Tuesday 30 September 2014

डॉ. हरिवंश राय बच्चन जी की एक कविता

आज डॉ. हरिवंश राय बच्चन जी की एक कविता पढ़ते पढ़ते मेरे आँखों में आंसूं आ गए. सच में ये कविता कितनी सत्य है, इसको पढ़कर ही पता चलता है. पढ़िए और आनंद पाइए:

अगर तुम्हारा मुकाबला
दीवार से है,
पहाड़ से है,
खाई-खंदक से,
झाड़-झंकाड़ से है
तो दो ही रास्ते हैं-
दीवार को गिराओ,
पहाड़ को काटो,
खाई-खंदक को पाटो,
झाड़-झंकाड़ को छांटो, दूर हटाओ
और एसा नहीं कर सकते-
सीमाएँ सब की हैं- 
तो उनकी तरफ पीठ करो, वापस आओ।
प्रगति एक ही राह से नहीं चलती है,
लौटने वालों के साथ भी रहती है।
तुम कदम बढाने वालों में हो
कलम चलाने वालो में नहीं
कि वहीं बैठ रहो
और गर्यवरोध पर लेख-पर-लेख
लिखते जाओ।

Sunday 28 September 2014

रास्ते तलाशने पड़ते है

यकीनी तौर पर इसमें कोई शक नहीं की हम सबको अपने रास्ते तलाशने पड़ते है, वो रास्ते जो कहीं जाते है, जो अपना ठिकाना जानते है, मगर हमारे आने का रास्ता देखते है. यकीन जानिए बीते शनिवार को अस्मिता थिएटर का नाटक रास्ते देखा और देखकर स्तब्ध था. वो अद्भुत अभिनय, वो शब्दों का चयन, वो घटनाऍ जिनके बारे में बहुत पढ़ना पड़ेगा, वो दमदार अभिनय गौरव मिश्रा जी का, वो कश्मकश में फसी शिल्पी मरवाहा का चरित्र, वो माधव जो उसकी यात्रा के बारे में पढ़ लेता था, वो बातचीत, जो की उन पत्रो का चित्रण था, जो की उसने अपने बाबा को लिखा था. वो जो की एक मार्क्सिस्ट है, जिनके लिए दुनिया मार्क्सिस्म से ही बेहतर बनी हुई है.

ओह वो कश्मकश दुर्गा के बाबा की जो की अपनी बेटी के बारे सब कुछ जानते हुए भी जड़वत है, क्यूंकि उन्हें पता है की अगर उन्होंने अपने आंसूँ का बाँध तोड़ दिया तो एक सैलाब आ जाएगा. उनके वो पुराने दोस्त, जो उनके जीवन को अर्थ देते थे.

यकीन मानिए, मिश्रा जी के वो अंतिम अलफ़ाज़ पड़ते समय, वो दर्द, वो पीड़ा साफ़ झलकती थी. मेरे रोंगटे खड़े कर दिए उन्होंने. सच में, इस वक़्त लिख रहा हूँ, और कल भी लिखा था (मगर ब्लॉग कही उड़ गया),मेरे रोंगटे तब भी खड़े हो गए थे, और अब भी.

अंत में यहीं कहूँगा,'रास्ते हम सब के पास होते है, पर तलाशने पड़ते है'

Friday 26 September 2014

मेकिंग ए लिविंग

मेकिंग ए लिविंग चार्ली चैपलिन की एक ऐसी फिल्म है जो सिर्फ १३ मिनट की फिल्म है, मगर इसमें उनके लुक को पहचान पाना नामुमकिन है. देखिये और आनंद उठाइए. ये चार्ली चैपलिन जी की पहली फिल्म है.









Thursday 25 September 2014

शोल्डर आर्म्स

शोल्डर आर्म्स चार्ली चैपलिन की एक और साइलेंट फिल्म है, मगर क्या ये फिल्म भी साइलेंट है, वास्तव में ऐसा नहीं है. इस फिल्म से चार्ली साहब एक आर्मी वाले बने है, वैसे देखकर काफी अलग सा लगता है, क्यूंकि सब लम्बे चौड़े और चार्ली साहब अपनी कद काठी के साथ. वो सबसे उलट सबसे जुदा काम कर रहे थे.

आखिरकार किस तरह एक इंसान अपने विरोधियों को बंदी बना कर लाता है, ये फिल्म इस बारे में है,मगर अंत में जान पड़ता है की ये तो मुंगेरीलाल के हसीन सपनो की एक श्रंखला है.

















Wednesday 24 September 2014

न्यूयॉर्क का राजा

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वाकई में इस फिल्म को देखते हुए आप कई बार ये भूल जाएंगे की ये वही चार्ली चैपलिन है जिनको आपने कभी टोपी पहने, आधी मूछ लगाए, छड़ी पकडे और मस्ती करते हुए देखा है. ये वो शक्शियत है जो मुर्दे में जान फूँक देते है, चाहे वो इस फिल्म में उनका एंट्री सीन हो, या भोज का, या महारानी से मिलने का, चेक फाड़ने का, या स्कूल से बच्चो से मिलने का.

शब्द नहीं है व्याख्या के लिए सो आप भी चित्रों से आनंद उठाइए, और हो सके तो फिल्म देखिए

Tuesday 23 September 2014

द सर्कस

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सच में एक सर्कस के अंदर घूमते, चलते हुए हम सब खुद को कितने बड़े कलाकार और महारथी समझने लगते है. देखिए ना, हम खुद ही अपने शो के हिट स्टार होते है और हमें ये पता भी नहीं होता. एक ऐसा शो जिसको हम ही संचालित कर रहे होते है और खुद ही सारे किरदारों में से प्रमुख किरदार या यूँ कहूँ की अहम रोल कर रहे होते है, और हमें पता भी नहीं होता.

खैर इस बारे में सोचने का कारण, चार्ली चैपलिन जी की फिल्म 'द सर्कस' बनी, जिसको एकाएक देखने बैठा, और इतना अच्छा लगा की जिसको बयान करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है. वाह, क्या अद्भुत काम था, कितनी ज़िंदादिली, क्या ताज़गी दे गयी वो फिल्म, वो चेहरे के हाव भाव, वो बात का तरीका. और अंत में सबको ख़ुशी देकर भी खुद वीरान सा. वाकई में एक क्लाउन का यहीं काम होता है.


Monday 22 September 2014

दीवारें हम खुद बनाते है

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ये कहना शायद गलत नहीं होगा की अपने आस-पास और अपने मन में दीवारें हम खुद बनाते है. देखिये ना, जब हम पैदा होते है, तो कुछ दीवारें हमारे अपने, हमारे बड़े हमारे मन में बना देते है, जैसे की, फला से मिलो, फला से नहीं, उनको नमस्कार नहीं किया तो गलत बात है, सीधे घर न आने वाले लड़के बदमाश बनते है और ना जाने क्या क्या? पहले पहल तो ये सब सही लगता है, मगर जैसे जैसे हमारा विवेक जागता है, हम पहचानते है की ये सब एक ढकोसला है, स्वांग है, जिसे हमपर थोपा गया है, उनके द्वारा जिन्होंने पहले कभी ऐसी किसी बात को अपनों से सुना, उसपर अमल किया, बजाय इसके की उसकी वास्तविकता या प्रमाणिकता या यूँ कहूँ की प्रासंगिकता की विवेचना करे, उन्होंने इसको एक सत्य मान लिया और अपने पर थोप लिया, फिर अपने बाद अपने बच्चो में वही कीटाणु डाल दिए.

गर हम उन दीवारों से बच गए तो अपनी मानसिकता और सोच के आधार पर अपने लिए दीवारें कड़ी कर लेते है. जैसे की, वो लड़का मेरा दोस्त बनने के काबिल नहीं, या उसमे वो बात नहीं है,या मैं ये नहीं कर सकता, और ना जाने क्या क्या? ज़रुरत है की हम अपने आस पास दीवारें ना लगाए, बल्कि एक ऐसा व्यक्तित्व तैयार करे जो उन्नति और तरक्की को ले जाए,किसी का गला घोट कर नहीं, बल्कि ख़ुशी देकर.

Thursday 18 September 2014

किस ओर भागते ये लोग?

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हैरान था आज ये देखकर की लोग किस तरह से भीड़ में घूम रहे है. एक मेट्रो आई, लोग चढ़ने को हुए, तो देखा की अंदर से एक सैलाब सा बाहर आ रहा है, और फिर बाहर से अंदर भी वही हाल. एक पल के लिए मैं भौचक्का सा सब कुछ देख रहा था, देख रहा था की लोग कैसे भीड़ में बाहर आते, और अंदर जाते, एक भीड़ का मजमा सा था, जैसे की मेट्रो स्टेशन नहीं कोई मेला हो, जहाँ पर लोग आते, और फिर अपने अपने पसंद के स्टाल (घर,बार, या कहीं अन्य) पर चले जाते.

देखकर हैरानी थी की लोग ऐसा कैसे कर सकते है? क्या उन्हें इस बात का एहसास था की वो भीड़ का हिस्सा बन गए है, न की अपनी अलग पहचान लिए हुए कोई इंसान. भीड़ में होना और खो जाना बहुत आसान है, मुश्किल है अलग होना.

सोचिए

Wednesday 17 September 2014

बहुत रौशनी थी इस फिल्म में

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सर्वप्रथम तो मैं अपने उन सभी पाठको को धन्यवाद देना चाहूंगा जिन्होंने पिछले २ महीने में मेरा साथ दिया और मेरे अस्पष्ट विचाररूपी ब्लॉग को सराहा, उसको पढ़ा, अपनी भावनाओ को व्यक्त किया, और लगातार पढ़ते रहे. मेरे अनंत बार फेसबुक पर टैग करने पर भी उन्होंने कोई आनाकानी नहीं की, और सप्रेम उस टैग को स्वीकार किया.

पिछले कुछ समय से ये बात ज़हेन में आ रही थी की मैं सिर्फ हिंदी में ही ब्लॉग लिख रहा हूँ,जिसके कारण शायद वो साथी जो ब्लॉग को पढ़ना चाहते हो, मगर हिंदी नहीं जानते हो, ऐसा कर पाने में असमर्थ हो. इसलिए आज बड़ी ख़ुशी के साथ मैं ये कहना चाहता हूँ, की आज ब्लॉग के २ महीने पूरे करने की संध्या से ये ब्लॉग दोनों भाषाओ, हिंदी तथा अंग्रेजी में लिखा जाएगा, ताकि जगत भाषी भी इसको पढ़ सकें. आप सबके अपार स्नेह के लिए अनेक अनेक धन्यवाद.


चार्ली चैपलिन विश्व सिनेमा की एक बहुत बड़ी हस्ती है. उनके अभूतपूर्व योगदान और अभिनय को बयान कर पाना तो असंभव है, और उनके योगदान के बारे में कुछ कहना तो सूरज तो दिया दिखाने वाली बात होगी. ज़्यादातर लोग उनके क्लाउन वाले अंदाज़ को और छोटी मूछो के अवतार को जानते है, मगर उन्होंने सिर्फ मूक फिल्मों में ही नहीं, कई बोलने वाली फिल्में भी की है, जिनमे से एक है ये फिल्म 'लाइमलाइट'.

जब मैंने इस फिल्म के बारे में जाना तो ये लगा की ये भी एक मूक फिल्म होगी (यहाँ मैं ये साफ़ करता चलूँ, की उनकी कुछ बोलने वाली फिल्में भी अब तक मैं देख चूका हूँ), मगर हुआ इसके विपरीत. ये तो एक बोलने वाली फिल्म थी. एक ऐसी फिल्म जिसमे पहले पहल वो अपने फिल्म की अभिनेत्री को ज़िन्दगी की मायूसी से बाहर निकलने की प्रेरणा दे रहे है. जब उन्हें पता चलता है की वो लड़की मारना चाहती थी, तो वो उसको जीने की ताकत देते है, उसको प्रेरित करते है, इस फिल्म के एक सीन में वो कहते है की 'ज़िन्दगी बेहतर हो जाएगी अगर हम डरना छोड़ दे'. ये कितना प्रेरणादायक है, ये कितना अद्भुत है.

लगातार प्रेरणा के कारण, आख़िरकार वो लड़की अपने पैरो पर चलने लग जाती है. वो लड़की जो अब तक लकवे की शिकायत करती थी, जो डरती थी, और वो भी ऐसे वक़्त में जब कल्वरो का किरदार निभा रहे चार्ल्स जी निराश हो जाते है, उन्हें लगता है की अब जीवन का अंत हो गया है. उनकी कला का कोई सम्मान नहीं कर रहा है. फिर आता है वो समय जब वो अपनी अंतिम प्रस्तुति के लिए जाते है, और उसको करते हुए चोटिल हो जाते है, और अंत में उनकी मृत्यु हो जाती है.


ये फिल्म आपमें एक नयी ऊर्जा भर देता है, आपको प्रोत्साहित करता है, कुछ बेहतर करने के लिए. आपके अंदर एक नयी शक्ति आ जाती है, और अभिनय, अरे साहब उसके बारे में कहने के लिए मैं अभी बहुत छोटा हूँ, या यूँ कहूँ की अभी जन्मा भी नहीं हूँ. इतनी अद्भुत फिल्म बनाने के लिए चार्ल्स चैपलिन साहब को दंडवत प्रणाम.

Tuesday 16 September 2014

जीवन की आपा धापी में

सुबह से सोच रहा था की इस दुनिया में हम कितने व्यस्त है, और सामने एक कविता आई. वो थी डॉ हरिवंश राय बच्चन की,'जीवन की आपा धापी में'. कितनी सत्य, कितनी ज़्यादा मन को छूती, और सच्चाई कहती ये कविता,आप भी पढ़िए, और बच्चन साहब की इस अद्भुत कविता का रसपान कीजिए.


जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोंच सकूँ,
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

जिस दिन मेरी चेतना जगी मैने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले मे
कुछ देर रहा हक्का बक्का, भौचक्का-सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ़ से आया ही तो धक्का-सा
मैने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अन्दर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ,
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा-भला।

मेला जितना भडकीला रंग-रंगीला था,
मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज़ ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठण्डे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी,
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ
क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोंच सकूँ,
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा-भला।

मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पाँव पडे ऊँचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा--
नभ ओले बरसाये, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहाँ खडा था कल उस थल पर आज नही,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं
केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ
जग दे मुझपर फ़ैसला उसे जैसा भाए
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के
इस एक और पहलू से होकर निकल चला।
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोंच सकूँ,
जो किया, कहा, माना उसमें क्या भला-बुरा।

Monday 15 September 2014

सम्मान और अपमान एक साथ

हम सब जानते है की आजकल की मीडिया न सिर्फ बिकाऊ है बल्कि बेकार की हरकतों से लबरेज़ भी. देखिए ना, उन्होंने जो हरकते की दीपिका के अंगवस्त्र को लेकर और उनके शरीर को लेकर वो किसी भी सभ्य तथा समझदार न्यूज़ नेटवर्क का काम नहीं लगता. हम सब जानते है की इस तरह का लिखने वाले कम नहीं है, और लगभग हर मीडिया कंपनी में ऐसा कहने वाले है, मगर शायद उन्हें किसी का अपमान करने से पहले एक बहुत ही बड़ा सबक दिया है दीपिका ने. मैं पूरी तरह से इसका समर्थन करता हूँ.

उसपर उनका जवाब देखिए


 बेहद अशोभनीय

Sunday 14 September 2014

जीवन का कमाल देखिए

सच ही तो है, जीवन कितनी अलग और खूबसूरत चीज़ है, इतनी ज़्यादा खूबसूरत की लोग इसके बारे में क्या कहें उन्हें खुद भी नहीं समझ आता. कोई इसे बोझ कहता है, कोई मुश्किलो से भरा दौर, कोई इश्क़ करता है जीवन से, तो कोई इसको एक नियामत मानकर अपनी ज़िन्दगी काटता है. कितने कमाल की बात है, की ज़िन्दगी सबके पास है, मगर देखने के नज़रिये के हिसाब से इसके नाम, इसकी कायनात बदल जाती है. हम सब भी तो कुछ ऐसा ही करते है, गर हमें किसी से प्यार है, तो उसकी गलतियां भी मज़ाक या भोलापन लगती है, वरना वो गुनाह लगती है.

देखिए ना कितने कमाल की चीज़ है ये ज़िन्दगी की हम सब पहले वैसे ही जीते है, पुत्र या पुत्री बनकर, और अपने पितु-माता को बहुत सुख या कष्ट देते है, फिर समय का पहिया घूमता है और हम वापस से अपने पितु-माता की जगह पर आ जाते है, और वो एहसास कर पाते है, जो उन्होंने कभी हमारे कारण महसूस किया था.

अपनी किलकारियाँ तो हम कभी सुन नहीं सके, मगर अपने बच्चो की किलकारियाँ ज़रूर सुनते है, और उनके बिलांग भर बढ़ते शरीर और बुद्धि, उनकी अठखेलियाँ, उनकी ज़िद्द, उनका प्यार और तकरार प्राप्त करते हुए, एक दिन जलकर या दफ़्न होकर अपने अंत को पाते है, जो भी हमारे बड़ो ने पाया था, आज हम भी ख़त्म हो जाते है.

और ये प्रक्रिया, यूँ ही चलती रहती है, जीवन का कमाल देखिए

Saturday 13 September 2014

जगत नेटवर्क = बच्चन नेटवर्क

शायद ये कहना गलत नहीं होगा की दुनिया में किसी भी मोबाइल नेटवर्क से ताकतवर नेटवर्क यदि कोई है तो वो है बच्चन नेटवर्क. अब देखिए ना, एक इंसान हिन्दुस्तान में होते हुए रूस में बैठे अपने नए दोस्त से बात कर सकता है, या इजराइल में, या अमेरिका में, या यहीं हिन्दुस्तान में भी, फिर चाहे वो दिल्ली हो, कोलकाता, मुंबई या कहीं अन्य.

यकीन मानिए इस दुनिया में बच्चन नेटवर्क से ज़्यादा पावरफुल कोई नेटवर्क नहीं है. ये वो नेटवर्क जिसकी सीमाएँ, देश की सीमाओ में बंध के नहीं रहती, जिसका नेटवर्क उतना ही ताकतवर और सही से आता है, चाहे आप धरती के किसी भी भू भाग में हो. वही प्यार, अपनतत्व और सौहार्द मिलता है, जितना आपको अपने देश में मिलता है, शायद तभी तो हिंदुस्तान में बैठा एक इंसान अपने विश्व में बैठे किसी भी मित्र से ऐसे बात कर सकता है, जैसे की वो आपके बगल में बैठा है. ज़ाहिर सी बात है की मैं यहाँ पर टेक्नोलॉजी को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता, क्यूंकि ये टेक्नोलॉजी ही है जो हमें एक दूसरे से और आराम से कनेक्ट करती है, फिर चाहे वो फेसबुक हो,ट्विटर,ब्लॉग,बबली या कुछ अन्य.

देखिए ना, इस नेटवर्क के सिग्नल जब मुझे मिले तो मेरे दोस्त कुछ ऐसे देशो में भी बने जिनके बारे में मैंने सिर्फ सुना था. इजराइल के मोसेस भाई हो,या रूस की तात्याना, अमेरिका में मीनू दी और वलोरी जी, तो वही पवन भाई, किशोर जी और ना जाने कितने अन्य. ये फेहरिश्त इतनी लम्बी है, की जिसका अंत नहीं है, और इस नेटवर्क का फायदा ये है की आप एक परिवार के सदस्य होते है, वो परिवार जो चार दीवारो में बंधा नहीं है, ये वो परिवार है, जो जगत व्याप्त है,जो आपके साथ आपकी खुशियों में हँसता है, तो दुःख में आपके साथ कंधे से कन्धा मिला के खड़ा रहता है. जो आपकी खुशियोंं में शरीक होता है, तो वहीँ कभी अगर आप हिम्मत हार रहे हो तो आपको खड़ा भी कर देता है.

और इस परिवार के मुखिया प्रभु श्री अमिताभ बच्चन जी अपने द्वारा बनाए गए इस अद्भुत परिवार को हँसते-मुस्कुराते और लहलहाते देखकर बहुत प्रसन्न होते है. वो परिवार जो ब्लॉग पर एक दूसरे से मिलता है, तो वही ट्विटर पर मिलता है, व्हाट्सप्प पर मिलता है, फेसबुक पर मिलता है. मुखिया जी हमेशा अपनी इस एक्सटेंडेड फैमिली को बढ़ते और एक दूसरे से प्यार करते हुए देखकर खुश होते है.

सच में गर कोई जगत नेटवर्क है तो वो है बच्चन नेटवर्क! इस नेटवर्क को रोकना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है.

Thursday 11 September 2014

तेजाब के हमले में घायल एक लड़की के दिल से निकलीं कुछ पंक्तियाँ...

चलो, फेंक दिया
सो फेंक दिया....
अब कसूर भी बता दो मेरा
तुम्हारा इजहार था
मेरा इन्कार था
बस इतनी सी बात पर
फूंक दिया तुमने
चेहरा मेरा....
गलती शायद मेरी थी
प्यार तुम्हारा देख न सकी
इतना पाक प्यार था
कि उसको मैं समझ ना सकी....
अब अपनी गलती मानती हूँ
क्या अब तुम ... अपनाओगे मुझको?
क्या अब अपना ... बनाओगे मुझको?
क्या अब ... सहलाओगे मेरे चहरे को?
जिन पर अब फफोले हैं...
मेरी आंखों में आंखें डालकर देखोगे?
जो अब अन्दर धस चुकी हैं
जिनकी पलकें सारी जल चुकी हैं
चलाओगे अपनी उंगलियाँ मेरे गालों पर?
जिन पर पड़े छालों से अब पानी निकलता है
हाँ, शायद तुम कर लोगे....
तुम्हारा प्यार तो सच्चा है ना?
अच्छा! एक बात तो बताओ
ये ख्याल 'तेजाब' का कहाँ से आया?
क्या किसी ने तुम्हें बताया?
या जेहन में तुम्हारे खुद ही आया?
अब कैसा महसूस करते हो तुम मुझे जलाकर?
गौरान्वित..???
या पहले से ज्यादा
और भी मर्दाना...???
तुम्हें पता है
सिर्फ मेरा चेहरा जला है
जिस्म अभी पूरा बाकी है
एक सलाह दूँ!..
एक तेजाब का तालाब बनवाओ
फिर इसमें मुझसे छलाँग लगवाओ
जब पूरी जल जाऊँगी मैं
फिर शायद तुम्हारा प्यार मुझमें
और गहरा और सच्चा होगा....
एक दुआ है....
अगले जन्म में
मैं तुम्हारी बेटी बनूँ
और मुझे तुम जैसा
आशिक फिर मिले
शायद तुम फिर समझ पाओगे
तुम्हारी इस हरकत से
मुझे और मेरे परिवार को
कितना दर्द सहना पड़ा है।...
तुमने मेरा पूरा जीवन
बर्बाद कर दिया है।... गुमनाम

Wednesday 10 September 2014

श्वेता बासु का गुनाह क्या?


श्वेता बासु, जी हाँ ये वो नाम है जिससे इस वक़्त हर कोई नफरत कर रहा है, जिसपर फब्तियां कसने से कोई बाज़ नहीं आ रहा है. सबको लगता है की गलती उसकी ही है, जो वो जिस्मफरोशी के धंधे में गई. मगर क्या वाकई?

वो एक जुझारू लड़की थी, और है. उसने जब भी काम किया अच्छा ही किया, फिर चाहे वो डरना ज़रूरी है में आशु का किरदार हो, या वाह! लाइफ हो तो ऐसी में श्वेता का किरदार, या मकड़ी, या इक़बाल. वो एक ऐसी अभिनेत्री है जिन्हे नेशनल अवार्ड मिल चुका है, मगर लोगों को इसकी परवाह कहाँ? उन्हें तो बस कोई मिल गया है, जिसपर वो फब्तियाँ कस सकें, और उसपर से हमारे देश की मीडिया, जो एक लड़की की तबाह हुई आबरू को और तबाह करने पर तुला है.

कमाल की बात है, की ऐसे समय में जब मीडिया को शहनशीलता दिखानी चाहिए, तो उसने एक इतना घटिया तरीका इख्तियार किया है, जिसके कारण एक अच्छी भली अभिनेत्री, आज इस दलदल में फंस गई. जानता हूँ की कई तथाकथित 'बुद्धिजीवी' और 'विचारक' और हो सकता है आप भी इस बात को हज़म ना कर पाए की एक लड़की ने अगर ऐसा किया तो हम उसका समर्थन कैसे करें? मगर सोचिए, की क्या उसने ऐसा जानबूझकर किया? नहीं, वो उसने इसलिए किया क्यूंकि उसके ऊपर ज़िम्मेदारियाँ थी, परिवार की, और अपनी खुद की, और उनको निभाने के लिए उसने ऐसा किया.

जब उसको काम की ज़रुरत थी, और उसके इतने शानदार अभिनय के बावजूद उसको काम दिया नहीं गया, पर देखो आज, जब इसके कारण हुई समस्याओं का ज़िक्र हुआ है, तो सबकी ज़बाने बित्ता भर की लम्बी हो गई है, हर कोई लांछन लगा रहा है.

गर है हिम्मत तो उन लोगों के नाम भी उजागर करो, जो अय्याशी करने और अपनी वासनाओ को पूरा करने के लिए आते थे. है हिम्मत तो उनको भी अरेस्ट करो, मगर वो तो होगा नहीं. उनके परिवार वालों को भी दिखाओ की उनके अपने क्या करते थे. उनके भी नाम उछालो, उनको भी दिखाओ, मगर ये कर पाना पुलिस के लिए नामुमकिन है, क्यूँकि वो होंगे मोती पैसे वाली पार्टियां, जिन्होंने गरम कर दी होंगी कानून वालो की मुट्ठियाँ, और अब सब कुछ उस एक लड़की पर आकर टिक गया है.

शर्म आती है सोचकर, की हमें किसी की उड़ती और निस्तोनाबूत होती आबरू को सुनने का और उसपर कसीदे/फब्तियाँ कसने में बड़ा मज़ा आता है. मैं पूछता हूँ की कहाँ है वो तथकथित फेमिनिस्ट और सोशल वर्कर्स , 'शबाना आज़मी','आमिर खान' 'प्रियंका चोपड़ा' 'रानी मुख़र्जी' और कुछ अन्य भी जिनके नाम याद नहीं. उम्मीद है की सिर्फ ढिंढोरा या ढकोसले बाजी करने से अच्छा है की उसकी मदद करो.

Tuesday 9 September 2014

इंसान क्यों वापस है जानवर बनता


ये वही देश है जहाँ पर पैसे को लक्ष्मी, ज्ञान को सरस्वती देवी की कृपा कहा जाता है. ये वही देश है, जहाँ आज से कुछ दिनों बाद एक ९ दिन का त्यौहार मनाया जाएगा, जिसमे एक स्त्री (माफ़ कीजियेगा मगर कई लोग इन्हे देवी भी कहते है) के ९ रूपों का गुड़गान किया जाएगा. वहां कहा जाएगा की इस देवी ने इसका वध किया, या ये फलां चीज़ को देने वाली देवी है, मगर वही असलियत में उस देवी का क्या हाल है, चलिए इससे भी आपको रूबरू करते है, वैसे शायद ज़रुरत नहीं, क्यूंकि आप सब जानते ही है, मगर फिर भी.

वो लड़की जो जीना चाहती है उसको कोख में ही मार दिया जाता है, उसको पैदा होने के बाद भी ज़िल्लत सहनी पड़ती है, क्यूंकि बेटे को सारी सहूलियतें जो देनी है. हम सब इन बातो को जानते है, सुनते है, मगर कभी ध्यान नहीं देते, और दे भी क्यों, हमें लगता है की ये हमारे घर की बात नहीं हो रही है, दूसरे की है तो हमें इससे क्या?

इनमे से कुछ आपको ऐसे भी मिलेंगे जो उस वक़्त जब आपको ऐसा कुछ दिखाया जाएगा तो बहुत क्रन्तिकारी बातें कहेंगे, मगर पलटते ही, उलटी सीढ़ी बातें, और बकवास करेंगे. आज का समय मुखौटो का है, और आप देखिए ना, हर दिन, चाहे वो सुबह हो या शाम, दिन हो या रात, चाहे अखबार हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, आपको बलात्कार की, छेड़छाड़ की, भ्रूण हत्या की, दहेज़ हत्या की, सम्मान के लिए हत्या,एसिड अटैक की खबरें ज़रूर मिल जाएँगी.

मैं ये पूछता हूँ की क्या हम एक ऐसा समाज बनाना चाहते है, जहाँ लड़कियों को चलने से पहले सुरक्षा की जरूररत पड़े, जहाँ उसे लगे की हम क्या वाकई एक आज़ाद देश की नागरिक है, और फिर भला ये कैसी स्वाधीनता है. मुझे तो ये स्वाधीनता नहीं लगती, मुझे तो ये बस मुखौटे का फर्क दिखता है,क्यूंकि देखिए ना, जहाँ तालिबान लड़कियों की उन्नति को रोकता है, उनपर बंदिशे लगाता है, हम भी तो वही करते है, बस फ़र्क़ ये है की वो बेखौफ कहता है, क्यूंकि उनके वहाँ अराजकता है, और हमारे वहाँ लोकतंत्र. हम भी तो लड़कियों पर बंदिश लगते है, की 'ये पहनो, वो नहीं', 'इससे मिलो, उससे नहीं', 'इतने बजे तक घर आ जाओ, इसके बाद नहीं'. यही सवाल हम लड़को से क्यों नहीं पूछते? कुछ ऐसे ही सवाल उठता है अस्मिता थिएटर ग्रुप का नाटक दस्तक:



देखिए ना, एक लड़की का बलात्कार हो जाता है, जो २.५ साल की थी, तो कभी ९० साल की एक बुज़ुर्ग के साथ दुर्घटना हो जाती है. कभी कोई अपनी पडोसी की लड़की या पत्नी के साथ, या कोई रिश्तेदार की किसी महिला के साथ दुष्कर्म करता है. ये क्या होता जा रहा है?

जब १६ दिसंबर की वीभत्स घटना हुई तो क्या हुआ? लोग सड़को पर आये, कुछ महीने ज़ोर शोर से विरोध हुआ, मीडिया न्यूज़ डिबेट हुई, सेशंस लगे, कड़े कानून की बात हुई,पर अब सब ठंडा, क्यों, क्यूंकि गुनहगार सलाखों के पीछे है और अपने अंजाम की ओर. लोगों ने कहा की उनको फाँसी दे दो, उससे ऐसी घटनाएँ कम होंगी, मगर क्या वाकई ऐसा हुआ है, या ऐसा होगा? यदि सत्य देखा जाए तो ऐसी घटनाएँ नहीं रुकी थी, ना रुकी है. आज भी प्रतिदिन किसी ना किसी बच्ची के साथ दुष्कर्म की घटना होती है, और हम पुलिस, प्रशाशन को दोष देते है. हम ये क्यों भूल जाते है की उस वक़्त हम वहां होते है, हम मतलब आम इंसान ('आम आदमी' राजनीतिक शब्द हो गया है). जब दो बच्चियों को दुष्कर्म के बाद पेड़ से लटका कर मार दिया गया, हम सब फिर उठे, फिर अपने आपको दिखाने के लिए, और फिर चंद ही दिनों के बाद फिर अपनी ज़िन्दगी में खो गए.

वास्तविकता को स्वीकारना हमारी फिदरत में नहीं है, की हम सब वो लोग है, जो खुद से नहीं किसी के कहने से उठते है. हम खुद की चीज़ों के लिए भी तभी आवाज़ उठाते है, जब कोई हमें सपोर्ट कर दे. हम भूलने के बड़े आदी है, अरे हम भगत जी को भूल गए, बापू को भूल गए, उनकी बताई सीख और सोच को भूल गए. बस किया क्या है,उनके नाम पर राजनीति. किसी ने भगत सिंह सेना बना ली और जब भी ऐसा कोई वाकया हुआ तो उठ खड़े हुए, फिर सो गए. जब कोई प्रेम का इज़हार करने को आगे आया तो राखी बंधवा कर अपनी संस्कृति का हवाला दिया, और ना जाने क्या क्या?

अरे हम ये भूल रहे है की परिवर्तन जीवन का नियम है. अगर वो लड़कियाँ है, तो उन्हें भी जीने का हक़ है. अस्मिता थिएटर के ही संस्थापक अरविन्द गौड़ ये सवाल सही पूछते है, की १५ अगस्त १९४७ को जब आज़ादी मिली थी तो क्या सिर्फ लड़को को मिली थी, लड़कियों को नहीं? आज़ादी पूरे देश को मिली थी, एक समाज, एक तबके, एक धर्म, या जाती के लोगो को नहीं. 

हमें ये समझने की ज़रुरत है की वो जनक है, जननी है, आदिशक्ति है( यहाँ मैं ये स्पष्ट कर दूँ, की मैं कही से भी आस्तिक नहीं हुआ हूँ). ज़रुरत है की हम उनको वो सम्मान दे जिसकी वो हक़दार है, और हाँ भीख में नहीं, या इस उम्मीद में नहीं, की हमें भी वही मिले, बल्कि इसलिए, क्यूंकि वो उसके योग्य है.

सोचिए

Monday 8 September 2014

सब कुछ बिक रहा है

सब कुछ बिक रहा है,
ईमान बिक रहा है,
इंसान बिक रहा है,
काले को गोरा बनाने का,
सामान बिक रहा है,

सोच बिक रही है,
शहीदों का तो देखो यारों,
कफ़न भी बिक रहा है,
सब कुछ बिक रहा है,

रैप बिक रहा है,
एप बिक रहा है,
कला तो नहीं आजकल,
जिस्म दिखाने वालियों का,
जिस्म बिक रहा है,

आस्था बिक रही है,
श्रद्धा बिक रही है,
मूर्ति के रूप में दुकानों में,
भगवान बिक रहा है,

सच बोलना तो भूल चुके,
हकीकत से नाता तोड़ चुके,
आजकल तो देखो मीडिया में,
झूठ बिक रहा है,

फेसबुक पे बिक रहा है,
गूगल पे बिक रहा है,
आजकल तो सच भी,
बेईमानी में बिक रहा है,

- शुक्ल

Sunday 7 September 2014

जो बीत गई सो बात गयी

आज कुछ लिखने से ज़्यादा पढ़ने में समय लगाया, सो डॉ हरिवंशराय बच्चन जी की कविताओं का रसपान किया. ये अद्भुत कविता मुझे प्रेरणा दे रही थी और आज के दिन में कम से कम १५ बार इसको पढ़ चुका हूँ. पढ़िए और आनंद लीजिए:

जो बीत गई सो बात गई

जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई

जीवन में वह था एक कुसुम
थे उसपर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुवन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुर्झाई कितनी वल्लरियाँ
जो मुर्झाई फिर कहाँ खिली
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई

जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आँगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठतें हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई

मृदु मिटटी के हैं बने हुए
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन लेकर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फिर भी मदिरालय के अन्दर 
मधु के घट हैं मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है
जो बीत गई सो बात गई

Saturday 6 September 2014

सप्ताह नया आता है

सप्ताह नया आता है,
नयी उमंग लाता है,
नयी उम्मीदें लाता है,
सप्ताह नया आता है,

नित नवेली ऊर्जा का संचार करता है,
अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है,
खुद को बेहतर करने की ऊर्जा नयी लाता है,
सप्ताह नया आता है,

खुद ज़िन्दगी एक नया रूप ले आती है,
अपने आप ज़िन्दगी महकाती है,
हमें जीने की प्रेरणा देकर जाता है,
सप्ताह नया आता है,

इस नए सप्ताह में कुछ बेहतर करने की ठान लो,
तुम बेहतर कर सकते हो,इस बात को मान लो,
खुद बेहतर करने की इच्छा से ही इंसान उन्नति पाता है,
सप्ताह नया आता है,

-शुक्ल

Friday 5 September 2014

शिक्षको को मेरा नमन


क्या और कहाँ से शुरू करूँ? ये लिस्ट इतनी लम्बी है की जिसके बारे में लिखने के लिए ये एक ब्लॉग कम है, लेकिन चलिए कहीं ना कहीं से तो शुरुआत करनी ही होगी, सो आइये आपको बताता चलूँ की मेरे सबसे यादगार शिक्षक कौन थे और हैं:

ज़ाहिर सी बात है मेरे सबसे पहले शिक्षक मेरे माँ-बाप ही थे. मैंने जीवन की सोच उनसे ही पायी, और समय के साथ वो अनुभवों के साथ बढ़ती गई. फिर मेरे कुछ शिक्षक थे, जब मैं स्कूल बस में जाता था, तो मेरी एक इंग्लिश की टीचर थी,शायद उनका नाम मिसेस ब्रिगेंजा था. उन्होंने ही पहले पहल मेरी अंग्रेजी को बेहतर किया. जो अगला शख्श मुझे याद आता है, वो थे मेरे केमिस्ट्री के टीचर, शायद उनका नाम मिस्टर गुप्ता था. अब क्या है ना साहब, ये बात कम से कम २२ साल से ज़्यादा पुरानी है, और तब मैं बहुत छोटा था, तो ज़्यादातर लोगों के नाम तो मुझे याद ही नहीं है.

मुझे जिस एक टीचर का नाम भली भाँति याद है वो है मेरी कंप्यूटर की टीचर, जिनका नाम था तृप्ति मैम. वो हमें एक लाइन में क्लास से कंप्यूटर लैब तक लाती थी. वाह अब जब याद आता है, वो सीढ़ियां चढ़कर क्लास में जाना,और लाइन में नीचे आना. सच में बहुत अच्छा लगता है. वो टीचर का स्विमिंग के लिए ले जाना. वो वॉलीबाल टीचर, वो लाइब्रेरी. ओफ़, वो भी क्या पल थे, जो अब यादें बन गई है.

वो मैथ्स के मेरे टीचर गोविन्द सर, जिनके कारण मुझे मैथ्स बचपन से ही सरल लगी. वो उनका क्लास के अंतिम ५ मिनट में कोई ना कोई जोक करना, जिससे स्ट्रेस लेवल कम हो जाए और बच्चों को मैथ्स समझ भी आए. वो हिंदी के डी.लिट. के.के. पांडे सर, जिनकी व्याख्याओं ने मुझे हमेशा हिंदी की ओर अपना रुझान बनाए रखने में मदद की. वो उनका हर एक शब्द, लाइन को बड़े ही ध्यान और अर्थपूर्ण समझाना.

वो इंग्लिश के एक टीचर (जिनका नाम मैं भूल गया हूँ) का हर एक नाटक या कविता का वो मधुर अनुवाद करना. वो मिश्रा सर की फिजिक्स थ्योरी, वो युसूफ सर की केमिस्ट्री, और मेरे द्वारा ११वी के फेयरवेल के समय इनकी की गई मिमिक्री. वो मैथ्स के एक बाद के टीचर, जिनका निकनेम हमने 'वीरप्पन' रखा था, क्यूंकि वो उसके जैसे लगते थे. वो उनके साथ मेरी लड़ाई और उनको नौकरी से बर्खास्त करवाना. पूरी मुहीम को अपने ही कंधो पर लेकर चलना. वो पहली बार प्रिंसिपल का मुझको उनके रूम में देखकर चौकना, क्यूंकि मैं स्कूल के सबसे अच्छे बच्चों में टॉप पर था. वो सिंह सर का कड़क रवैया, ताकि बच्चों में अनुशाशन रहे.

मगर इन सब से ज़्यादा अच्छा और बड़े, मेरे सर्वप्रथम टीचर, श्री अमिताभ बच्चन जी जो मेरे सदा से प्यारे टीचर रहे है और सदा रहेंगे. वो जिनसे मैं लगातार सीख रहा हूँ. बच्चन सर, आपको शत-शत नमन

Thursday 4 September 2014

मेट्रो सफरनामा

कल देर शाम ऑफिस से निकलते वक़्त मैं अपने बॉस से रूबरू था, उनसे एक ऑफिसियल मसले पर मंत्रणा कर रहा था. फारिक होते ही मैंने मेट्रो की ओर रुख किया, पर वहाँ पहुँचकर याद आया की साहब मेरे पास तो मेट्रो कार्ड ही नहीं है, उस वक़्त मुझे दीवार का वो मशहूर डायलाग याद आया, और ऐसा लग रहा था की हर कार्डधारक मुझे बता रहा हो,'मेरे पास कार्ड है'. पलक झपकते ही मैंने एंट्री लाइन से टोकन लाइन का रुख किया और वापस, मगर तब तक कहानी बदल चुकी थी.

एक छोटी सी लाइन ने एक लम्बी सी लाइन का रूप इख्तियार कर लिया था, जो मेट्रो स्टेशन के मेन गेट तक जा रही थी. वैसे इस लाइन को देखकर यूँ लग रहा था जैसे कोई लंगर बाँट रहा हो, या राशन की दुकान पर गरीब लगा हुआ है, अपनी ज़रुरत की चीज़ें पाने के लिए. खैर,मरता क्या ना करता, मैंने भी इसी लाइन में अपनी जगह ग्रहण की, और तभी मेट्रो वालों का दिमाग चला और उन्होंने एक नयी लाइन ओपन की, जो बिना बैग वालों के लिए थी.

एक पल को लगा की जैसे मुराद सुन ली गयी हो, क्यूंकि मैं भी इसी श्रेणी में आता था. मैंने लपककर अपनी जगह ली,और सुरक्षा जाँच पूरी कर के मेट्रो के अंदर प्रवेश किया. भीड़ काफी थी, और क्यों ना हो, आखिर ये दिल्ली की लाइफलाइन है, और दिल्ली की आबादी भी बेहताशा है. कोई किसी के सर के ऊपर से सुरक्षा हेतु लगाए गए खांचे पकड़ रहा था, तो कोई दरवाज़े से सटा हुआ अपने आपको बचाने की कोशिश कर रहा था.कोई बातों में मशगूल था, तो कोई अपनी प्रेमिका (गर्लफ्रेंड) को आगोश में भरकर,भीड़ से बचाने की कोशिश कर रहा था. कहीं किसी के शरीर पर लगे डीओ की सुगंध आ रही थी, तो कहीं दुर्गंध. कोई व्हाट्सप्प पर लगा था, तो कोई फेसबुक पर, कोई ट्विटर पर, तो कोई अपनी किताब या अखबार के पन्ने पढ़ने की कोशिश में.

खैर, इन सब के बीच मैं राजीव चौक मेट्रो पहुँचा, इस उम्मीद के साथ की जल्द ही मेट्रो आएगी और मैं अपने गंतव्य की ओर चलूँगा, मगर यहाँ तो आलम अलग था. पता चला की मेट्रो देरी से चल रही थी, कम से कम ५-८ मिनट की देरी से, सो यहाँ भी मैंने लोगो को आबझरव करना शुरू किया. लोगों का बातचीत करना, कही मोबाइल पर बात करना, तो कहीं प्रेमिका (गर्लफ्रेंड) के साथ हँसगुल्ले, कहीं लोगों का इस समस्या पर अपनी विशेष टिप्पणी देना, तो कहीं इस व्यवस्था को दोष देना. एकाएक मेरी नज़र नीचे से आते हुए लोगों पर पड़ी, वो सब इतनी जल्दी में आ रहे थे, जैसे की किसी रेस में जाना हो, कहीं भाग रहे हो, पर कहाँ, शायद ये तो मालूम ही नहीं, मगर बस भागते जाना है, इस रैट रेस में. क्या इसका कहीं अंत भी है? मालूम नहीं, मगर बस भागते रहो, क्यूंकि यहीं सिखाया गया है की,

'ज़िन्दगी एक रेस है, अगर तेज़ नहीं भागोगे, तो कोई और तुमसे आगे भाग जाएगा'

खैर इतनी भीड़ थी, और एक मेट्रो आने में भी समय लग रहा था, सो जैसे ही मुझे मेरे गंतव्य वाली मेट्रो दिखी, मैंने उसमे जैसे कैसे एंट्री ली, पर उसके चलते ही, ये पता चला, की जैसे वो कहते है ना,


'दिखावों पे मत जाओ, अपनी अक्ल लगाओ' 

ये मेट्रो दूसरे गंतव्य को जाती है, सो बीच रास्ते में ही उसको छोड़ना पड़ा.और अब मैं फिर से इंतज़ार और कतार में था, फिर थोड़ी देर बाद एक मेट्रो आई, मगर वहाँ पहले से ऐसे लिखे पढ़े गवार लोग थे, जो किसी को उतरने ही नहीं दे रहे थे, उल्टा ज़बरदस्ती चढ़ रहे थे. मैंने रोकने की कोशिश की,मगर वो तो भीड़ है साहब, किसी की नहीं सुनती. खैर मैं जैसे कैसे अपने गंतव्य पहुँचा, और वहां से अपनी मंज़िल.

मगर इस खूबसूरत सफरनामे को एक खूबसूरत तरीके से अंत भी करना था, सो घर पहुँचते ही मैंने कढ़ाई पनीर और रोटियों से इसका समापन किया और अद्भुत भोजन का आनंद लिया. और अंत में जैसे बच्चन साहब कहते है,

'शुभ रात्रि,शुभ रात्रि,शुभ रात्रि एंड डू टेक वेरी गुड केयर ऑफ़ योरसेल्वेस'

Wednesday 3 September 2014

अकेलापन.... कितना अच्छा? कितना बुरा?

ये सवाल मेरे मन में आज सुबह जब आया तो मैं ये सोचने लगा की वाकई में, अकेलापन.... कितना अच्छा? कितना बुरा? पहले पहल तो कुछ समझ ही नहीं आया, लगा जैसे मेरे दिमाग ने मुझे अकेला छोड़ दिया हो, फिर मैं सोचने लगा, की नहीं ये अकेलापन,हमेशा बुरा नहीं होता, बिलकुल नहीं. ये बिलकुल वैसे ही है, जैसे की किसी भी सिक्के का सिर्फ एक पहलू नहीं होता. अगर उसके एक तरफ हेड है तो दूसरी और टेल.

वैसे मैं जब ये सोच रहा था, तो ये भी सोचने लगा की आखिर एक सिक्के में ये ही दो साइड्स क्यों होते है? एक हेड, तो दूसरा टेल. ना जाने क्यों इसपर विचार करने का मन कर गया,थोड़ी देर के बाद एक अजीब सी सोच ने दस्तक दी, जैसे की मुझको जगाना चाहती हो, जैसे मुझसे कुछ कहना चाहती हो. पर क्या?

वो कहना चाहती थी, की हर इंसान की ज़िन्दगी के दो ही पहलू होते है,अच्छा या बुरा. हर चीज़ के दो पहलू होते है, अच्छे या बुरे, फिर यही ख्याल अकेलेपन के लिए भी आया, और मैं सोचने लगा, की अकेलापन बुरा होता है, ये तो सुना था, मगर अच्छा कैसे हो सकता है. सोचने लगा तो एक ख्याल आया, जिसने कहा की जैसे हर पहलू के दो रूप होते है, वैसे ही इसके भी दो ही है.

अकेलेपन में आप स्वयं से बातें कर सकते हो (शायद कई लोग इसको पागलपन समझे), खुद को बेहतर करने के बारे में सोच सकते हो, कैसे आजके दिन को बेहतर कर सकते हो, क्या पढ़ना चाहते हो, ये जानते हो, कहाँ क्या रखा है, इसकी खबर होती है. एक ज़िम्मेदारी का एहसास होता है, पता है की गर ये चीज़ नहीं की, तो क्या नुकसान हो सकता है.किस चीज़ की कमीं हो सकती है. खुद को सुपरचार्ज रखना पड़ता है.

मैं जानता हूँ की इसको पढ़ने वाले ज़्यादातर लोग इस बात से सहमत नहीं होंगे. उनके हिसाब से ये एक गलत धारणा है, मगर जैसा मैंने पहले कहा की हर बात के अपने मतलब, मायने और आईने होते है,जैसा मैंने पहले भी कहा है,

'हर बात को कहने के अपने मायने होते है, और उसको समझने के अपने आईने होते है'-शुक्ल

आप निर्णय लीजिये की अकेलापन.... कितना अच्छा? कितना बुरा?

Tuesday 2 September 2014

नेताओ की बातचीत

आजकल का समय कुछ यूँ हो गया है, की जिस नेता को देखिये, दूसरे की टाँग खींचने में लगा है, और जब वो एक दूसरे से अपने काम बनते हुए देखते है, तो उसी 'तथाकथित' दुश्मन को दोस्त बना लेते है. ये क्या विडंबना है की इतने साल हो जाने के बाद भी, हमें आज भी हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर लड़ाया जाता है, और देखिये ना हम आज भी लड़ते है, एक दूसरे को मारने के लिए, तभी तो गोधरा कांड होता है, मुज़फ्फरनगर में दंगा होता है,और ना जाने कितने ऐसे वाकए पेश आते है, जिनमे लोगों को, निर्दोष लोगों को, अपनी जान गवानी पड़ती है.

ये कितना दुखद है की आज़ादी के ६८वी सालगिरह मना चुके देश में आज भी हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर ज़हर परोसा जाता है और लोग उस बात को मानते भी है. ये कितना दुखद है की लोगों को कथनी-करनी में फर्क ही समझ नहीं आता और लोग इस प्रकार की हरकते करते है वो भी किसी नेता के बहकाने पर.

आज जब देश ने मिसाइल से अपना शक्ति परिक्षण कर दिया है, और देश दुनिया को ये कहा है, की हम भी एक न्यूक्लियर देश है, वहीँ आज भी जाति, धर्म, वेशभूषा, राज्य और कई अन्य कारणों से हमें आज भी तोडा जाता है. ज़रुरत है की हम समझे और देश को सौहार्द की ओर ले चले.

Monday 1 September 2014

खुद को बेहतर कीजिए

जिसे देखो वो ये कहता है की ये ठीक नहीं करते, या इनकी गलती है. बताइए ना, अगर हम दूसरे की गलती ही जताते रहेंगे तो खुद तो ठीक कब करेंगे. मेरे कई साथी इस बात से शायद तार्रुफ़ ना रखें, मगर मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. मैंने हमेशा से सही कहने का माद्दा रखा है, और ये मानता हूँ की मेरे पास एक 'रीढ़ की हड्डी' है, जिनके पास नहीं है, वो गलत मानेंगे.

देखिए ना, मेरे दो ब्लॉग्स पर इतना बवाला मचा की लोगों ने पेज व्यूज की लिमिट से ज़्यादा मेरे उन दो ब्लॉग्स को पढ़ा, कारण शायद ये था की मैंने जो कहा वो सच कहा और डंके की चोट पर कहा. लोगों को बुरा लगा, क्यूंकि वो खुद पर ऊँगली उठते नहीं देख सकते थे. उन्हें लगा की मैं गलत हूँ, और मुझे अपने आप को बेहतर करना चाहिए, बिलकुल करना चाहिए और मैं करूँगा भी, मगर क्या इसका मतलब ये हो जाता है की आप हमेशा से सही है?

हम हमेशा सामने वाले पर एक ऊँगली तान कर ये जताने की कोशिश करते हैं की वो गलत है, मगर ये भूल जाते है की तीन उंगलियां और एक अंगूठा, हमारी ओर ही होता है, जिसका मतलबा हुआ, की उस सामने वाले से ज़्यादा कहीं ना कहीं हमें ठीक होने की ज़रुरत होती है. मानता हूँ, की मैंने जब उनपर ऊँगली उठाई तो खुद पर भी तीन उठी, और मैंने खुद को बेहतर करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है, क्यूंकि मैं उनको नीचे लाकर बड़ा/बेहतर नहीं बन सकता, बल्कि उनसे बेहतर होकर ही मैं उनसे बड़ा हो सकता हूँ.

प्रयास जारी है, आगे समयइच्छा