Saturday 27 December 2014

शिक्षा का स्तर कहाँ?

चित्रोंं से समझाता हूँ!






वहीँ ये





और इनको शिक्षा क्यों नहीं?







Tuesday 23 December 2014

क्या देश मोदी-मय हो गया है?


जी हाँ, हो सकता है आपको ये सुनने में अजीब लगे, मगर इस समय ऐसा लग रहा है की पूरा देश जैसे मोदी-मय हो गया है. आप आज के नतीजों को देखें तो ऐसा लगता है जैसे लोगों को कुछ और दिखाई और सुनाई ही नहीं दे रहा. उनके लिए तो सब कुछ उनके तारणहार माननीय प्रधानमन्त्री श्री नरेंद्र मोदी जी है. देखिए ना, जब मिस्टर साइलेंट सिंह प्रधानमन्त्री थे, तो लोग छोटी सी बात पर भी उनके मुँह में माइक लगा देते थे, आज कहाँ है वो?

जब देश में धर्म परिवर्तन हो रहा है, नेता उलटे सीधे बयान दे रहे है, तो अमूमन नेताओ और प्रधानमन्त्री को माइक का तोहफा देने वाले पत्रकार कहाँ है?

Sunday 21 December 2014

आज कहाँ है दामिनी?


२ साल पहले जब १६ दिसंबर को ये दर्दनाक वाक्या पेश आया था, उस पल लोगों ने बहुत शोर किया, प्रदर्शन किया, लाठी चार्ज सहा, और चंद ही वक़्त बाद, आज हम कहाँ है?

जैसे जैसे १६ दिसंबर  की तारीख पास आती गई, लोगों का गुस्सा वापस बढ़ता गया, और उस तारीख पर, सब आ गए, सड़को पर, अपना रोष दिखाने, खुद को फेमिनिस्ट कहलवाने, और फिर वहां से हटते ही? आप आलम देखिये की लोग १६ दिसंबर को इतने ज़्यादा जागरूक हो जाते है, कि वो जंतर-मंतर पहुँच जाते है, अपना रोष दिखाने,  और मीडिया वाले भी, उस दिन कोशिश करते है की हर एक कवरेज हो सके, ताकि उनके चैनल और अखबार में ये कहा जा सके की 'आपने सबसे पहले यहाँ देखा', या 'यहाँ पढ़ा', मगर आज उस घटना के २ साल और ५ दिन बाद हम कहाँ है? क्या आज हममे से कोई इस बारे में बात कर रहा है? नहीं? क्यों? क्यूंकि आज मीडिया नहीं है, उस मुद्दे पर बात करने के लिए, आज शक्लें नहीं आएँगी अखबारों में, टी.वी. में, आज लोग किसी और मुद्दे पर व्यस्त है, और हमारे लिए आज वो एक बेमानी सी बात हो जाती है. आजकल टी.आर.पी. का ज़माना है साहब, आज जो टी.आर.पी. दे रहा है वो है एक नया मुद्दा, आज दामिनी का मुद्दा उतना काफी नहीं लगता, इसलिए देखिए ना, आज उसपर कोई बात भी नहीं करता। एक दिन, या यूँ कहूँ की एक तारीख को सब जाग उठते है, सबको होश आता है, वुमन एम्पावरमेंट का, और बाकी दिन, सुसुप्त।

आज 'दामिनी' के पिता को सरकार की ओर से मुआवज़ा मिल गया, मगर उस लड़के का क्या, जिसने उसकी अस्मत बचाने के लिए जी जान लगा दी? आज वो कहाँ है? क्या उसकी किसी को सुध है? देखिये ना, बड़े बड़े फेमिनिस्ट आए, १६ दिसंबर को अपनी रोटियाँ 'दामिनी' के मृत शरीर पर सेकी और चल दिए फिर अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में शामिल होने के लिए. देखिए ना उसके इन्साफ को मांगने के लिए लोगों का हुजूम निकल पड़ा, मगर उसको एक कपडा पहनाने और अस्पताल पहुँचाने के लिए एक हाथ भी ना बढ़ा.

आजकल फ़ास्ट फॉरवर्ड होने का ज़माना है साहब, लोग एक दिन पहले की बात भूल जाते है फिर ये तो २ साल ५ दिन पुरानी बात हो गयी, इसकी सुध किसे होगी?

उस 'दामिनी' को तो हम बचा नहीं सके, मगर गर हो सके तो अपने आस पास हर दिन तिल तिल कर मर रही दामिनियों को बचा सके, तो ये उस वीरांगना को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

Wednesday 17 December 2014

पेशावर में खूनी संहार

किसी भी हाल में, किसी भी रूप में, इस घटना को बयाँ करने के लिए जैसे लफ्ज़ ही नही है. आख़िर जेहाद के नाम पर मासूमों का खून कहाँ से इस्लाम का समर्थन करता है? ये कितना दुखद है की लोग सिर्फ किसी को सबक सिखाने की कोशिश में इस कदर कत्लेआम कर रहे है और वो भी मासूम बच्चो का. शर्म आनी चाहिए उन्हें जिन्होंने ऐसा किया या करवाया, और उन मृत बच्चो और लोगों की दिवंगत आत्माओ के लिए शांति की प्रार्थना करते है, और ये आशा करते है की जिन्होंने ये करवाया है वो जल्द ही फाँसी पाए.

पाठक अपने विवके से काम ले क्यूंकि तस्वीरें विचलित कर सकती है.









वहीँ हमारे और दुनिया भर के लोगों ने इसके प्रति संवेदना व्यक्त की है और मुजरिमों के लिए रोष.








Tuesday 16 December 2014

२ साल बाद हम कहाँ?

जी हाँ, आज दिल्ली गैंगरेप दुर्घटना को २ साल पूरे हो गए, मगर क्या हालात बदले? इसमें कोई शक नहीं की आज लोग घरों से निकलेंगे, बदलाव की बातें करेंगे, जलसे होंगे, हवन होंगे, 'निर्भय' को याद करेंगे, मौन रखेंगे, मगर क्या ये सब सिर्फ एक दिन के लिए? एक दिन हम इतने बड़े हिमायती बन जाते है जैसे की हमें यहीं चाहिए, मगर बाकी दिन?





उस पल जब लोगों ने विरोध किया तो ये लगा की लोग जागरूक हो गए है. अब शायद इस देश का इतिहास बदलेगा और शायद बच्चियों और औरतों को उनका सम्मान मिलेगा. शायद अब देश में उनको बेहतर स्थिति मिलेगी. मगर क्या ऐसा हुआ? नहीं।




सबको याद ही होगा की किस तरह उसके बाद बदायूं में वाक्या हुआ, जिसे एक अजीब सी तहकीकात ने तबाह कर दिया, और उसके बाद ना जाने कितने ऐसे वाकए हुए जिसने ये साबित किया की चाहे आप कुछ भी कर लो, देशवासी नहीं सुधरने वाले. पिछले साल औरतों पर होने वाले और ख़ास तौर पर यौन शोषण के मामलो में बढ़ोतरी ही हुई. कई थे जो कह रहे थे की जैसे ही आप 'निर्भय' के दोषियों को सजा डोज, सब ठीक हो जाएगा, मगर क्या वाकई ऐसा होता या होगा?




जी नहीं, ये मुनेगरीलाल के सपने देखना बंद करते हुए हमें ये समझना होगा की ये किसी को फांसी देने से ठीक नहीं होगा, ठीक वैसे ही जैसे की कईयों ने कहा की चूँकि अब अन्ना और केजरीवाल जनलोकपाल के लिए संघर्ष कर रहे तो कुछ बदलेगा, और हर घर में संघर्ष हो रहा है तो कुछ बदलेगा, मगर क्या वाकई?

इस स्थिति में ये समझने की ज़रुरत है की कानून शायद उतना अलग नहीं कर पाएगा, जितना मानसिकता बदलने से कमाल हो पाएगा। इसलिए बड़ी बड़ी बातें करने और मीडिया में प्रचार पाने से अच्छा है की लोग सोच बदले, सोच बल्दे की लडकियां भी एक सामान है. जब लड़के सिगरेट पीते है तो लोग कहते है की टशन है, मगर लड़की पिए तो गलत है. लड़का देर से घर आये और नए नए दोस्तों के साथ आये तो चलन है, और लड़की आए तो बदचलन है.

सोच बदलने की ज़रुरत है. जागो भारत जागो।

Monday 15 December 2014

ब्लॉग पुनःस्थापित

मैं अपने ब्लॉग के सभी पाठकों से क्षमा चाहता हूँ की पिछले कुछ दिनों और हफ्तों से कुछ अप्रत्याशित व्यस्तताओं के चलते मैं ब्लॉग को सही दिशा और सोच के साथ नहीं लिख पा रहा हा. सिर्फ ब्लॉग को लिखने की प्रक्रिया को जारी रखने के लिए किसी दिन किसी का ब्लॉग या कविता यहाँ साझा कर देता था.

आज ब्लॉग की विवेचना करने बैठा तो लगा की मैं जैसे अपने साथ और अपने पाठकों के साथ एक बेईमानी कर रहा था. इस बात का बेहद दुःख था की ऐसा हो रहा था, मगर फिर ऐसा लगा की यदि मुझे ऐसे ही ब्लॉग लिखना है तो बेहतर है की मैं लोगों का और अपना समय और ऊर्जा नष्ट ना करूँ। फिर सोचा की नहीं क्यों ना एक नयी शुरुआत की जाए और लोगो को कुछ अच्छा लिखकर दिया जाए जिसे लोग पढ़ सकें और आनंद पाये, फिर चाहे वो कुछ भी हो.

तो इसी दृण निश्चय के साथ मैं आप सब का पुनः स्वागत करता हूँ और आशा करता हूँ की अब से आप सबको कुछ अच्छा पढ़ने को मिलेगा।

चलिए कल मिलते है.

Friday 12 December 2014

आखिर क्या है इन वीरांगनाओ की सच्चाई




सोचने वाली बात है की देश में एक बवाल मचा, एक लड़की को छेड़ने का बवाल, और ये कोई और नहीं वो लडकियां थी, वही जिन्हे बहुत पीड़ित माना जाता है, जिनके नाम पर ना जाने कितने कानून बनते है, वो कानून, जो सिर्फ उनको ही फेवर करते है. वो कानून, जो ये कहते है की अगर एक लड़की ने कुछ कहा तो वो जगत सत्य होगा, फिर चाहे लड़का कितना भी सही क्यों ना हो. ये कमाल की बात है की लोग, यहाँ तक की कानून भी चाहता है, की आप खुद तो निर्दोष साबित करे, एक छेड़छाड़ या दहेज़ के केस में, जबकि आप सलांखों के पीछे होते है. इस वीडियो को देखिए और अंदाजा लगाइए की क्या करे कोई, जब लडकियां इसका गलत इस्तेमाल करने लगे.


Tuesday 9 December 2014

फ़िज़ाओं में जवाब मिलेगा। ((बॉब डिलन के गीत ‘द आन्सर इज़ ब्लोइं इन द विंड’ से प्रेरित)

सूनी राहों पर कोई कब तक चले
इससे पहले वो इंसाँ कहलाए?
कितने सागर कोई फ़ाख़्ता उड़े
इससे पहले कि वो चैन पाए?
बारूद की बू फैली हर इक ओर
कैसे यारों अमन आने पाए?
हवाओं में यारों जवाब मिलेगा
फ़िज़ाओं में जवाब मिलेगा।
कितने बरस कोई पर्वत टिके
इससे पहले कि वो मिट जाए?
कितने युगों तक करें इंतज़ार
जब आज़ादरूहों की उठेगी फ़रियाद?
कब तक आख़िर कोई मुँह फेर कर
हक़ीक़त से दामन बचाए?
हवाओं में यारों जवाब मिलेगा
फ़िज़ाओं मे जवाब मिलेगा।
जंग के बादल हैं फैले हर सू
अँधेरों में ढका आसमान
और तबाही मची है घर घर में
आँखें अपनी खोलो ज़रा
औ’ कितनी और लाशों के अम्बार लगें
इससे पहले कि आप जान पाएँ?
हवाओं में यारों जवाब मिलेगा
फ़िज़ाओं में जवाब मिलेगा।

Wednesday 3 December 2014

आत्मा है खाली हाथ (A Soul with Empty Hand ) .....

मेरे मित्र श्री निशांत यादव जी द्वारा लिखी गयी एक अद्भुत कविता आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ. आशा है आपको पसंद आएगी. आनंद उठाइए: http://www.myfeelinginmywords-nishantyadav.blogspot.in/2014/12/soul-with-empty-hand.html


परमार्थ का स्वार्थ से मेल क्या है !

सत्य का असत्य से भला नाता कैसा !

इन सब तुलनाओं के बीच !

एक सत्य है जीवन और मृत्यु का होना !

जीवन का मृत्यु से और मृत्यु का जीवन से राग अलग है !

क्रोध , द्वेष , हिंसा और मोह माया !

प्रेम , त्याग बैराग्य और तपस्या !

यही इस जीवन का सच है !

मृत्यु क्या है ?

सिर्फ निस्वार्थ चले जाने खाली हाथ ?

हा यही है सच है मृत्यु बाद !

आत्मा है खाली हाथ .............
         

                                                                                           
                                                                                   निशान्त यादव

Monday 1 December 2014

कहीं खो गयी है माँ ... (A lost Mother )

मेरे एक मित्र निशांत यादव जी दवरा लिखी गया लेख. अति सुन्दर, पढ़े और आनंद उठाए।

वास्तविक लेख: http://www.myfeelinginmywords-nishantyadav.blogspot.in/2014/11/lost-mother.html

जब हम अपने शहर या गांव  को छोड़ कर किसी दूसरे शहर में जाते है चाहे बो रोजगार की तलाश हो या फिर एक अच्छे भविष्य की तब हम धीरे -धीरे उस शहर के रंग में रंगने लगते है और जिस शहर या गांव  को छोड़ कर आये होते हैं वहां की सोच और संस्कार को धकियाते हुए इस शहर की दौड़ती भीड़ में शामिल हो जिंदगी को दौड़ाना चाहते है 

लेकिन तभी भागते हुए हमारा पैर भावनाओं के स्पीड ब्रेकर से टकराता है कुछ लोग उसे पीछे की सोच मान कर अपनी जिंदगी की गाड़ी कुदा देते है चाहे ये गाड़ी टूटे या बचे इसकी परवाह भला किसको रहती है |

लेकिन कुछ लोग उस स्पीड ब्रेकर को देखकर रुक जाते हैं और अपने आप से पूछते हैं 
क्या तुझमे... है हिम्मत जो इस स्पीड ब्रेकर से जिंदगी की गाड़ी को कुदा सके ,
मै भी उनमे से एक हूँ भागती-दौड़ती जिंदगी के सफर में यूँ ही अचानक भावनाओं के स्पीड ब्रेकर पर रुका खुद से सवाल पूछ रहा हूँ |


इन्ही सवालो और जवावो से  जूझते हुए  सच्ची घटना पर आधारित कहानी लिखी है मेने ,
यदि मेरे लिखे ये शब्द आपको भी दौड़ते हुए उस स्पीड ब्रेकर की तरह रोके और खुद के अंदर झाकने पर मजवूर करें तो प्रतिकिर्या दे ....
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शाहिद .. शाहिद….

मेट्रो ट्रैन में दूर से आती.. ये एक औरत की आवाज मेरे और करीव आती जा रही थी|
रोज मर्रा की तरह हर कोई अपने आप को किसी माध्यम में उलझाये हुए अपनी मंजिल की ओर बढ़ रहा था इस दूर से आती आवाज ने लोगो की तन्द्रा को थोड़ा विचलित सा तो किया लेकिन लोग फिर अपने आप में या अपने साथ वाले अपने हमसफ़र में खो गए मैं  भी मेट्रो के दरबाजे की तरफ मुंह किये कही खोया हुआ थामगर ये आवाज मेरे और करीव आती जा रही थी | ये आवाज मुझे और मेट्रो के डिब्बे में सवार लोगो को ज्यादा विचलित कर रही थी आठ डिब्बे की ट्रैन में जैसे -जैसे वो औरत एक-एक डिब्बे को पार करती आ रही थी | इस आवाज की तीब्रता और अधिक बढ़ती जा रही थी मेने और यात्रिओं की तरह डिब्बे की गैलेरी में झांक कर देखा तो सिर्फ आवाज ही सुनाई दे रही वो औरत नहीं |

मेरे मन में तमाम सवाल कौंधे ???
आखिर ये औरत कौन है ?, इसकी उम्र क्या है  ?
ये इतनी बेचैनी से इस नाम की आवाज क्यों लगा रही है ?

अब तक ये सवाल मेरे मन में ही थे कि मुझे लोगो से इनके जवाव मिलने लगे कोई वोला लगता है पागल है| मेट्रो में चिल्ला रही है कोई वोला लगता है इसका कोई खो गया है तो किसी ने सिर्फ अपने चहरे के भावो से ही अपने  जवाव दर्ज कर दिए ,मेरा मन इन जवावो की तरफ गया लेकिन मेने खुद को रोक  उसके आने का इंतजार किया मेने अचानक देखा कि  वो सत्तर साल की औरत भीड़ को चीरती हुई मेरे सामने आ गईऔर दूसरी तरफ मेरे डिब्बे में सन्नाटा छा गया लोग निशब्द हो कर खड़े थे और सिर्फ एक ही आवाज मेरे कानो में जोर से टकरा रही थी 

शाहिद .. शाहिद.. , कहाँ  चलो गयो रे

उस बक्त मुझे इस सन्नाटे ने अपनी तरफ खींच लिया , मैं भी उस भीड़ की तरह निशब्द खड़ा रहा जो अभी अभी मेरे मन में कौंधे सवालो का जवाव खुद ही दे रही थीवो बूढ़ी औरत इस आवाज के साथ मेरे करीव से गुजरती जा रही थी और मैं स्वार्थी सा भीड़ में शामिल हो चुपचाप खड़ा था लोग शायद इस इंतजार में खड़े थे की ये हमसे पूछे लेकिन वो सिर्फ एक ही  नाम पुकार रही थी और आगे बढ़ती जा रही थी 

शायद वो इस सवाल का जवाव सिर्फ ये चाहती थी हाँ माँ मैं ये रहा .. तू क्यों चिल्ला रही है मत चिल्ला ये मेट्रो है लोग यहां सिर्फ गानो का शोर पसंद करते है बो भी सिर्फ सीधे उनके कानो में लेकिन उस बेसुध और बदहवास सी माँ को ये जवाव कहीं  से नहीं मिला वो  लगातार सिर्फ शाहिद .. शाहिद.. चिल्लाती रही और भीड़ को चीरती डिब्बे को पार करती आगे बढ़ती जा रही थी | तभी एक स्टेशन आ गया और अपने कानो में संगीत का शोर सुनने वाले लोग उतरने लगे वो बूढी माँ एक उतरते नौजवान लड़के के बीच में आ गई और वो जवान लड़का जोर से चिल्लाया..

कहाँ,कहाँ आ जाते हैं लोग ठीक से उतरने भी नहीं देते वो दुत्तकारता हुआ उतर गया, शायद वो किसी माँ का शाहिद नहीं था या फिर उसकी माँ इस माँ की तरह नहीं थी, उस बूढी माँ की आवाज अब भी मेरे कानो में सुनाई पड़ रही थी ,मगर इसकी तीब्रता उतनी नहीं नहीं थी | 
शायद उसे उसका शाहिद अभी मिला नहीं था उतरने वाले उतर रहे थे और चढ़ने वाले चढ़ रहे थे 

और मैं अब भी निशब्द सा ...
अपने अंदर उठते सवालो की तीब्रता से जूझ रहा था ,मैं खुद से सवाल पूछ रहा था |  

तू चुप क्यों रहा ?  
तूने उस बूढ़ी माँ  से  पूछा क्यों नहीं की तुम किसे ढूंढ रही हो ?  
ये शाहिद कौन है ?  
क्या तुम्हारा बेटा है ,
क्या वो खो गया है या फिर तुम खो गई हो ?
या फिर.. 
उस उतरते नौजवान लड़के की तरह तुम्हारा शाहिद भी तुम्हे धकियाता हुआ,
हमेशा के लिए छोड़ कर चला गया है
क्या में इस पत्थर के शहर की तरह पत्थर  का हो गया हूँ ?

या फिर कोई इंसानी रोबोट जो सिर्फ सुबह उठता  है धक्के खाता हुआ मेट्रो से नौकरी पर जाता है वापिस अपने घर की तरफ भागता है और हर रोज यही रोजमर्रा की जिंदगी दोहराता है 

क्या अगर तू गांव  की बस में होता ? 
और तब ये माँ ऐसे चिल्लाती तू तब भी इस बेजार निशब्द भीड़ में शामिल हो चुप चाप खड़ा रहता ?

क्या ये पढ़े लिखे लोगो की  संवेदनहीन भीड़ यूँ ही चुपचाप एक दूसरे का मुँह ताकती खड़ी रहती


क्या तू नहीं पूछता माँ क्या हुआ ये शाहिद कौन है ?

ये सारे सवाल मेरे अंदर के पत्थर हो चुके इंसान को झकझोर रहे थे और मैं  अब भी निशब्द चुपचाप खड़ा था तभी डिब्बे में रोज तरह अमीर श्यानी की आवाज गूंजी .. 

यह मालवीय नगर स्टेशन है और मैं इन सब सवालो को धकियाते हुए स्टेशन पे उतर गया |
बेपरबाह दौड़ता , मशीनी सीढ़ी से चढ़ता हुआ इस शहर की रिवाजो और भीड़ में शामिल हो गया ....

                                                                       
                                                                   (निशांत यादव )

Sunday 30 November 2014

पैसे से पहचानते है लोग

एक दौर वो था जब,
नाम-काम से जानते,
और पहचानते थे लोग,
पर वक़्त बदल गया है,अब
पैसे से पहचानते है लोग,

हर कोई पूछता है आप कैसे है,
जब तक आपकी जेब में पैसे है,
वरना आपको नहीं जानते है लोग,
पैसे से पहचानते है लोग

गर्लफ्रेंड भी पूछती है, पैसे के बारे में,
माँ-बाप भी पूछते है आमदनी के बारे में,
मगर माँ-बाप के प्यार को नहीं समझते लोग,
पैसे से पहचानते है लोग,

आज पहचान मिलती है बैंक बैलेंस से,
कपड़ो के पहनावे से, सेल्फिज़ के स्टांस से,
गर्लफ्रेंड कितनी हॉट है, या कितनी बार किया संभोग,
पैसे से पहचानते है लोग,

नहीं जेब में पैसा तो दुनिया भी धुत्कारती है,
अपनी औलाद भी अनजान कहकर पुकारती है,
लोगों की पहचान कराता ये पैसे का रोग,
पैसे से पहचानते है लोग।
                                          -अमित शुक्ल

Wednesday 26 November 2014

भाग रहा है इंसा

भाग रहा है इंसा,
पैसा कमाने को,
सपने पाने को,
घरोंदा बनाने को,

भाग रहा है इंसा,
भीड़ में खो जाने को,
पहचान बनाने को,
बुलंदियों को पाने को,

भाग रहा है इंसा,
धर्म में खो जाने को,
धर्म पे खून बहाने को,
खुद से दूर जाने को,

भाग रहा है इंसा,
खूबसूरत दिखने के लिए,
किसी पे मिटने के लिए,
कुछ करने की चाहत लिए,

भाग रहा है इंसा,
ये सोचकर की भागना,
और जागना ही ज़िन्दगी है,
मगर क्या ये ज़िन्दगी है?

शांति पाना ही ज़िन्दगी है,
खुद को समझना भी ज़िन्दगी है,
खुशियाँ बाटना भी ज़िन्दगी है,
फिर भी भाग रहा है इंसा,

इक दिन रुक जाती ये दौड़ भी,
ज़िन्दगी की ये हसीं मोड़ भी,
पर क्या हम खुद को समझ पाते यहाँ,
फिर भी भाग रहा है इंसा,
                                                                                -अमित शुक्ल

Tuesday 25 November 2014

उस अद्भुत लम्हे की तैयारी

जिस पल से ये पता चला की बच्चन सर गुडगाँव में आए हुए है, और अपनी फिल्म की शूटिंग में व्यस्त है, इस बात की संभावना बन रही थी की हमें सर से मिलने का सौभाग्य शायद फिर से प्राप्त हो जाए, मगर क्या ये मुमकिन होगा, इस बात की आशंका हर पल मन पर छायी हुई थीं.

सोच रहा था की जब सर मिलेंगे तो क्या करूँगा? कैसे उनसे मिलूंगा, क्या कहूँगा? किस ओर खड़ा होऊँगा? और ना जाने क्या क्या? ये होना लाज़मी भी था, क्यूंकि आप चाहे कितनी भी बार सर से मिल लो, ये डर, ये घबराहट होती है है, हालांकि सर सबसे बड़े ही प्यार से मिलते है, मगर वो जो अंग्रेजी की कहावत है ना,'Butterflies in the Stomach' वो मुझे अभी से महसूस हो रही थी, हालांकि अभी कुछ भी निर्धारित नहीं था. ये भी नहीं पता था की ऐसा कुछ हो भी पायेगा की नहीं, क्यूंकि सर हर क्षण व्यस्त रहते है, और इस उम्र में (जैसा लोग कहत है) जब लोग अमूमन आराम कर रहे होते है, वो कई गुना ज़्यादा काम करते है, और हर पल इतने एक्टिव रहते है, की उनकी ऊर्जा देखकर हम तथाकथित जवानो को भी शर्म आ जाए.

फिर वो पल आया, शायद इतवार का दिन था, मुझे मेरे एक दोस्त का फ़ोन आया, पता चला की सर के पास ये मैसेज पहुंच चूका है की उनकी प्यारी इ.ऍफ़. के हम दिल्ली के सदस्य उनसे मिलना चाहते है. ये सुनते ही की सर तक ये बात पंहुचा दी गयी है, मेरे रोंगटे खड़े हो गए और ख़ुशी के कारण चेहरे पर एक मुस्कान सी आ गयी. यकीन कर पाना मुश्किल था, की मैं ऐसा कुछ सुन रहा हूँ. इस बात की ख़ुशी हो रही थी की सर को मेरा नाम बताया जाएगा या वो स्वयं शायद मेरे नाम को पढ़कर उसको स्वीकार करेंगे, की इसको भी बुलाओ या बुलालो. मुंगेरीलाल के सपनो ने अंदर ही अंदर इतनी ख़ुशी मचा दी की मैं फूला नहीं समां रहा था.

आखिरकार मंगलवार को वो मंगल घडी आई जब इस बात की पक्की खबर मिली की 'आज शाम ५ बजे बच्चन सर के साथ अपना अपॉइंटमेंट है अपॉइंटमेंट है, हाएँ', हिंदी में बोलता है हाएँ। ख़ुशी और विस्मित रूप के भाव मेरे चेहरे पर आ गए. एक पल के लिए तो ये लगा की कोई ये बता दे की मैं सपना देख रहा हूँ, या यूँ कहूँ की मैं ये सोच रहा हूँ, और ये सपना है, और अगर है भी तो मुझे उठाये नहीं, और गर नहीं तो मैं इसको जीना चाहता हूँ, हर पल , हर क्षण को.

पहले सोचा की मैं एक गिफ्ट ले लेता हूँ, फिर समझ ही नहीं आया की क्या गिफ्ट लूँ भला मैं उनके लिए, क्यूंकि गिफ्ट्स और अवार्ड्स अब उनके सामने छोटे लगते है. फिर याद आया की कुछ किताबें है जो मैंने अब तक पढ़ी ही नहीं है, और कुछ ऐसी है जो की मैंने सर के लिए ही मंगाई थी, सो उनमें से कुछ मैंने अपने साथ कर ली, और साथ में एक पुराने एल.पी. का रिकॉर्ड, जिसमे कुछ बेहद ही पुरानी कव्वालियाँ थी, इतनी पुरानी की एक कव्वाली तो आपमें से किसी ने शायद सुनी भी नहीं होगी, वो थी फिल्म शोले की कव्वाली।

खैर इस बीच ये सोच ही रहा था की क्या पहनूँ, फिर याद आया  की मेरी फेवरेट ड्रेस तो कुरता पायजामा है, जो सर भी अमूमन पहनते है, और वो इतनी अच्छी लगती है की क्या कहें, सो मैंने भी कुरता पायजामा पहना और इस अद्भुत यात्रा के लिए तैयार हो गया.

आगे की यात्रा चित्रों के साथ, मगर एक वीडियो आपको दिखा देता हूँ की क्या और कैसे? क्रमशः

Monday 24 November 2014

थोड़ी सफाई यहाँ भी कर दो

इससे पहले की तुम आज,
सफाई की शुरुआत कर दो,
गर मिले वक़्त जो तुमको तो,
थोड़ी सफाई यहाँ भी कर दो,

जिन कुरीतियों ने हमको जकड़े रखा,
जिस समाज ने जात-पात को पकडे रखा,
उस पुरानी धूल पर नयी सोच की सफाई कर दो,
थोड़ी सफाई यहाँ भी कर दो,

जो आज भी औरत को छेड़े,
उनको गाली दे,हाथ मरोड़े,
इस सोच को झाड़ कर नयी कर दो,
थोड़ी सफाई यहाँ भी कर दो,

जहाँ आज भी लगती हो दुल्हो की बोली,
दक्ष प्रथा पर दुल्हनो की जहाँ जली हो होली,
उस सोच पर आज तुम नयी सोच का पोछा कर दो,
थोड़ी सफाई यहाँ भी कर दो,

जहाँ आज भी इंसा-इंसा से जलता हो,
जहाँ धर्म के नाम पर उसका शोषण होता हो,
उस सोच पर एक नयी खुशबू का छिड़काव कर दो,
थोड़ी सफाई यहाँ भी कर दो,

सफाई सिर्फ गली-मोहल्ले की नहीं होना है ज़रूरी,
खुद की बुरी धारणाओं को मिटाना भी है ज़रूरी,
पहले अंदर, फिर बाहर की सफाई का एक प्रण कर दो,
थोड़ी सफाई यहाँ भी कर दो I

                                                                               -अमित शुक्ल

Tuesday 18 November 2014

क्यूँ पूजूँ भगवान को मैं?


क्यूँ पूजूँ भगवान को मैं?
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पत्थर बनकर बैठ गए जो,
भगवान कहे जो जाते है,
इनमे ऐसी क्या बात है भला,
क्यूँ पूजूँ भगवान को मैं?

जिनके नाम पर होता धंधा,
अंधश्रद्धा से होता सब गन्दा,
उसने कब सुनी किसी की फरियादें,
क्यूँ पूजूँ भगवान को मैं?

जो बैठा कहीं है, या है ही नहीं,
जिसके नियम भी उसके नहीं है,
जिसके नाम पर कत्लेआम यही है,
क्यूँ पूजूँ भगवान को मैं?

जिसके नियम लिखे हुए है,
तोड़े और मरोड़े हुए है,
क्यों उसको भला मानू मैं,
क्यूँ पूजूँ भगवान को मैं?

जिसके नाम पर चढ़ता चढ़ावा,
ढोंग नाम पे जिसके रचा हुवा,
कारीगर अपने हिसाब बनाता,
क्यूँ पूजूँ भगवान को मैं?

मैं तो मानू उनको जिनका मैं अंश हूँ,
जिन्होंने लालन पालन किया और,
उनका प्यार हरपल पाता हूँ मैं,
क्यूँ पूजूँ भगवान को मैं?

जिनसे बड़ा कोई नही,
हर आशीर्वाद इनसे ही,
जब ब्रह्माण्ड में इनसे कोई बड़ा नहीं तो,
क्यूँ पूजूँ भगवान को मैं।
                                  -अमित शुक्ल

Thursday 13 November 2014

लैंगिकता पर जनविचार

मैं जानता हूँ आपमें से कुछ लोग ब्लॉग का टाइटल पढ़कर ये सोच रहे होंगे की ये क्या है, मगर यकीन मानिए, ये एक ऐसी समस्या है जिसके बारे में दबी ज़बान से सब बात करते है, पर खुल के कोई बोलने को तैयार नहीं।

LGBT: Lesbian Gay Bisexual Transgender


ये हमारे समाज का ही हिस्सा है मगर इनके साथ हो रहा बर्ताव कैसा है? सोचिए? क्या आपने कभी इनसे सही से बात की, या इन्हें 'ढीला' या कुछ अन्य शब्दों से ही संबोधित नहीं किया है? आप इंकार नहीं कर सकते, क्यूंकि हम जिस समाज में पैदा हुए है उसमे इनमे से किसी भी किस्म के इंसान को अच्छा नहीं समझा जाता. क्यों? अगर ये सवाल पूछे तो लोग ये कहेंगे की ये फलां-फलां है, मगर क्या उन्होंने कभी जीव विज्ञान पढ़ा है? जीव विज्ञान में एक चीज़ होती है हॉर्मोन्स, वो हॉर्मोन्स, जो ये निर्धारित करते है की हम लड़को से जीन्स पाएंगे या लड़के होकर भी लड़कियों जैसे. जब ये हार्मोनल बदलाव होते है तो ज़रूरी है की आप इस बात का ख्याल करें की यदि इनके कारण वो इंसान किसी अलग प्रवर्ति को समझने लगा है, इसका अर्थ ये नहीं की वो एक इंसान नहीं है. उसको भी आपके ही जैसे किसी माँ ने अपने गर्भ में धारण किया था, जन्म दिया, मगर किन्ही हार्मोनल बदलावों के कारण उसके बोलचाल, हाव-भाव में यदि कोई परिवर्तन हो गया तो उसको नज़रअंदाज़ न करें, बल्कि उसको स्वीकार करें, क्यूंकि उसको भी जीने का हक़ है.

भारत सरकार ने धारा ३७७ को मना कर दिया, वो धारा जिसका निर्माण १८६० में हुआ था. वो समय जब आप और मैं पैदा भी नहीं हुए थे, जो उस समय के हिसाब से सही थी, मगर जैसा की कहते है की नियम और कानून हमेशा समय के साथ बदलने चाहिए ताकि वो अपने समय के साथ कदम से कदम मिला सके. देखिये ना इसी आधार पर तमिल नाडु सरकार ने एक 'ट्रांसजेंडर्स राइट्स' नाम से एक सुविधा आरम्भ की है जो की इस तरह के लोगों की समस्याएँ हल कर सके. 

भारत के कानून ने भी इन्हे एक तीसरे लिंग के रूप में स्वीकार किया था सन ११९४ और उन्हें भी चुनाव में मत डालने का अधिकार दे दिया था. १५ अप्रैल २०१४ को भारत के कानून ने उन्हें एक पिछड़ी जाति मानते हुए, उन्हें कई सुविधाएँ प्रदान की, मगर क्या उन्हें वो सुविधाएं मिलती भी है? भारत की सबसे उच्च परीक्षा प्रणाली यु.पी.एस.सी. में भी उनके लिए कोई सुविधाएँ नहीं है. 

ये कैसा अधिकार है? क्या सिर्फ कागज़ों में उन्हें सम्मान और स्थान दे देने से वो सच हो जाता है? क्या एक कागज़ पर लिख देने से लोगों की मानसिकता बदली जा सकती है? शायद इसके लिए हमें लोगों की सोच को बेहतर करने की ज़रुरत है. सच में मेरे एक मित्र का ये स्टेटस मुझे याद आता है, जो इस स्थिति पर बिलकुल फिट बैठता है:

'ये लीजिये आपकी सोच, मुझे वह गिरी हुई मिली'

उम्मीद है की आप पाठक ये समझेंगे की वो भी हमारी तरह हाड मांस से बने हुए लोग है और उन्हें भी जीने का अधिकार है. ये कानून सिर्फ इसलिए बनाये गए, ताकि लोग इस प्रकार की मूर्खताएं ना करे, मगर इसके लिए ज़रूरी है की हम अपनी गिरी हुई मानसिकता को सुधारे

यदि आपकी कोई राय है तो कृप्या अवश्य दे.

Tuesday 11 November 2014

जीने की इच्छा मर पड़ी है

गिन्नी भाई को समर्पित:

बीते दिनों के झरोखों से यादों की,
कपोल जैसे कही फूट पड़ी है,
जहाँ भी है तू बुला ले ए दोस्त,
जीने की इच्छा मर पड़ी है,
यादों की लहरों में दिल कही खो गया,
इक दिन तू हमसे कहीं दूर हो गया,
आज भी मेरी ज़िन्दगी में तेरी कमी बड़ी है,
जहाँ भी है तू बुला ले ए दोस्त,
जीने की इच्छा मर पड़ी है,
सोचता हूँ तेरे घर वालों से बात करूँ,
मगर क्या भूलूँ क्या याद करूँ,
बोलने की ताकत जैसे जड़ पड़ी है,
जहाँ भी है तू बुला ले ए दोस्त,
जीने की इच्छा मर पड़ी है,
तुझसे जुडी पीड़ा किसको दिखाऊँ,
दुनिया में हँसकर बस वो दर्द छुपाऊ,
तेरे अंतिम दर्शन की याद साथ चल रही है,
जहाँ भी है तू बुला ले ए दोस्त,
जीने की इच्छा मर पड़ी है,
तुझ संग बैठेंगे, खूब गल्ला करेंगे,
कुछ तुझसे कहेंगे,कुछ तेरी सुनेंगे,
सुनने को कान, देखने को आँखें तरस गई है,
जहाँ भी है तू बुला ले ए दोस्त,
जीने की इच्छा मर पड़ी है,
सोचता हूँ तुझसे आकर अभी मिल लूँ,
पर आत्महत्या गुनाह है, बात ये हमने पढ़ी है,
जहाँ भी है तू बुला ले ए दोस्त,
जीने की इच्छा मर पड़ी है।
                                   -अमित शुक्ल

Friday 7 November 2014

बेकारी के कुछ दिन

जी हाँ, बेकारी, या यूँ कहूँ की बेरोज़गारी का आलम भी बड़ा अजब होता है। इसका आनंद भी कुछ अलग होता है। ना सुबह जल्दी उठने की चिंता, न ऑफिस पहुचने की, न पंच की, न अकाउंट की, न बॉस की झिकझिक, न क्लाइंट की चिकचिक, बल्कि शांति की टिक टिक। भई वाह, एक लंबे अंतराल के बाद इसका आनंद भी अनूठा है। ना जाने क्यों बच्चन साहब की ज़मीर फ़िल्म का वो गीत याद आ गया,

'बड़े दिनों में ख़ुशी का दिन आया, आज कोई न पूछो मुझसे मैंने क्या पाया'

जबतक अगला कदम निर्धारित नहीं होता, इस दौर का लुत्फ़ उठाया जाए, और खुश रहा जाए।