रद्धा से होता सब गन्दा,
उसने कब सुनी किसी की फरियादें,
क्यूँ पूजूँ भगवान को मैं?
जो बैठा कहीं है, या है ही नहीं,
जिसके नियम भी उसके नहीं है,
जिसके नाम पर कत्लेआम यही है,
क्यूँ पूजूँ भगवान को मैं?
जिसके नियम लिखे हुए है,
तोड़े और मरोड़े हुए है,
क्यों उसको भला मानू मैं,
क्यूँ पूजूँ भगवान को मैं?
जिसके नाम पर चढ़ता चढ़ावा,
ढोंग नाम पे जिसके रचा हुवा,
कारीगर अपने हिसाब बनाता,
क्यूँ पूजूँ भगवान को मैं?
मैं तो मानू उनको जिनका मैं अंश हूँ,
जिन्होंने लालन पालन किया और,
उनका प्यार हरपल पाता हूँ मैं,
क्यूँ पूजूँ भगवान को मैं?
जिनसे बड़ा कोई नही,
हर आशीर्वाद इनसे ही,
जब ब्रह्माण्ड में इनसे कोई बड़ा नहीं तो,
क्यूँ पूजूँ भगवान को मैं।
-अमित शुक्ल
Thursday 13 November 2014
लैंगिकता पर जनविचार
ये हमारे समाज का ही हिस्सा है मगर इनके साथ हो रहा बर्ताव कैसा है? सोचिए? क्या आपने कभी इनसे सही से बात की, या इन्हें 'ढीला' या कुछ अन्य शब्दों से ही संबोधित नहीं किया है? आप इंकार नहीं कर सकते, क्यूंकि हम जिस समाज में पैदा हुए है उसमे इनमे से किसी भी किस्म के इंसान को अच्छा नहीं समझा जाता. क्यों? अगर ये सवाल पूछे तो लोग ये कहेंगे की ये फलां-फलां है, मगर क्या उन्होंने कभी जीव विज्ञान पढ़ा है? जीव विज्ञान में एक चीज़ होती है हॉर्मोन्स, वो हॉर्मोन्स, जो ये निर्धारित करते है की हम लड़को से जीन्स पाएंगे या लड़के होकर भी लड़कियों जैसे. जब ये हार्मोनल बदलाव होते है तो ज़रूरी है की आप इस बात का ख्याल करें की यदि इनके कारण वो इंसान किसी अलग प्रवर्ति को समझने लगा है, इसका अर्थ ये नहीं की वो एक इंसान नहीं है. उसको भी आपके ही जैसे किसी माँ ने अपने गर्भ में धारण किया था, जन्म दिया, मगर किन्ही हार्मोनल बदलावों के कारण उसके बोलचाल, हाव-भाव में यदि कोई परिवर्तन हो गया तो उसको नज़रअंदाज़ न करें, बल्कि उसको स्वीकार करें, क्यूंकि उसको भी जीने का हक़ है.
Tuesday 11 November 2014
जीने की इच्छा मर पड़ी है
कपोल जैसे कही फूट पड़ी है,
जहाँ भी है तू बुला ले ए दोस्त,
जीने की इच्छा मर पड़ी है,
इक दिन तू हमसे कहीं दूर हो गया,
आज भी मेरी ज़िन्दगी में तेरी कमी बड़ी है,
जहाँ भी है तू बुला ले ए दोस्त,
जीने की इच्छा मर पड़ी है,
मगर क्या भूलूँ क्या याद करूँ,
बोलने की ताकत जैसे जड़ पड़ी है,
जहाँ भी है तू बुला ले ए दोस्त,
जीने की इच्छा मर पड़ी है,
दुनिया में हँसकर बस वो दर्द छुपाऊ,
तेरे अंतिम दर्शन की याद साथ चल रही है,
जहाँ भी है तू बुला ले ए दोस्त,
जीने की इच्छा मर पड़ी है,
कुछ तुझसे कहेंगे,कुछ तेरी सुनेंगे,
सुनने को कान, देखने को आँखें तरस गई है,
जहाँ भी है तू बुला ले ए दोस्त,
जीने की इच्छा मर पड़ी है,
पर आत्महत्या गुनाह है, बात ये हमने पढ़ी है,
जहाँ भी है तू बुला ले ए दोस्त,
जीने की इच्छा मर पड़ी है।
-अमित शुक्ल
Friday 7 November 2014
बेकारी के कुछ दिन
जी हाँ, बेकारी, या यूँ कहूँ की बेरोज़गारी का आलम भी बड़ा अजब होता है। इसका आनंद भी कुछ अलग होता है। ना सुबह जल्दी उठने की चिंता, न ऑफिस पहुचने की, न पंच की, न अकाउंट की, न बॉस की झिकझिक, न क्लाइंट की चिकचिक, बल्कि शांति की टिक टिक। भई वाह, एक लंबे अंतराल के बाद इसका आनंद भी अनूठा है। ना जाने क्यों बच्चन साहब की ज़मीर फ़िल्म का वो गीत याद आ गया,
'बड़े दिनों में ख़ुशी का दिन आया, आज कोई न पूछो मुझसे मैंने क्या पाया'
जबतक अगला कदम निर्धारित नहीं होता, इस दौर का लुत्फ़ उठाया जाए, और खुश रहा जाए।